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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

विनायक सेन को उम्र कैद

शीतला सिंह
(जनमोर्चा के संपादक और प्रेस कांउसिल के सदस्य है)
छत्तीसगढ़ में रायपुर की एक अदालत ने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के उपाध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता विनायक सेन सहित नक्सल विचारक नारायण सान्याल और कोलकाता के कारोबारी पीयूष गुहा को भादवि की धारा 124 ए (राजद्रोह) और 120 बी (षडयंत्र) के तहत उम्रकैद की सजा सुनायी है। श्री सेन को 14 मई 2007 को विलासपुर में गिरफ्तार किया गया था। विनायक सेन को देश में समाज सेवा के लिए कई सम्मान मिले हैं। कई अन्य देशों में भी विश्व स्वास्थ्य मिशन आदि के लिए उन्हें कई सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। उनकी वैचारिक विरोधी रही भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें गंभीर सजा देने के लिए विशेष पैरोकारी की थी। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राज्य और सरकार दोनों को एक ही नहीं माना जा सकता। राज्य तो स्थायी व्यवस्था है, लेकिन सरकारें देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप आती-जाती रहती हैं। व्यवस्था चलाने के लिए इन सरकारों का विधायी अंग कानून भी बनाता है और जिसके अनुरक्षण का दायित्व स्थायी तत्व के रूप में कार्यरत कार्यपालिका के पास होता है। न्यायपालिका को भी राज्य का अंग ही माना जाता है, क्योंकि उसकी सत्ता अलग से नहीं है।भारतीय संविधान में नागरिकों को मूल अधिकार दिये गये हैं। उसी के अनुच्छेद 19 (1) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्रम में ही राजनीतिक संगठनों के बनाने और चलाने का भी अधिकार है। इस अधिकार में प्रतिबंध केवल उपक्रम के लिए ही लगाया जा सकता है। लोक व्यवस्था कानून व्यवस्था का पर्यायवाची नहीं माना जा सकता, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत 1951 में जो परिवर्तन किये गये थे, वे ही सरकारों को सार्वजनिक व्यवस्था के क्रम में कदम उठाने का भी अधिकार देते हैं, पर यह मूल अधिकारों को समाप्त करके नहीं। अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी भारतीय दंड विधि की धारा 124 ए में राजद्रोह को यूं परिभाषित किया गया है- ‘जो कोई व्यक्ति लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों या दृष्टिगत निरूपण या किसी भी तरह से नफरत या घृणा फैलाता है या फैलाने की कोशिश करता है या भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ विद्रोह भड़काता है या भड़काने की कोशिश करता है, उसे आजीवन कारावास या उससे कुछ कम समय की सजा दी जायेगी जिसमें जुर्माना भी लगाया जा सकता है या जुर्माना किया जा सकता है। इसके साथ ही तीन व्याख्याएं भी दी गयी हैं (1) विद्रोह की अभिव्यक्ति में शत्रुता की भावनाएं और अनिष्ठा शामिल है। (2) बिना नफरत फैलाए या नफरत फैलाने की कोशिश किये, अवज्ञा या विद्रोह भड़काए बिना सरकार के कार्यों की आलोचना करने वाले मत प्रकट करना जिसमें कानूनी रूप से उन्हें सुधारने की बात हो, तो यह इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं माना जायेगा। (3) बिना नफरत फैलाये या नफरत फैलाने की कोशिश किये, अवज्ञा या विद्रोह भड़काए बिना प्रशासन या सरकार के किसी अन्य विभाग की आलोचना करने वाले मत प्रकट करना इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं माना जायेगा। इसलिए लोकतांत्रिक देश में शांतिपूर्ण आंदोलन को राजद्रोह की परिभाषा में नहीं रखा जा सकता। यदि ऐसा करने का अधिकार न होगा तब तो लोकतंत्र जो एक दल या विचारक या कार्यक्रम वाले दल द्वारा चलाया जा रहा हो, उसे फिर कैसे हटाया जायेगा। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति के प्रतिबंध के संबंध में भी कुछ मानक बनाये हैं-यानी जहां दबाना आवश्यक है, कोई सामुदायिक हित खतरे में है, लेकिन यह खतरा अटकलों पर नहीं होगा बल्कि पब्लिक आर्डर के लिए आंतरिक रूप से खतरनाक होना जरूरी है। इसी प्रकार 124 ए के अंतर्गत विराग (डिसअफेक्शन) कहा जा सकता है। वह भी इससे सीधा सम्बद्ध है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर इस संबंध में जो निर्णय दिये हैं उसे ‘विराग’ को स्नेह या बुरी भावना से अलग किया गया, व्यवस्था या अव्यवस्थाओं में अन्तर किया गया है। विद्रोह उकसाने के लिए किसी व्यक्ति को आरोपित करने हेतु अभिव्यक्ति और सरकार के बीच सीधा संबंध होना जरूरी है। गड़बड़ी की आशंका से विद्रोह को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए सरकार के प्रति अनास्था और उसे बदलने का प्रयत्न दोनों अलग-अलग तत्व हैं। अनास्था को अराजकतावाद कहा जा सकता है जिसमें तर्क यह है कि सरकार व्यक्ति के मूल और स्वाभाविक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाती है और उसके लिए निरंकुशतापूर्ण हो जाती है। जब यह निरंकुशता प्रतीक बन जाये तब इससे कैसे लड़ा जाये? क्योंकि सारे संहारक अस्त्र तथा उनका संगठित प्रयास सरकार के हाथ में ही होते हैं। इस अराजकतावाद में भी व्यक्ति के सामान्य जीवन व स्थापना का सिद्धान्त अस्वीकार्य नहीं किया गया है।जब सरकारें होंगी, तब उनके खिलाफ असंतोष भी होगा और वह विभिन्न स्वरूप ग्रहण करेगा। इसके लिए आंदोलन भी होंगे, लेकिन उन्हंे कुचलने के लिए राज्य तभी कोई कदम उठा सकता है जब हिंसा को प्रोत्साहित करने के कोई कदम उठाये गये हों। यह केवल भावनाओं पर आधारित नहीं हो सकता। लोकतांत्रिक और निर्वाचित सरकारों के खिलाफ आंदोलन या अभिव्यक्ति को राजद्रोह का कारण मान लिया जायेगा तब तो यह सरकारों की निरंकुशता ही सुदृढ़ करेगा। उनकी असंवेदनशीलता के परिणामों से ग्रस्त होने से बचने के लिए प्रतिरोध ही तो विकल्प होगा। लेकिन बारीक धारा यही है कि वह हिंसक नहीं होना चाहिए। इसीलिए जब 124 ए की परिभाषाएं की गयी हैं और कहा गया है कि ‘कानून द्वारा स्थापित सरकारों को उन लोगों से अलग होकर देखना चाहिए जो कुछ समय के लिए कार्य कर रहे हों। इसलिए यह प्रश्न किसी एक व्यक्ति और उसकी सजा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजद्रोह की सीमाएं निर्धारित करता है कि इसका प्रयोग जनता के मूल अधिकारों को समाप्त करने के लिए नहीं हो सकता। इसी प्रकार सरकार का काम विचारों पर प्रतिबंध लगाना नहीं है। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समाज के विभिन्न अंगों व समुदायों को प्रदान की गयी है। केवल समाचारपत्रों को ही नहीं है। वे भी आम जन समुदाय की श्रेणी में आते हैं। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्रम में ही संगठन बनाने और चलाने की आजादी को भी देखा जाना चाहिए। उनकी निष्ठा सरकार के प्रति हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। इसलिए इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर अंतिम निर्णय तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही होना है। कुल मिलाकर यह निर्णय न केवल भावनाओं, अटकलों और उनके कल्पित परिणामों पर आधारित है, बल्कि अव्यवस्था को साधारण परिभाषा में ही मूल अधिकारों से अलग करके लिया गया है।

राष्‍ट्रविरोधी की परिभाषा ही भ्रष्‍ट हो चुकी है : अरुंधती


विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद अरुंधती राय से यह इंटरव्‍यू सीएनएन आईबीएन की पत्रकार रूपाश्री नंदा ने लिया। इस इंटरव्‍यू में अरुंधती बता रही हैं कि कैसे सरकार जनता के प्रतिरोध की भाषा को राज्‍य के खिलाफ बगावत समझ रही है और कैसे बड़ी राष्‍ट्रविरोधी हरकतों के सामने जिंदगी की बुनियादी जरूरतों के लिए लड़ाई को ज्‍यादा खतरनाक समझा जा रहा है : मॉडरेटर
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रूपाश्री नंदा : उस समय आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी, जब आपने यह सुना कि विनायक सेन एवं दो अन्य लोगों को राजद्रोह के मामले में उम्रकैद की सजा सुनायी गयी है?
अरुंधती राय : मैं इस बात की उम्मीद तो नहीं ही कर रही थी कि फैसला न्यायपूर्ण होगा, लेकिन ऐसा लगा कि अदालत में जो साक्ष्य प्रस्तुत किये गये और जो फैसला आया, उनका आपस में कोई संबंध नहीं जुड़ता। मेरी प्रतिक्रिया यह थी कि यह एक प्रकार से घोषणा थी… यह कोई फैसला नहीं था। यह एक प्रकार से उनके आशय की घोषणा थी, यह एक संदेश था, दूसरों के लिए चेतावनी थी। इसलिए यह दो प्रकार से काम करता है। चेतावनी पर ध्यान दिया जाएगा। मुझे लगता है कि जिन लोगों ने फैसला सुनाया है, उनको इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि लोगों की प्रतिक्रिया इतनी एकजुट और प्रचंड होगी, जैसी कि यह अभी है।
रूपाश्री नंदा : आपको न्यायपूर्ण फैसले की उम्मीद क्यों नहीं थी?
अरुंधती राय : इस केस पर हमारी नजर पिछले कुछ सालों से थी। जिस तरह से इसका ट्रायल चल रहा था, उसको लेकर खबरें आती रहती थीं। साक्ष्य यह है कि कुछ तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया। जो साक्ष्य थे भी, वे इतने कमजोर थे… यहां तक कि नारायण सेन, जिसको केंद्र में रखकर राजद्रोह का सारा मामला तैयार किया गया, भी उस समय तक राजद्रोह के मामले में अभियुक्त नहीं थे, जब विनायक सेन को गिरफ्तार किया गया था। इसलिए यह लगता है कि इसके पीछे पूर्वाग्रह की भावना काम कर रही है, जो प्रजातंत्र के लिए चिंताजनक है। अदालतों को, मीडिया को भीड़तंत्र के हवाले कर दिया गया है।
रूपाश्री नंदा : क्या आपको लगता है कि राज्य कभी जनतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा एवं आतंकवाद से रक्षा के बीच की झीनी सी रेखा पर कभी चल सकता है? इसकी उम्मीद की जा सकती है?
अरुंधती राय : आतंक की परिभाषा में भी झोल है। हम इसको लेकर बहस कर सकते हैं, लेकिन इस तरह के कानून हमेशा से मौजूद रहे हैं, चाहे वह टाडा रहा हो या पोटा रहा हो। अगर हम इतिहास को देखें तो जितने लोगों को सजा सुनायी गयी, उनमें कितने अभियुक्त थे… शायद एक प्रतिशत या 0.1 प्रतिशत। क्योंकि जो लोग सचमुच गैर-कानूनी हैं, चाहे वे विद्रोही हों या आतंकवादी, उनकी कानून में कोई खास रुचि नहीं होती है। इसलिए इन कानूनों का हमेशा उन लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता रहा है, जो आतंकवादी नहीं होते तथा किसी न किसी रूप में गैरकानूनी भी नहीं होते हैं। यही बात विनायक सेन के संदर्भ में भी है। असल मुद्दा यह है, अगर आप माओवादियों की बात करते हैं, जो कि एक प्रतिबंधित संगठन है… तो उनको क्यों प्रतिबंधित किया गया है? क्योंकि वे हिंसा में विश्वास करते हैं – लेकिन आज के समाचारपत्र में यह लिखा हुआ है कि समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाके के पीछे हिंदुत्ववादी ताकतें काम कर रही थीं। यहां तक कि मुख्यधारा के दल भी जघन्य किस्म की हिंसा से जुड़े रहे हैं। यहां तक कि नरसंहार तक के, लेकिन उनको कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया। इसलिए किसको आप प्रतिबंधित करने के लिए चुनते हैं, किसको प्रतिबंधित नहीं करने के लिए चुनते हैं – ये सभी राजनीतिक फैसले होते हैं। लेकिन आज हालात यह है कि सरकार एवं आर्थिक नीतियां खुलकर असंवैधानिक रूप से काम कर रही हैं। वे हैं जो PESA (panchayat extension schedule area act) के खिलाफ काम कर रही हैं। उनकी आर्थिक नीतियों के कारण विस्थापन बढ़ रहा है। 80 करोड़ लोग 20 रुपये से भी कम में गुजारा कर रहे हैं, साल में 17 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं…
रूपाश्री नंदा : लेकिन यह हिंसा को जस्टिफाई नहीं करता है। सीएनएन-आईबीएन के सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी कि बहुसंख्यक लोग माओवादियों के मुद्दों से सहानुभूति तो रखते हैं लेकिन वे उनके तौर-तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। हां, यह बात सच है कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी हिंसा करती हैं, लेकिन वे यह नहीं कहतीं कि यह उनका घोषणापत्र है। दोनों में यह फर्क है?
अरुंधती राय : हां, मैं मानती हूं कि यह एक महत्वपूर्ण अंतर है। माओवादियों की पद्धतियों पर निश्चित तौर पर कोई प्रश्न उठा सकता है। लेकिन मैं कहना यह चाह रही हूं कि ये कानून इस तरह के हैं कि किसी भी व्यक्ति को अपराधी बनाया जा सकता है। यह केवल माओवादियों के लिए ही नहीं है, उनके लिए भी है जो माओवादी नहीं हैं। यह जनतांत्रिक गतिविधियों को आपराधिक ठहराता है और अधिक से अधिक लोगों को कानून के दायरे से बाहर लाता है। इसलिए अंततः यह प्रति-उत्पादक है। अगर आप हिंसात्मक गतिविधियों में शामिल होते हैं, तो आपको कई सामान्य प्रकार के कानूनों का सामना करना पड़ता है। इसलिए इस तरह के कानून के होने से, जिसमें राज्य के प्रति प्रतिरोध को अपराध माना जाए, हम सब अपराधी हुए।
रूपाश्री नंदा : तो सुरक्षा का उपयुक्त उपाय क्या होना चाहिए?
अरुंधती राय : देखिए। आपको यह समझना होगा कि यह सब इस बात से उपजता है कि राज्य की संस्थाओं में लोगों का विश्वास कम होता जाता है। लोग यह मानने लगे हैं कि प्रजातांत्रिक संस्थाओं में उनके लिए न्याय की कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए इसका कोई समाधान तुरत-फुरत में नहीं किया जा सकता है। आपको लोगों में यह विश्वास जगाना होगा कि आप उनके प्रतिरोध को समझते हैं और उसको दूर करने के लिए उपाय करना चाहते हैं। नहीं तो ऐसी स्थिति आती जाएगी, जिसमें माहौल हिंसात्मक होता जाएगा… पुलिस या सेना के राज्य से किसी का भला नहीं होने वाला है। क्योंकि 80 करोड़ लोगों को कंगाल बनाकर आप सुरक्षित रहने की उम्मीद नहीं कर सकते। ऐसा नहीं होनेवाला। अधिक से अधिक लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा रहा है, उनको सजा दी जा रही है। आप एक ऐसी अवस्था का निर्माण कर रहे हैं जिसमें राष्ट्रविरोधी की परिभाषा यह हो जाती है कि जो अधिक से अधिक लोगों की भलाई के लिए काम कर रहा है, यह अपने आप में विरोधाभासी और भ्रष्ट है। विनायक सेन जैसा आदमी जो सबसे गरीब लोगों के बीच काम करता है अपराधी हो जाता है, लेकिन न्यायपालिका, मीडिया तथा अन्यों की मदद से जनता के एक लाख 75 हजार करोड़ रुपये का घोटाला करने वालों का कुछ नहीं होता। वे अपने फार्म हाउसों में, अपने बीएमडब्ल्यू के साथ जी रहे हैं। इसलिए राष्ट्रविरोधी की परिभाषा ही अपने आप में भ्रष्ट हो चुकी है… जो कोई भी न्याय की बात कर रहा है, उसको माओवादी घोषित कर दिया जाता है। यह कौन तय करता है कि राष्ट्र के लिए क्या अच्छा है।
रूपाश्री नंदा : दिल्ली में आपके खिलाफ भी एफआईआर दर्ज हुआ है… क्या आपको यह लगता है कि आपके ऊपर भी राजद्रोह का मुकदमा बनाया जा सकता है?
अरुंधती राय : अभी तो यह सब कुछ कुछ लोगों द्वारा निजी तौर पर किया जा रहा है। जिस व्यक्ति ने मुकदमा दायर किया है, वह अनाधिकारिक तौर पर भाजपा का प्रचार मैनेजर है। राज्य द्वारा यह नहीं किया जा रहा है और मैं इस पर कोई अति-प्रतिक्रिया व्यक्त कर अपने आपको शहीद नहीं घोषित करना चाहती। विनायक और सैकड़ों अन्य लोग जो जेल में हैं, सजा की प्रक्रिया में हैं… उनकी जिंदगियां तबाह कर दी गयीं। अगर वे जमानत पर छूट भी जाएं तो भी वे अदालत की फीस चुकाने में कंगाल हो जाएंगे। उनको अपनी प्रैक्टिस छोड़नी पड़ी। जो बहुत बड़ा काम वे कर रहे थे, उसे छोडना पड़ा। यह एक तरह से आपको चुप कराने की प्रक्रिया है, जो चिंताजनक है।
रूपाश्री नंदा : क्या आपने इतने बुरे हालात कभी देखे हैं… लोग इस बात को लेकर डरे रहते हैं कि वे किससे बातें कर रहे हैं, किससे मिल रहे हैं?
अरुंधती राय : देखिए, कश्मीर और मणिपुर जैसे राज्यों में यह सब बरसों से चल रहा है… लेकिन अब वह राजधानी की फिजाओं में घुसता जा रहा है, आपके ड्राइंग रूम में घुस रहा है, जो चिंता का कारण है – लेकिन बस्तर में तो यह बरसों से हो रहा है।
रूपाश्री नंदा : आज हम जिस तरह के वातावरण में रह रहे हैं, एक लेखक के तौर पर उसे आप किस तरह देखती हैं?
अरुंधती राय : मेरा कहना यह है कि इस तरह की नीतियां हम खुद को बिना पुलिस या सैनिक राज्य में बदले लागू नहीं कर सकते। हमने सुना कि राडिया टेप या 2जी घोटाला उजागर हुआ। लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण का मामला भी उतना ही बड़ा है, उतना ही मानवीय पहलू है। यह मनमाने ढंग से हो रहा है। एक राष्ट्र के रूप में हम संकट में हैं। हम उन लोगों की जुबान बंद करना चाह रहे हैं, जो इनके प्रति चिंता व्यक्त कर रहे हैं, इनके खतरों से आगाह कर रहे हैं, वे ऐसे लोग नहीं हैं जो अपने देश से नफरत करते हों। अगर आप पीछे जाकर उनके लिखे को पढ़ें, उनके कहे को सुनें तो पाएंगे कि उन्होंने इस अवस्था की भविष्यवाणी बहुत पहले कर दी थी। ये वे लोग हैं, जिनको सुने जाने की जरूरत है, न कि उनको जेल भेजा जाए, आजीवन कारावास की सजा सुनायी जाए या मार दिया जाए।
जानकी पुल वाया ibnlive.in.com से साभार

अदालती फैसले से लोकतंत्र को चुनौती


अनिल चमड़िया

डा. बिनायक सेन के साथ नारायण संयाल और पीयूष गुहा को रायपुर की जिला अदालत द्वारा छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा विशेष कानून 2005 और गैर कानूनी गतिविधि रोधक कानून 1967 की धाराओं के तहत उम्र कैद की सजा को हाल के वर्षों में न्यायालयों में आ रहे कई फैसलों की एक नवीनतम कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए है। अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद बड़े दिन की छुट्टियों से ठीक पहले न्यायाधीश बी पी वर्मा द्वारा मानवाधिकार नेता बिनायक सेन के खिलाफ जिला अदालत में फैसला लोकतंत्र के लिए चिंतित समाज के लिए पर्याप्त सामग्री मुहैया कराता है।अदालतें ग्वाह, सबूत और तर्कों के बजाय यदि शासकीय नीतियों पर आस्था को लेकर न्यायकरने लगी है। मैं सितंबर 2007 को दिल्ली से बिलासपुर के एक कार्यक्रम में बतौर वक्ता गया था। उस कार्यक्रम में बिलासपुर जेल के अधीक्षक भी मौजूद थे। उन्होने दूसरे दिन बिलासपुर जेल देखने के लिए हमें बुलाया था। उस जेल में नारायण संयाल भी बंद थे जिनसे वहां हमारी मुलाकात हुई। बिलासपुर की जेल की चाहरदिवारी से निकलने से पहले वहां मुझे एक तस्वीर दिखाई गई जिसमें बिनायक सेन को नारायण संयाल से मिलते दिखाया गया है।जेल में किसी मुलाकाती की किसी बंदी से तस्वीर नहीं खींची जाती है। लेकिन उपरी आदेश से डा. बिनायक सेन की नारायण संयाल की तस्वीर खींची गई और उन खास क्षणों को तस्वीर में कैद किया गया जब किसी बात पर डा. बिनायक और संयाल मुस्कुरा उठे थे। मुझे बताया गया कि यह तस्वीर दोनों की अंतरगता को कैसे साबित करती है। मैंने ये भी कहा कि ये तस्वीर तो एक बड़ी साजिश के हिस्से के रूप में उतारी गई है। इस घटना की यहां चर्चा करना इसीलिए जरूरी था कि डा. बिनायक सेन की सजा पहले से मुकर्रर थी। न्यायप्रिय अदालत ने तो केवल अपनी मुहर लगायी है। छत्तीसगढ़ की खासम खास आवाम चाहती थी कि बिनायक सेन पर जो आरोप लगाए गए हैं, वे बिना सबूत के भी साबित होने चाहिए।डा. बिनायक के खिलाफ लगातार राज्य के अखबारों में खबरें छपती रही।वहां बिनायक का पक्ष रखने वाली खबरों पर लगभग सरकारी गैरसरकारी सेंसर की स्थिति रही है।

पिछले साठ वर्षों में ऐसे न जाने कितने उदाहरण मिल सकते हैं जिसमें कि सरकार और पुलिस ने लोगों के लिए लड़ने वाले या लोकतंत्र के पक्ष में बोलने वालों के खिलाफ तरह तरह के आरोपों में मुकदमें लदे हैं।इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया तब देश के बडे बड़े नेताओं को बडौदा डायनामाइट कांड में फंसाया था।आपातकाल में ही उस मुकदमें का फैसला होता तो सभी बड़े नेताओं को उम्र कैद या फांसी की सजा हो गई होती।छत्तीसगढ़ में हालात बड़ी तेजी से बदले हैं। कल्पना किया जा सकता है कि वहां विधानसभा की गुप्त बैठकें हुई है।मानवाधिकारों के हनन की पराकाष्टा ये है कि गांधी और अहिंसा की जीवनभर शपथ खाने वाले लेकिन सत्य और न्याय के पक्ष में बोलने वाले किसी भी नेता व कार्यकर्ता को नहीं बख्शा गया है। वहां सरकारी मशीनरी के दमन के खिलाफ बोलने वाला हर नागरिक छत्तीसगढ़ के लिए विशेषतौर पर बनाए गए जन सुरक्षा कानून2005 के तहत राज्य द्रोही है।

सरकारी मशीनरी यदि किसी राजनीतिक- सामाजिक कार्यकर्ता को किसी आरोप के तहत गिरफ्तार करती है तो उसका इरादा ये नहीं होता है कि वह तत्काल प्रभाव से अपने सबूतों और साक्ष्यों को पुष्ट करें। उसकी योजना में ये होता है कि किसी भी तरह के आरोप लगाकार किसी राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिया जाता है तो अदालतों के सहारे उसे लंबे समय तक के लिए कैद रखा जा सकता है। भले ही वह बाद के वर्षों में बड़ी अदालतों से छूट जाए। सरकार का मकसद एक की गिरफ्तारी के खिलाफ पूरे आंदोलन को चेतावनी देना होता है।अपने मूल्क का राजनीतिक दर्शन आर्थिक और सामाजिक तौर पर कमजोर व्यक्तियों और समूहों के पक्ष में राज्य मशीनरी का झुकाव जरूरी माना जाता है। समाजवादी दर्शन की छाया इसे कह सकते हैं। इसीलिए यह पाया जाता है कि न्यायालयों का झुकाव पहले आम लोगों के हितों और उनके अधिकारों की सुरक्षा की तरफ ज्यादा रहा है। लेकिन स्थितियां तेजी के साथ बदली है। इसीलिए न्यायालयों में कानून की धाराओं की व्याख्याएं भी बदल गई है।आपातकाल के दौरान न्यायालय सरकार की नीतियों के अनुरूप काम करने लगी थी। भूमंडलीकरण के बाद उसके अनुरूप नीतियों की तरफ उसका झुकाव साफ दिखाई देता है। इसीलिए न्यायालयों में इस समय कई फैसले बेहद आश्चर्यजनक लग रहे हैं क्योंकि उसके बारे में राय या धारणा पुरानी है। न्यायालयों में किसी एक खासतौर से लोकतांत्रिक सिद्धांतों और मूल्यों को संबोधित करने वाले किसी भी मामले में आने वाला फैसला नये दर्शन से जुड़ा होता है। डा. बिनायक सेन , नारायण संयाल और पीयूष गुहा के फैसले को पिछले उन फैसलों के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए जिन्हें सुनकर धक्का लगा हो।इसके साथ एक बात और जोड़ लेनी चाहिए कि जिन बेहद खुले मामलों में लोकतंत्र में भरोसा रखने वाले सरकार व न्यायालय से किसी तरह की कार्रवाई की उम्मीद करते थे और उन मामलों में कुछ नहीं होता देख निराशा में डूब गए। न्यायालय जब तर्क और साक्ष्य के बजाय कानून की धाराओं की व्याख्या आस्थाओं के आधार पर करने लगे तो इसका भी अर्थ साफ है कि उसका एक खास मकसद हैं। डा. बिनायक सेन की रिहाई के लिए दुनियाभर में जितनी आवाजें उठी है हाल के वर्षों में शायद ही किसी एक ऐसे मामले में उठी हो। दुनियाभर में लोकतंत्र में आस्था के जाने जाने वाले सैकड़ों लोगों ने केन्द्र और बीजेपी शासित छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार के समक्ष मांग उठायी। जिला अदालत के फैसले के खिलाफ जिस तरह से आवाज उठने लगी है यह लोकतंत्र के लिए और चिंतनीय है।इसे भी अदालतों के खिलाफ हाल के वर्षों में उठी आवाज और न्यायापालिका के अंदर लोकतंत्र के सवाल पर चल रही बहसों की एक कड़ी के रूप में देखना चाहिए।डा. बिनायक सेन के खिलाफ सजा के विरोध में आंदोलन न्यायिक ढांचे पर विश्वसनीयता के भाव को और कमजोर करेगी। जितनी बड़ी तादाद में मानवाधिकार कार्यर्कर्ता रायपुर में फैसले के वक्त मौजूद थे और जिस तरह से फैसले के तत्काल बाद लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की उससे फैसले की स्वीकार्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है। बड़े दिन की छुट्टी के बावजूद फैसले के दूसरे दिन लोग दिल्ली में सड़क पर उतरें।सरकारी पक्ष मानवाधिकार आंदोलनों को देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे हिंसक संघर्षों से रिश्ता जोड़ने में लगा रहा है।बीजेपी आतंकवादी गतिविधियों के साथ मानवाधिकार आंदोलन को जोड़ने की योजना में लगी रही है। लेकिन बिनायक सेन के बहाने मानवाधिकार की सुरक्षा की बहस तेज होती दीख रही है।

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

तितलियों का खू़न

अंशु मालवीय ने यह कविता विनायक सेन की अन्यायपूर्ण सजा के खिलाफ 27 दिसंबर 2010 को इलाहाबाद के सिविल लाइन्स, सुभाश चौराहे पर तमाम सामाजिक संगठनों द्वारा आयोजित ‘असहमति दिवस’ पर सुनाई। अंशु भाई ने यह कविता 27 दिसंबर की सुबह लिखी। इस कविता के माध्यम से उन्होंने पूरे राज्य के चरित्र को बेनकाब किया है।

वे हमें सबक सिखाना चाहते हैं साथी !

उन्हें पता नहीं

कि वो तुलबा हैं हम

जो मक़तब में आये हैं

सबक सीखकर,

फ़र्क़ बस ये है

कि अलिफ़ के बजाय बे से शुरु किया था हमने

और सबसे पहले लिखा था बग़ावत।

जब हथियार उठाते हैं हम

उन्हें हमसे डर लगता है

जब हथियार नहीं उठाते हम

उन्हें और डर लगता है हमसे

ख़ालिस आदमी उन्हें नंगे खड़े साल के दरख़्त की तरह डराता है

वे फौरन काटना चाहता है उसे।

हमने मान लिया है कि

असीरे इन्सां बहरसूरत

ज़मी पर बहने के लिये है

उन्हें ख़ौफ़ इससे है..... कि हम

जंगलों में बिखरी सूखी पत्तियों पर पड़े

तितलियों के खून का हिसाब मांगने आये हैं।

डा. बिनायक सेन को उम्र कैद के बाद प्रधानमंत्री को नींद कैसे आ रही है?



विरोध प्रदर्शन नहीं होते तो आज जेसिका, प्रियदर्शिनी और रुचिरा के हत्यारे जेल में नहीं होते डा. बिनायक सेन को देशद्रोह के आरोप में उम्र कैद की सजा पर कुछ बुद्धिजीवियों का तर्क है कि यह फैसला कोर्ट का है. कोर्ट की सबको इज्जत करनी चाहिए. अगर आप फैसले से सहमत नहीं हैं तो ऊँची कोर्ट में जाइये लेकिन कोर्ट के फैसले के खिलाफ सड़क पर विरोध मत करिए. उनका यह भी कहना है कि कोर्ट के फैसले के विरोध से देश में अराजकता फ़ैल जायेगी और इसका सबसे अधिक फायदा सांप्रदायिक फासीवादी शक्तियां उठाएंगी. कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे बुद्धिजीवी या तो बहुत भोले हैं या फिर बहुत चालाक. वैसे सनद के लिए बताते चलें कि ठीक यही तर्क देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा का भी है. लेकिन सोमवार को जंतर-मंतर पर बिनायक सेन को सजा देने के खिलाफ आयोजित प्रदर्शन के दौरान अरुंधती ने बिल्कुल ठीक कहा कि सबसे बड़ी सजा तो खुद न्याय प्रक्रिया है. मतलब यह कि डा. सेन दो साल पहले ही जेल में रह चुके हैं. अब हाई कोर्ट में जमानत के लिए लडें और जीवन भर मुक़दमा लड़ते रहें. सचमुच, इससे बड़ी सजा और क्या हो सकती है कि ६१ साल की उम्र में डा. सेन इस कोर्ट से उस कोर्ट और इस जेल से उस जेल तक चक्कर काटते रहें? क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि भ्रष्ट और निरंकुश सत्ताएं, उनपर उंगली उठानेवालों या जनता के लिए लड़नेवालों को पुलिस की मदद से जेल-कोर्ट-कचहरी के अंतहीन यातना चक्र में कैसे फंसाती रहती हैं?
ऐसे एक नहीं, सैकड़ों उदाहरण हैं. आज भी पूरे देश में सैकड़ों बिनायक सेन सत्ता और पुलिस के षड्यंत्र और कोर्ट की मुहर के साथ जेलों में सड़ रहे हैं. इनमें जन संगठनों से लेकर कथित आतंकवादी संगठनों के लोग शामिल हैं. इसके अलावा हजारों निर्दोष नागरिक हैं जो पुलिसिया साजिश के कारण बरसों-बरस से जेल-कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं. लेकिन इससे किसी की नींद खराब नहीं हो रही है. प्रधानमंत्री आराम से सोये हुए हैं. याद कीजिये, जब २००७ में आस्ट्रेलिया पुलिस ने भारतीय डाक्टर मोहम्मद हनीफ को ग्लासगो बम विस्फोट के सिलसिले में गिरफ्तार किया था, तब पूरे देश में फूटी गुस्से की लहर के बाद मनमोहन सिंह ने कहा था कि ‘ (डा. हनीफ की गिरफ़्तारी के बाद) वे रात में सो नहीं पाते.’ ताजा खबर यह है कि आस्ट्रेलिया ने न सिर्फ डा. हनीफ से गलत केस में फंसाए जाने के लिए माफ़ी मांगी है बल्कि उन्हें मुआवजा देने का भी एलान किया है. लेकिन कहना मुश्किल है कि डा. बिनायक सेन की गिरफ़्तारी के बाद प्रधानमंत्री को नींद कैसे आ रही है? असल में, जिसके पास थोड़ी सी भी बुद्धि है और उसने उसे सत्ता और पूंजी के पास गिरवी नहीं रखा है, वह डा. सेन को देशद्रोह के आरोपों में उम्र कैद की सजा पर चुप नहीं रह सकता है. वैसे ही जैसे बहुतेरे बुद्धिजीवियों और संपादकों ने जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, रुचिका गिरहोत्रा जैसे मामलों में निचली अदालतों के अन्यायपूर्ण फैसलों पर खुलेआम अपना गुस्सा जाहिर किया था. देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए थे और जनमत के दबाव में ताकतवर लोगों द्वारा न्याय का मजाक बनाये जाने की प्रक्रिया पलटी जा सकी थी.
कहने की जरूरत नहीं है कि अगर वे विरोध प्रदर्शन नहीं हुए होते और लोगों का गुस्सा सड़क पर नहीं आता तो जेसिका, प्रियदर्शिनी और रुचिरा के हत्यारे सम्मानित नागरिकों की तरह आज भी घूम रहे होते..सचमुच, आश्चर्य की बात यह नहीं है कि डा. बिनायक सेन जेल में क्यों हैं बल्कि यह है कि हम सब बाहर क्यों हैं? कई बार ऐसा लगता है, जैसे पूरा देश ही एक खुली जेल में तब्दील होता जा रहा है जहाँ सच बोलना मना है...सच बोलने का मतलब है- खुली जेल से बंद जेल को निमंत्रण.

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

लोकतंत्र को उम्रकैद


प्रणय कृष्ण
'देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की'(बिनायक सेन की गिरफ्तारी के पीछे की हकीकतें और सबक )'नई आज़ादी के योद्धा' बिनायक सेन की गिरफ्तारी के पीछे की राजनीति और संकट की जरूरी पड़ताल करता, जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण का यह लेख मुझे मिला. पढ़िए, और आईये, बिनायक जी के साथ हर संभव तरीके से मजबूती से खड़े हों.25 दिसम्बर, २०१०ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई- न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी.यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए.डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से, जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर, न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़. सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़, मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा हैहमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द व्हाइट हाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.(आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को. क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश और बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है, 1870 में लाई गई. जिसके तहत सरकार के खिलाफ "घृणा फैलाना", "अवमानना करना" और "असंतोष पैदा" करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बरखा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ "सलवा जुडूम" चलाती हैं, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाषा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों. याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है? एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे?इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा. सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि "कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है". तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों (हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसि दिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था-“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--बंब संब की छोड़ो, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे !निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो, जितनी दूर तक हो, हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन.

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

जांच रिपोर्ट यूपी एसटीएफ की राष्ट्द्रोही गतिविधियों का करेगी खुलासा- पीयूसीएल

आजमगढ़ 13 दिसंबर 2010/ मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ;पीयूसीएलद्ध ने मुख्यमंत्री से तारिक कासमी और खालिद की गिरफ्तारी की जांच के लिए बने आरडी निमेष जांच आयोग की रिपोार्ट तत्काल सार्वजनिक करने की मांग की। संगठन के प्रदेश संगठन मंत्री मसीहुद्दीन संजरी, तारिक शफीक और विनोद यादव ने कहा कि यह दो बेनुहाओं जिन पर आतंकवाद जैसा राष्ट्द्रोही आरोप लगा है के मानवाधिकारों का सवाल है, जो सिर्फ इस जांच रिपोर्ट के न आने की वजह से जेलों में रहने के लिए अभिषप्त हैं। तो वहीं यह इससे भी जुड़ा सवाल है कि जिस यूपी एसटीएफ को विशेष अधिकार दिए गए हैं वो अपने अधिकारों का उल्लंघन कर जहां राष्ट् के आम नागरिकों को गैर कानूनी तरीके से फसा रही है तो वहीं गैर कानूनी तरीके से मानव समाज के लिए खतरनाक विस्फोटक और असलहे को किन राष्ट् विरोधी तत्वों से प्राप्त कर रही है। आज पीयूसीएल के मसीहुद्दीन संजरी, तारिक शफीक, विनोद यादव, अंशु माला सिंह, अब्दुल्ला एडवोकेट, जीतेंद्र हरि पांडे, आफताब, राजेन्द्र यादव, तबरेज अहमद ने मायावती सरकार से मांग की कि आरडी निमेष जांच आयोग की रिपोर्ट तत्काल लायी जाय।

पीयूसीएल ने जिलाधिकारी के माध्यम से मुख्यमंत्री को भेजे ज्ञापन में कहा कि हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि आजगढ़ के तारिक कासमी का 12 दिसंबर 2007 को रानी की सराय चेक पोस्ट पर कुछ असलहाधारियों ने अपहरण कर लिया, जिस पर स्थानीय स्तर पर तमाम राजनीतिक दलों और मानवाधिकार संगठनों ने धरने प्रदर्शन किए और जनपद की स्थानीय पुलिस ने तारिक को खोजने के लिए एक पुलिस टीम का गठन भी किया। तो वहीं खालिद को उसकी स्थानीय बाजार मड़ियांहूं से 16 दिसंबर 2007 की शाम चाट की दुकान से कुछ असलहाधारी टाटा सूमों सवार उठा ले गए थे, जिसके मड़ियाहूं बाजार में दर्जनों गवाह हैं। जिस पर भी काफी धरने-प्रदर्शन हुए और मांग की गई कि जल्द से जल्द उसको खोजा जाय। पर 22 दिसंबर 2007 को यूपी एसटीएफ ने दावा किया कि उसने यूपी के लखनऊ, फैजाबाद और वाराणसी कचहरी बम धमाकों के आरोपी तारिक कासमी और खालिद को उसने सुबह बाराबंकी रेलवे स्टेशन से भारी मात्रा में विस्फोटक पदार्थों और असलहे के साथ गिरफ्तार किया।
यूपी एसटीएफ के इस दावे के बाद हम मानवाधिकार संगठनों के लोगों का यह दावा पुख्ता हो गया कि इन दोनों को यूपी एसटीएफ ने गैर कानूनी तरीके से उठा कर अपने पास गैर कानूनी तरीके से पहले से रखे विस्फोटक पदार्थों को दिखा कर गिरफ्तार किया। जिस पर उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से इस घटना की जांच के लिए आरडीनिमेष जांच आयोग का गठन किया गया जिसको छह महीने के भीतर अपनी जांच प्रस्तुत करनी थी। पर आज घटना के तीन साल बीत जाने के बाद भी जांच आयोग की निष्क्रियता के चलते रिपोर्ट नहीं पेश की गई जो मानवाधिकार हनन का गंभीर मसला है। जबकि जांच आयोग को मानवाधिकार संगठनों और राजनीतिक दलों तक ने अपने पास उपलब्ध जानकारियां दी। मड़ियाहूं से गिरफ्तार खालिद की गिरफ्तारी के विषय में स्थानीय मड़ियाहूं कोतवाली तक ने सूचना अधिकार के तहत यह जानकारी दी कि खालिद को 16 दिसंबर 2007 को मड़ियाहूं से गिरफ्तार किया गया था। जो यूपी एसटीएफ के उस दावे की कि उसने उसको बाराबंकी से विस्फोटक के साथ गिरफ्तार किया था, के दावे को खारिज करता है। ऐसे में यह महत्वपूर्ण सवाल राष्ट् की सुरक्षा से भी है कि यूपी एसटीएफ के पास कहां से इतनी भारी मात्रा में विस्फोटक और असलहे आए।

अब मनरेगा ने भी पकडी ठेकेदारी की राह

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ जिले के कुढा गांव के लालजी हरिजन मनरेगा के जाब कार्ड धारक हैं।सौ दिन काम पाने की गारंटी के तहत उन्हे गांव की ग्राम पंचायत काम उस समय देती ह,ै जब उनके ईंट भट्ठे पर जाने का समय आ जाता है। गांवों मे बैठक के दिनों मे कोई उनकी सुधि नही लेता।अब उनकी मुश्किल यह है िक वे केवल सौ दिन काम करके महज दस हजार में साल भर परिवार की परिवरिश करें या फिर लगातार सात महीने काम पाने के लिए बरसात निकलते ही ईंट भटठे पर काम करने के लिए उत्तर प्रदेश से बाहर चलें जांएं ।
दरअसल यह समस्या केवल लालजी हरिजन की ही नही है इस तरह के न जाने कितने ही लोग इस किस्म के असमंजस से जूझ रहे हैं।दरअसल अक्टूबर के अंतिम सप्ताह का से लेकर जून के प्रथम सप्ताह तक का समय ईंट भटठे पर मजदूरी का होता है। और उत्तर प्रदेश से बाहर हजारों लोग पंजाब चंडीगढ और हरियाणा आदि जगहों पर मजदूरी करने भटठों पर हर साल जाते हैं। लालजी बताते है कि अगर हम सौ दिन का काम पूरा करके भटठे पर काम करने जाना चाहें तो वहां पर भटठा मालिक हमारी जगह दूसरे को काम पर रख लेता है। और हमारे लिए जगह ही नही बचती। लेकिन बरसात के दिनों मे जब हम बेरोजगार होते हैं तो मनरेगा मे कोई काम नही होता। लालजी कहते है कि अगर हम भटठे पर सात माह काम कर लेते है तो हमें लगभग इक्कीस हजार की शुद्ध बचत हो जाती है। लेकिन अगर हम मनरेगा के तहत काम करते हैं तो कुल दस हजार ही मिलते है वह भी महीनों पोस्टाफिस के चक्कर लगाने के बाद।सरकारी दावों से ठीक उलट उनका साफ कहना है कि इस योजना से हम जैसों को अभी तक कोई लाभ नही हुआ है। और इस तरह सरकार की यह महत्वाकांक्षी योजना अपने उद्देश्य को पाने मे पूरी तरह विफल हो रही है।
मजदूर ग्रामीणों की इस तरह की तमाम समस्याओं केा हल करने के लिए अब उप्र सरकार ने हर गरीब को सौ दिन का रोजगार उसके गांव मे ही हर हाल मे उपलब्ध करवाने के लिए मनरेगा मे अब एक नोडल एजेंसी नियुक्त करने का फैसला किया है। और इस योजना का पूरा रोड मैप बनाते हुए एक उप्र सरकार ने एक पत्र केन्द्र सरकार को भेजा था। लेकिन केन्द्र सरकार ने उस पत्र को अपनी आपत्तियों के साथ मायावती सरकार के पास वापस भेज दिया । केन्द्र सरकार ने अपने पत्र मे साफ साफ लिखा है कि इस योजना की मानीटरिंग के लिए किसी भी नोडल एजेंसी को नियुक्त नही किया जा सकता और ऐसा करना गैर कानूनी होगा। इस पर सरकार ने फिर कहा है कि ऐसी ब्यवस्था का एक मात्र उद्देश्य लाभार्थियों को अधिकतम लाभ पहुंचाना है। और उप्र सरकार ने फिर से इसे पास करने की मांग की है।
गौरतलब है कि उप्र सरकार हर मनरेगा जाब कार्ड धारक को हर हालात मे सौ दिन का रोजगार देने के लिए कमर कस चुकी है। इसके लिए सरकार ने राष्ट्ीय स्तर की किसी संस्था को नोडल एजेंसी के रूप मे नियुक्त करके उसकी निगरानी में हर जाब कार्ड धारक को काम मुहैया करवाने की योजना बनाई है। सरकार की परिकल्पना यह है कि यह नोडल एजेंसी सिविल सोसाइटी आर्गेनाइजेशन्स के माध्यम से गरीबों का एक कंप्युटराइज डेटा बेस तैयार कराएगी । फिर गरीबों के समूह गठित कर मनरेगा की निर्धारित प्रकृया के अनुसार उनसे रोजगार के लिए आवेदन कराया जाएगा।जाब कार्ड न होने की स्थिति में यह एजेंसी कार्ड भी बनाएगी। लोंगों को सौ दिन का रोजगार मुहैया कराने पर सोसाइटी को एक सौ बीस रू दिये जाएगें
इसके अलावा प्रति परिवार 06 रु का कमीशन भी नोडल एजेंसी को सरकार द्वारा दिए जाएगें । और इस नोडल एजेंसी का पूरा प्रयास यह होगा कि मौसमी बेरोजगारी या फिर बैठक के दिनों में आम ग्रामीण को अधिकतम काम दिया जाय,ताकि अगर ग्रामीण अन्य मौसमों मे बाहर भी जाना हीें तो भी उन्हे उनके इस हक को दिया जा सके।
लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार की यह मंशा कामयाब होती नही दिख रही है।केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय में संयुक्त सचिव अमिता शर्मा ने राज्य सरकार की इस ब्यवस्था पर कडी आपत्तियां उठाई हैं। उनका कहना है कि मनरेगा कानून मे 100 दिन का रोजगार पाना बेरोजगारों का अधिकार है । और इसके लिए किसी कमीशन एजेंट को नियुक्त नही किया जा सकता है।मनरेगा मजदूरों को कान्ट्ेक्ट लेबर बनाना किसी भी दृष्टि से ठीक नही है।
ल्ेाकिन इससे ठीक इतर प्रदेश के ग्राम्य विकास सचिव मनोज कुमार सिंह शाशन की इस ब्यवस्था को मनरेगा की इस उद्देश्य पूर्ति में सहायक मानते हैं।वे तर्क देते है कि इस तरह का फैसला गरीबों को चिन्हित करके उनहे गांवों मे ही 100 दिन का निश्चित रोजगार देने की दिशा मे पूर्णतया मददगार साबित होगा।उन्होने जोर देकर कहा कि इस तरह के प्राविधानों द्वारा राज्य सरकार की मंशा इस योजना के प्राविधानों का उल्लंघन करने की नही है और इस ब्यवस्था को बनाने मे मनरेगा के प्राविधानों को पूरी तरह ध्यान मे रखा गया है।
हलांकि सरकार द्वारा आम जाब कार्ड धारक को अधिकतम लाभ देने के लिए भले ही इस किस्म की प्रतिबदृध्ता दोहराई जा रही हो लेकिन मनरेगा के जानकार इस ब्यवस्था को संदेह की निगाह सेे देखते हैं।जन संघर्ष मोर्चा के बैनर तले आम लोंगों की बेहतरी के लिए काम कर रहे राघवेन्द्र प्रताप सिंह कहते है कि यह ब्यवस्था एक तरह से ठेकेदारी प्रथा जैसी ही होगी।जो आम आदमी का सिर्फ शोषण ही करेगी।अगर सरकार सचमुच आम जाब कार्ड धारक के हित को लेकर इतनी सचेत है तो उसे अपनी नौकरशाही को दुरुस्त करना चाहिए क्योकि आज मनरेगा जैसे राष्टृीय कार्यक्रम को इनकी भ्रष्ट नजर लग चुकी है।और अगर यह योजना लागू हो सके तो यह योजना गांवो के लिए एक बरदान हो साबित हो सकती है अैार ग्रामीणों के शहरों की ओर पलायन को काफी हद तक रोक सकती है।
लेकिन इससे इतर सामाजिक कार्यकर्ता राजीव का मानना है कि इस तरह की योजनाएं सिर्फ आम जन को मूर्ख बनाने के लिए ही हैं। वे पूछते है िक इस योजना से कैसे ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन रुक सकता है़ै । महज 10 हजार में कोई परिवार साल भर कैसे गुजर कर सकता है।बकौल राजीव जब गांव और शहर में काफी अंतर हो,पैसे की तरलता का अंतर हो तो एक ग्रामीण गांव मे साल भर कैसे रोजी पा सकेगा़? गांव मे तो पूरे साल रोजगार ही नही है फिर पलायन क्यों नही होगा?वे साफ कहते है कि अब मनरेगा मे नौकरशाही की लूट के बाद ठेकेदारों को भी लूट का आमंत्रण दिया जा रहा है।
बहरहाल सरकार की मंशा चाहे जो भी हो लेकिन यह तय है कि मनरेगा जैसी राष्ट्ीय महत्व की योजना मे जितनी ही सुधार की प्रतिबद्ध्ता दिखाई गयी, स्थिति ठीक उलट होती गयी और पूरी योजना ही इस समय भ्रष्टाचार के गंभीर भवर मे फंस गयी है। अब देखना यह होगा कि इस ब्यवस्था से आम ग्रामीण के हालातों मे कितना सुधार आता है।

हरे राम मिश्र
स्वतंत्र पत्रकार