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शुक्रवार, 9 मार्च 2012

जे.एन.यू छात्रसंघ में आइसा की जीत के मायने


खुल गया है झण्डा, हो गया है लाल,
आ गयी है आईसा, लगा लो आज गुलाल

आज ब्रज के नन्दगाँव व् बरसाना में लट्ठमार होली शुरू हुई तो शाम होते होते जेएनयू में भी गुलाल के होली शुरू हुई, दोनों ही बदलाव की उमंग के साथ फिजाओं में बिखरे थे. जहां ब्रज में जीवन के हर रंग का गुलाल मौसम के बदलाव दर्शाते है वही जेएनयू में पसरा लाल गुलाल, बंगाल व् केरल में लाल सलाम की हुई शिकस्तो के बाद क्रांतीकारी-लोकतान्त्रिक लेफ्ट विचारधारा के पुनर्जीवन का बदलाव अंगीकार किया हुए है.सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करीब चार साल बाद हुए जेएनयू छात्रसंघ चुनावों में उग्र-क्रांतिकारी वाम राजनीति करने वाले सीपीआई(माले ) से जुड़े छात्र संगठन आऐसा ने छात्रसंघ के सेंट्रल पैनल की सभी चार महत्वपूर्ण पदों पर भी कब्ज़ा कर लिया है, इसके साथ साथ 16 स्थानों पर खड़ें उनके 14 कौंसिलर भी इस जीत में शामिल है. आऐसा की तरफ से जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष पद जीतने वाली भूगोल की शोध छात्रा सुचेता डे ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र इकाई एसअफआई व् एक अन्य कम्युनिस्ट छात्र संगठन एएसआईअफ के संयुक्त उम्मीदवार जीको दासगुप्ता को करीब 1251 मतों से हरा कर छात्र राजनीति में वामपंथ की बदलती धारा को भी दर्शा दिया है.

इन चुनावों में यहाँ के 12 केन्द्रों की तीस कौंसिलर सीटो व् सेंट्रल पैनल के चार पदों के लिए तकरीबन 123 उम्मीदवारों ने विभिन्न छात्र संगठनो के बैनर तले चुनाव लड़ा. इन कौंसिलर सीटो में से 14 सीटें आऐसा ने जीती है तो प्रमुख विपक्ष भाजपा समर्थित एबीवीपी ने 2008 चुनावों की तरह ही 6 सीटो पर अपना कब्ज़ा बरकरार रखने के साथ साथ इसकी अध्यक्ष पद की प्रत्याशी ममता करीब साढ़े चार सौ मतों के साथ तीसरा स्थान लेने में कामयाब रही. कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयुआई ने तीन सीटो पर, मार्क्सवादियो के छात्र संगठन के गठबंधन कर दो सीटो पर तथा निर्दलियों ने तीन सीटो पर कब्ज़ा किया है. विभागों को देखे तो भाषा, साहित्य और संस्कृति अध्ययन केन्द्र (एस०एल० एल० और सी० एस०) की सभी कौंसिलर पांच सीटो पर, अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केन्द्र (एस०आई०एस०) की पांच में से चार सीटो पर,सामजिक शास्त्र केंद्र की की पांच में से चार सीटो पर कब्ज़ा कर लिया है . इसमें गौरतलब बात ये है की इन्ही तीनो केन्द्रों से जेएनयू के तकरीबन 85 फीसद छात्र आते है. संगणक और प्रणाली विज्ञानं केंद्र (एस०सी०एस०एस०) की सभी तीन सीटो पर एबीवीपी की तीन उम्मीदवार सफल हुए है तो जीव विज्ञान केंद्र (एस०एल०एस०) की सभी तीन सीटो पर एनएसयुआई के प्रत्याशी विजयी हुए है. सनद रहे संगणक विज्ञान (कम्प्यूटर) व् बायोटेकनोलोजी की क्रान्ती से अविभूत होकर शहरी युवा इन केन्द्रों में अधिक है. तीन निर्दलीय में से एक भौतिक विज्ञानं केंद्र व् दो पर्यावरण विज्ञानं केंद्र से जीते है.

सेन्ट्रल पैनल पर पार्टीवार नज़र डाले तो, पायेंगे की जितने वाली आएसा की तरफ से अध्यक्ष पद पर खड़ी उम्मीदवार सुचेता डे को 2102 मत मिले जो की उनके तीनो प्रतिद्वंदियों के संयुक्त वोटो की संख्या से भी ज्यादा है. सुचेता ने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी ‘जीको’ को 1351 मतों से करारी शिकस्त दी है वही इसी संगठन के उपाध्यक्ष पद पर जीते प्रत्याशी अभिषेक कुमार यादव को कुल 1997 वोट मिले, महासचिव पद पर जीत दर्ज करने वाले आइसा के रवि प्रकाश सिंह को 1908 मत मिले तो संयुक्त सचिव पद पर मोहम्मद फिरोज अहमद 1778 वोतो के साथ जीत का सेहरा बांधा. प्रमुख विपक्ष एसएफआई-एआईएसएफ गंठबंधन के जिको दासगुप्ता को अध्यक्ष पद के लिए वोट मिले तो, उपाध्यक्ष पद पर अनाघा को इंगोले को 1357 वोट,महासचिव पद पर दुर्गेश त्रिपाठी को 989 वोट ,संयुक्त सचिव पद पर मोहम्मद अल्तमस को 1199 वोट मिले. एबीवीपी उम्मीदवार की अध्यक्ष पद की उम्मीदवार ममता त्रिपाठी को 447 वोट,उपाध्यक्ष पद पर सुभाष बाबू आर्य को 392 वोट मिले तो महासचिव पद पर जेएनयू इकाई अध्यक्ष गायत्री दीक्षित को 577 वोट व् के साथ ही संतोष करना पड़ा.एबीवीपी की एकमात्र बड़ी कामयाबी सन 2000 में अध्यक्ष पद पर संदीप महापात्रा की जीत व् संयुक्त सचिव पद पर माखन सैकिया की जीत के साथ मिली  एनएसयूआई की तरफ से जेएनयू इकाई अध्यक्ष व जनरल सेक्रेट्री पद के उम्मीदवार मनोरंजन महापात्रा ही एकमात्र मजबूत प्रत्याशी रहे उन्हें सबसे अधिक 625 वोट मिले, उसके बाद उपाध्यक्ष के लिए खड़ी रीतिका दत्ता को 540 , ज्वाइंट सेक्रेट्री के लिए देवधर दाधिच को 480 व् अध्यक्ष पद पर लड़ रहे मुराद खान को सबसे कम 209 मत मिले. इनके अलावा आरक्षण के विरोध में खड़ी यूथ फोर इक्वेलिटी व् जातीय सत्यता को विकृत रूप से विष वमनकर, सामाजिक न्याय का विपण करने वाली नवसृजित एआईबीएसएफ को भी छात्रों ने सिरे से नकार दिया है.

एक नया भारत एक नयी दुनिया के नारे के साथ 1990 के रामलहर काल में इलाहबाद में अगस्त क्रांति के दिन 9 अगस्त को जन्मी ‘आऐसा’ हुआ था,उस समय इसको चंद्रशेखर प्रसाद सरीखे लीडरो ने परवान चढाया था. ज्यादातर यूपी बिहार के समाजवादियो वाले इस क्रांतिकारी कम्युनिस्ट संगठन ने कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के काडर को बौद्धिक विस्तार दिया है. अपने उदय के बाद से ही वे इलाहबाद, बीएचयू, कुमाऊ सरीखी दक्षिणपंथी वर्चस्व वाले छात्रसंघो को परास्त करते आए है. सन  2007 में हुए छात्रसंघ चुनावों में भी आऐसा ने सेन्ट्रल पनेल की इन चारो सीटो पर सफलता पायी थी तब उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के पीएचडी छात्र व् संगठन के सबसे फायरब्रांड नेता संदीप सिंह ने यूथ फॉर एकुँलिटी की बबिता शर्मा को 300 मतों से हराया था. उन चुनावों में आऐसा से  उपाध्यक्ष पद के लिए सेफालिका शेखर, महासचिव पद के लिए पल्लवी डेका, संयुक्त सचिव पद पर मोहम्मद मोबीन आलम जीते थे. उन चुनावों में भी मुख्य विपक्ष  एसएफआई-एआईएसएफ गंठबंधन अपना खाता नहीं खोल पायी था, संदीप सिंह ने तब कहा था की अपनी जरुरत के हिसाब से मार्क्स के सिद्धांतो का उपयोग करने वाली सत्ताधारी सीपीएम्, स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन, नंदीग्राम-सिंगुर में भूमि अधिग्रहण के साथ साथ लोकदमन और खुली अर्थव्यस्था के प्रेम के खिलाफ ये छात्रों का मत है. हालांकि रिजवानुर और नंदीग्राम की किरिकिरी  सीपीएम  -सीपीआई समर्थित  एसएफआई-एआईएसएफ गंठबंधन की हार की ज्यादा बड़ी वजह थी.आऐसा ऐसे ही कामयाब नहीं हो गयी, सन 2003 में जब जेएनयू लाल रंग से सराबोर था तब जेएनयू के ही आऐसा के कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम और  सिंगुर का मुद्दा उठा सत्ताधारी वामदलों को घेरा था. 2007 में आऐसा ने मदरसा छात्रों के अंकतालिका के आधार पर उन्हें जेएनयू में दाखिले के लिए आन्दोलन करा तो वही परम्परगत वाम लाइन पकडते हुए 2005 में नेस्ले जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी को बाहर का रास्ता दिखा दिया.

अतीत में सोमपुरा, नालंदा, तक्षशिला, भोजशिला विक्रम शिला जैसी कई समतामूलक, बौद्धिकता संवर्धक उच्च संस्थानों के भारत के गौरवमयी इतिहास के साक्षी है तो आजाद भारत में जेएनयू, बीएचयू ,एमयू, आइआईटी,आइआईएम्, दिल्ली, कलकत्ता, इलाहाबाद, मद्रास व् हैदराबाद के विश्वविद्यालय इसी क्रम को आगे बढाने का काम कर रहे है. द्विराष्ट्र सिद्धांत से भारत के बंटने के बाद इकबाल व् सावरकर के सिद्धांतो से अलग गंगा-जमुनी विचारधारा के प्रवर्तक नेहरु जी की याद में स्थापित ये विश्विद्यालय वैसे तो 1965 युद्ध में कुटनीतिक व् गुप्तचरी विफलताओ के बाद उच्च शोध के लिए बना था पर अपने वर्ग संघर्षो , जातीय समरसता, सामजिक न्याय व् समता के समाजवादी सिद्धांत पर चल जेनयु ने इन सब मे भारतीय समाज के बदलाव में जो मोड़ दिया है वो काबिले तारीफ़ है. मात्र 40 वर्ष की अल्पायु में विचारधाराओ, राष्ट्रीयता, धार्मिक मान्यताओं से ऊपर उठ कर मानव की श्रेष्ठता व् मानवीयता पर बल देने वाला ये विश्विद्यालय ना केवल भारतीय राजनीति बल्कि भारतीय समाज को भी नयी दिशा देता है. उच्च शिक्षा संस्थान में वंचितों की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु अपने प्रमुख विदेशी भाषा के स्नातक पाठ्यक्रमों में मदरसों के छात्रों का सीधा दाखिला हो या फिर हिंदी उर्दू को एक साथ पढ़ाया जाना हो या फिर ओबीसी कट आफ के मसले पर मुखर्जी रिपोर्ट खारिज कर न्यूनतम जनरल प्रत्याशी के योग्यता अंको से 10 अंक कम करके पिछड़ों की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी सुनिश्चित कराना हो जेएनयू सब में अग्रणी रहा है. भारत के दो दो प्रधान मंत्री इसी छात्र राजनीति की देन रहे है तो करीबन बीसियों मुख्यमंत्री इसी छात्र राजनीति की सीढियाँ चढ़कर अपने पदों तक पहुंचे है.1947-1948 में उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी की विद्यार्थी यूनियन के अध्यक्ष व् इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्टूडेंट यूनियन में उपाध्यक्ष रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन को लागू कर  भारतीय राजनीति में सामजिक बदलाव का जो अध्याय लिखा था उसके के लिए भारत की करीब आधी पिछड़ों की आबादी ताउम्र उनकी आभारी रहेगी.

हाल के वक़्त में देश में ये मान्यता काफी प्रगाढ़ हो गाये है की छात्र राजनीति अब राजनीति रहकर गुंडई का मरकज़ बन गयी है, फिर चाहे गोरखपुर लखनऊ के विश्वविद्यालय में छात्र नेताओ का रेलवे ठेकेदारी में हिस्सेदारी के लिए खूनी संघर्ष हो या फिर दिसंबर 2010 में अबतक लगातार चली आ रही तृणमूल छात्र यूनियन व्  वामपंथी छात्र यूनियन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) का खूनी संघर्ष हो या फिर केरल में पोपुलर फ्रंट की छात्र इकाई कैम्पस फ्रंट के द्वारा प्रोफेस्सर टी जे जोसेफ का हाथ काटना हो या फिर संघ समर्थित एबीवीपी कार्यकर्ताओं की वजह से प्रो अच् अस सभ्रव्वाल की असामयिक मृत्यु हो, या गुजरात अभियांत्रिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ अक्षय अग्रवाल के साथ एनएसयुआई  कार्यकर्ताओं का मारपीट व् तोड़फोड़ करना हो.ये सब बस बानगी है छात्रों के द्वार फैलाई गुंडागर्दियों की मगर इससे छात्रसंघ के चुनावों पर बैन लगा देना कोई हल नहीं हो सकता. सन 2006 में लिन्दोह की अध्यक्षता में इन्ही सवालों को हल करने के लिए कमेटी बनी जिसकी सिफारिशो को जेएनयू   समेत देशभर के सब विश्विद्यालयो के छात्रसंघ चुनावों के लिए लागू कर दिए गए है  . सन 2008 में कोर्ट ने जेएनयू छात्रसंघ के चुनावों में लिंगदोह कमेटी की नियमावली के उल्लंघन माना और अपने आदेश के उल्लंघन के कारण चुनावों पर रोक लगाकर, जेएनयूके दो अधिकारियों को अवमानना का नोटिस दिया था.पिछले साल दिसंबर में कोर्ट ने लिंगदोह कमेटी की कुछ शर्तो में ढीलायी कर मसलन उम्मीदवारों की उम्र तीस वर्ष व् 75 % अटेनडेंस की अनिवार्यता से मुक्त कर दिया तब लगभग एक सेमस्टर बीत जाने पर इस वर्ष के चुनाव से सिर्फ 6 महीने का कार्यकाल ही मिल पायेगा.इन सब बातो के मद्देनज़र इस बार का चुनाव वामपंथी चिंतन की गर्मी या देश की मौजूदा हालत के चिंतन पर केन्द्रित ना होकर छात्रसंघों में लिंगदोह कमेटी की तजवीजो के खिलाफ पड़ा वोट है.गौरतलब बात है की कमेटी की बहुत सारी सिफारिशे छात्रो को अव्यवहारिक लगती रही है मसलन आल इंडिया बैकवर्ड स्‍टूडेंस फोरम (एआइबीएसएफ)के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार और यूनाईटेड दलित स्‍टूडेंटस फोरम (यूडीएसएफ) द्वारा समर्थित जीतेन्द्र कुमार यादव का कहना है की अगर पिछड़ों व् दलितों को हर जगह 5 साल की आयु छूट मिलती है तो छात्रसंघ चुनावों में क्यों नहीं ये व्यवस्था है. सुचेता डे के शब्दों में ही ” आऐसा की जीत उसकी सामाजिक भागीदारिता, उच्च शिक्षा को सस्ता और सुलभ बनाने के लिए, लिंगदोह कमेटी की तजवीजो के खिलाफ व् लोगो की सेज, आफ्सपा कानून, आपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ है”

आज मतदाताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग 18 से 25 साल के हैं, हाल ही में संपन्न यूपी में तो इनकी संख्या करीबन 10%के करीब थी. इस वर्ग का अपना हित है इसे शिक्ष व् उसके बाद रोज़गार से अधिक सरोकार है, राजनीति से घृणा इसका स्टाइल स्टेटमेंट है. इस वर्ग को ना ही चुनावी प्रक्रिया के बारे में पता है ना ही उसे जानना है, ये स्तिथि युवक कांग्रेस जैसी संस्थाओं में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए नेतापुत्रो के बड़ी मुफीद होती है उन्हें बिना किसी पोलिटिकल टैलेट की प्रतीस्पर्धा के राज करने का लाइसेंस मिल जाता है. इस राजनैतिक डेफिसिट को छात्रसंघ चुनावों में छत्रो की सक्रिय भूमिका के द्वारा खत्म किया जा सकता है. अगर कालेज के दिनों में ही छात्रों को वोट के महत्व, टिकट बंटवारे, निर्णय प्रक्रिया, प्रचार प्रक्रिया और वोटिंग के बारे में मालूम हो तो निश्चय ही लोकतंत्र मजबूत होगा.अगर विश्वविद्यालयों में राजनीतिक प्रक्रिया का पालन, प्रमुख दलों छात्र संगठन करे तब अधिकांश छात्र राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बन राजनैतिक दक्षता प्राप्त करते इनमे सी कुछ चुनिन्दा लोग लोकतान्त्रिक प्रणाली को मजबूत करने के लिए राजनीती में भी आ जाते जैसा की 1974 की छात्र राजनीति के संपूर्ण क्राँती अभियान के बाद हुआ.

खैर छात्र राजनीति में वैचारिक शिविर, आन्दोलन व्  देश की समस्याओं के कारणों पर बहस अब सिर्फ कुछ वामपंथी-संघी घटकों तक सीमित हो गयी है, और हाल के दशको में  बसपा के दलित आन्दोलन ने छात्र राजनीति के इस कांसेप्ट को सिरे से ही नकार दिया है. 2011 के अंत में हुए युवक कांग्रेस के बुनियाद शिविर में पार्टी के बड़े नेता बुलाकर युवाओं और छात्रों के सवालों जो मजमा लगा वो अब गायब ही हो गया है. बिहार जैसे राज्य में जहाँ सन्‌ सतहत्तर के आंदोलन में शामिल लोग जब  मुख्यमंत्री व् केंद्र में मंत्री बन गए तो इन लोगो ने जानबूझ बिहार में छात्र चुनावों को बंद करा दिया, तो वही दबे कुचलो की बात करने वाली माया ने छात्रो की आवाज़ बंद कर दी. हालांकि यूपी विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने 406 में से करीब 122 सीटें समाजवादी युवजन सभा व् अपने छात्रसंघों को दी है तो कांग्रेस ने 88 आरक्षित विधानसभा सीटो की जिम्मेवारी संसद व् जेएनयू छात्रनेता रहे युवा अशोक तंवर को सौंपी है. यूपी चुनावों में बढ़ रहा मतदान प्रतिशत स्पष्ट रूप से भारतीय लोकतंत्र में युवाओं की भागीदारिता का सूचकांक है. जेएनयू छात्र राजनीति से जुडे हुए सपा यूथ विंग के पूर्व राष्ट्रीय सचिव युद्दवीर सिंह कहते हैं, “समाज का पढ़ा लिखा और क्रीम तबका जो राजनीति के लिए अपने को सुटेबल नहीं मानता था, अखिलेश ने उन्हें राजनीति की मुख्यधारा में लाने की कोशिश की है.” ये सब युवाओं व् खासकर छात्रनेताओ के बढते कद व् छात्र राजनीति के बढते वृहद किरदार का द्योतक है.कम्युनिस्ट राजनीति को आगे बढ़ा रहे ज्योति बसु को सदैव छात्र महासंघों ने नए कैडर मुहय्या कराये है  तो  वही बिमान बोस, श्यामल चक्रवर्ती, बुद्धदेब भट्टाचार्जी जैसे बड़े कम्युनिस्ट सभी बंगाल प्रोविंशियल स्टुडेंट फेडरेशन और फिर बाद में एसऍफ़आयी से आये थे

अगर केरल को ‘भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला’ जाता है तो वही राममनोहर लोहिया ने छात्रसंघों को ‘लोकतंत्र की प्रयोगशाला” बताया है, इन्ही छात्र संघो में शुमार जेएनयू छात्रसंघ में   नवनिर्वाचित अध्यक्ष सुचेता डे   ने  विचारधारा के केंद्र जेएनयू में लाल पताका फहरा कर  वाम की प्रासंगिकता को पुनः परिभाषित किया है.हालांकि इस नयी क्रान्ति का सबपर उतना असर नहीं है युवा प्रतिभावान पत्रकार हरिशंकर शाही मानते है की “वामपंथ की यह लाल बहार जाने क्यों केवल बुद्धिजीवता के केन्द्रों में ही दिखती है. असल जिंदगी में हिस्सों में वामपंथ भूखों को भी नहीं भाती है”.अब देखना ये है की सुचेता डे किसकी राह पकड़ती है महिला छात्र राजनीति की पुरोधा  या फिर.......................


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गुरुवार, 1 मार्च 2012

शहरयार ज्ञानपीठ पुरस्कार पानेवाले उर्दू के चौथे शायर रहे.


  मशहूर उर्दू शायर का सोमवार को अपने निजी आवास पर निधन हो गया। 76 वर्षीय शहरयार लंबे समय से बीमार चल रहे थे और ब्रेन ट्यूमर के शिकार थे. अलीगढ़ स्थित अपने निवास पर रात आठ बजे उन्होंने अंतिम सांसें लीं. शहरयार के निधन की जानकारी मिलते ही समूचे साहित्य जगत में शोक छा गया। उन्हें मंगलवार को अलीगढ़ में ही सुपुर्दे खाक किया गया।   
शहरयार पेशे से प्राध्यापक शहरयार को वर्ष 1981 में बनी फिल्म 'उमराव जान' के गीतों की रचना से नई पहचान मिली थी। वह ज्ञानपीठ सहित कई पुरस्कारों से नवाजे गए थे। शहरयार ज्ञानपीठ पुरस्कार पानेवाले उर्दू के चौथे शायर रहे.
शहरयार का मूल नाम कुंवर अखलाक मुहम्मद खान है, लेकिन उन्हें उनके तखल्लुस यानी उपनाम 'शहरयार' से ही पहचाना जाता रहा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा हरदोई में हुई थी। 1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर की डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के व्याख्याता के तौर पर काम शुरू किया था। वह यहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर सेवानिवृत्त भी हुए।
शहरयार ने हिंदी फिल्म 'गमन', 'अंजुमन' और 'आहिस्ता-आहिस्ता' के लिए भी गीत लिखे थे, लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा लोकप्रियता 'उमराव जान' के गीतों से मिली।
वर्ष 2008 के लिए 44वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गए शहरयार का जन्म 16 जून 1936 में बरेली के आंवला में हुआ था। उर्दू साहित्य जगत में एक विद्वान शायर के तौर पर उनकी अलग ही पहचान थी। अपनी रचनाओं में वह आधुनिक युग की समस्याओं पर रोशनी डालते रहे।
यह शहरयार की कामयाबी ही मानी जाएगी कि उनके लिखे गीत 'इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं', 'जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने', 'दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए' आम लोगों की जुबान पर चढ़ गए। शहरयार को 1987 में उनकी रचना ''ख़्वाब के दर बंद हैं'' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था. शहरयार ने बेहद ख़ुशी जताते हुए विनम्रता से कहा था कि उन्हें कभी-कभी हैरानी होती है कि बिना ज़्यादा प्रयत्न किए इतने बड़े-बड़े सम्मान कैसे मिल गए.
शहरयार का जन्म उस समय हुआ था जब भारत में प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत हुई, 1936 से लेकर वर्तमान समय तक उर्दू शायरी ने देश की बदलती परिस्थितियों को साहित्य में अभिव्यक्ति दी है जिसमें शहरयार की क़लम का भी अहम योगदान रहा है. देश, समाज, सियासत, प्रेम, दर्शन - इन सभी को अपनी शायरी का विषय बनाने वाले शहरयार बीसवीं सदी में उर्दू के विकास और उसके विभिन्न पड़ावों के साक्षी रहे हैं.  आमतौर पर उर्दू शायरी को मुशायरों से जोड़कर देखा जाता है लेकिन शहरयार इसे ठीक नहीं मानते.उनका कहना था कि देश और दुनिया में जो बदलाव हुए हैं वो सब किसी न किसी रूप में उर्दू शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं और वो उनकी शायरी में भी नज़र आता है.
शहरयार की शायरी न तो परचम की तरह लहराती है और न ही कोई एलान करती है वो तो बस बेहद सहजता से बड़ी से बड़ी बात कह जाती है. शहरयार ने मुश्किल से मुश्किल बात को आसान उर्दू में बयां किया क्योंकि वो मानते थे कि जो बात वो कहना चाहते हैं वो पढ़नेवाले तक सरलता से पहुंचनी चाहिए
शहरयार ने भारतीय सियासत और उसके चरित्र को बख़ूबी समझा. अपनी एक ग़ज़ल में वो कहते हैं -तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीख़ों को सचमुच सुना नहीं है क्या
 
तमाम ख़ल्क़े ख़ुदा इस जगह रुके क्यों
यहां से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या
लहू लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को
किसी को ख़ौफ़ यहां रात का नहीं है क्या
शहरयार इन पंक्तियों के माध्यम से ये कहना चाहते हैं कि लोग या तो सियासी चालों को समझ नहीं पा रहे या फिर समझकर भी अनजान बने हुए हैं. अगर ऐसा है तो ये बेहद ख़तरनाक बात है.शहरयार ने उमराव जान, गमन, अंजुमन जैसी फ़िल्मों के गीत लिखे जो बेहद लोकप्रिय हुए. हालांकि वो ख़ुद को फ़िल्मी शायर नहीं मानते.उनका कहना था कि अपने दोस्त मुज़फ़्फ़र अली के ख़ास निवेदन पर उन्होंने फ़िल्मों के लिए गाने लिखे हैं. शहरयार मानते रहे हैं कि बाज़ार के दबाव के बावजूद हिंदी और उर्दू जैसी भारतीय भाषाओं का भविष्य बहुत उज्ज्वल है.
उर्दू शायरी को नए मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वाले शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फिराक सम्मान सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया।
उनकी प्रमुख कृतियों में 'इस्म-ए-आजम', 'ख्वाब का दर बंद है', 'शाम होने वाली है' तथा 'मिलता रहूंगा ख्वाब में' शामिल हैं। वह अच्छे हॉकी खिलाड़ी और एथलीट भी थे।


रविवार, 15 जनवरी 2012

आंदोलनविहीन राजनीति चुनाव तक सीमित नहीं लोकतंत्र



अनिल चमड़िया
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मतदाताओं के सामने यह विकल्प नहीं है कि वह चुनाव की व्यवस्था से अलग अपनी सरकार बनाने का मत जाहिर कर सकें. मतदान राजनीति पर भरोसे का परिचायक के रूप में नहीं देखा जाता है. मतदान की स्थिति पर एक सजग प्रतिक्रिया यह सुनने को मिली है कि परिवर्तन और लोकतंत्र की विचारधारा को छोड.कर मतदाता लाइन में खडे. दिखाई देते हैं. राजनीति में जातिवाद, साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद का इस्तेमाल जगजाहिर है. राजनीति का एक नया हथियार संसदवाद बना हैं. इस संसदवाद की मुखर पहचान भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल जैसी संस्था बनाने की मांग को लेकर चले आंदोलन के दौरान हुई. एक राजनीतिक लाइन दी गई की संसद की सर्वोच्चता को कोई चुनौती नहीं दे सकता है. संविधान सवरेपरि है. इस लाइन से न केवल सभी संसदीय पार्टियों ने राहत की सांस ली. इस लाइन का सामाजिक विस्तार भी किया गया कि संविधान को चुनौती का मतलब डॉ. भीमराव आंबेडकर पर हमला है. इस लाइन की व्याख्या का जितना विस्तार हो सकता था, वह हुआ.
विस्तार नहीं, संकुचन
संसदीय व्यवस्था और आंदोलन एक दूसरे के पर्याय हैं. लेकिन यह सच है कि संसदीय राजनीति से आंदोलन की विदाई हो चुकी है. संसदीय राजनीति एक नए सिरे से परिभाषित की जा रही है. इसी आलोक में संसदवाद की अवधारणा को देखा जाना चाहिए. संसदीय व्यवस्था की अब तक की मोटी समीक्षा मेंयह तथ्य उभरकर सामने आएंगे कि पिछले पैसठ वर्षों में उसका विस्तार नहीं हुआ है. अब तक किसी भी चुनाव में सत्ता पर काबिज पार्टी यह दावा करने की स्थिति में नहीं पहुंच सकी है कि उसे देश की बहुमत जनता का भरोसा है. संसदीय व्यवस्था समाज की यथास्थिति में परिवर्तन का आधार बनने के बजाय समाज पर वर्चस्व रखने वाले समूहों के हितोंको पूरा और सुरक्षित करती आ रही है. मतदाताओं के सामने यह विकल्प नहीं है कि वह चुनाव की व्यवस्था से अलग अपनी सरकार बनाने का मत जाहिर कर सकें. मतदान राजनीति पर भरोसे का परिचायक के रूप में नहीं देखा जाता है. मतदान की स्थिति पर एक सजग प्रतिक्रिया यह सुनने को मिली है कि परिवर्तन और लोकतंत्र की विचारधारा को छोड.कर मतदाता लाइन में खडे. दिखाई देते हैं.
देश में नक्सलवादी विचारधारा को मानने वाली पार्टियों और ग्रुपों ने संसदीय व्यवस्था का विरोध किया है और मतदान के बहिष्कार का नारा दिया है, लेकिन उन्हें कभी भी इसमें कोई उल्लेखनीय कामयाबी नहीं मिली है. इसे इस रूप में भी देखा गया है कि देश की आवाम संसदीय व्यवस्था में अपनी आस्था रखती है. निश्‍चित ही नक्सलवादियों के रास्ते बदलाव को मतदाताओं ने स्वीकार नहीं किया है. सरकारों ने नक्सलवादियों के रास्ते के बरक्स अहिंसावाद के प्रति मतदाताओं का सर्मथन हासिल किया है. लेकिन भूमंडलीकरण के बाद संसदीय राजनीति में एक बुनियादी बदलाव आया है. उसे सूत्र रूप में इस तरह देखा जा सकता है कि नक्सलवादियों के खिलाफ लड.ाई का नारा बिल्कुल बदल गया है. नक्सलवादी आंदोलनों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्या के रूप में देखने और हल करने का जो नजरिया था, वह पूरी तरह से बदल गया. इस नजरिए में बदलाव को भी समझा जाना चाहिए. जब तक यह स्वीकार किया जाता रहा कि आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं का नतीजा यह आंदोलन है, तब तक सांसदीय पार्टियों पर भी यह दबाव रहा कि वे भूमि समस्या और न्यूनतम मजदूर जैसे बुनियादी मुद्दों पर अपना आंदोलनकारी रूख जाहिर करें. लेकिन जैसे ही केवल हिंसा को नक्सलवादी आंदोलन के चेहरे के रूप में पेश किया गया, उससे इस नजरिए को बदलना आसान हो गया. इसमें भूमंडलीकरण के बाद नए सिरे से खुद को पुनर्गठित करने में लगी लगभग सभी संसदीय पार्टियों ने अपनी भूमिका अदा की. माकपा तक की दृष्टि में जो बदलाव दिखाई देता है, उसे भी इसकी कड.ी के रूप में देखा जाना चाहिए. दूसरी तरफ भूमंडलीकरण के सर्मथन की स्थिति में संसदीय पार्टियों ने खुद को राष्ट्रवाद के पुराने नारे के करीब लाकर खड.ा कर लिया. अगर गौर करें तो यह देखा जा सकता है कि नक्सलवाद की हिंसा के विरोध के नाम पर देश भर में उन तमाम मुद्दों वाले आंदोलनों को कुचला गया, जिन मुद्दों से संसदीय पार्टियां दूर होती चली गई है. ज्यादातर आंदोलन इस दौर में सत्ता से कुछ हासिल करने के लिए नहीं हो रहे थे बल्कि सत्ता के आक्रमण से अपने अस्तित्व और अपने मानवीय और राजनीतिक हकों को बचाने के लिए जद्दोजहद करने वाले मुद्दों से जुडे. हुए थे. एक तरह से नक्सलवाद की लड.ाई का चेहरा हिंसक रूप में पेश करने की रणनीति वास्तव में बदलाव के लिए आंदोलन की अवधारणा के विरोध के रास्ते पर ले जाने के लिए बनाई गई थी.
आंदोलनों का अस्वीकार
इसी परिप्रेक्ष्य में भ्रष्टाचार व् ि अनिल चमड.िया चुनाव तक सीमित नहीं लोकतंत्र मतदाताओं के सामने यह विकल्प नहीं है कि वह चुनाव की व्यवस्था से अलग अपनी सरकार बनाने का मत जाहिर कर सकें. मतदान राजनीति पर भरोसे का परिचायक के रूप में नहीं देखा जाता है. मतदान की स्थिति पर एक सजग प्रतिक्रिया यह सुनने को मिली है कि परिवर्तन और लोकतंत्र की विचारधारा को छोड.कर मतदाता लाइन में खडे. दिखाई देते हैं.

     

     

सोमवार, 2 जनवरी 2012

पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता- सावित्रीबाई फुले


 (January 3, 1831- March 10, 1897)
सावित्रीबाई फुले

पूरा नाम
सावित्रीबाई फुले
जन्म
मृत्यु
मृत्यु कारण
प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया।
अविभावक
खन्दोजी नेवसे और लक्ष्मी
पति/पत्नी
नागरिकता
भारतीय
विशेष योगदान
विधवा विवाह करवाना, छुआछात मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना।
अन्य जानकारी
सावित्रीबाई फुले एक कवियत्री भी थीं उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था।

देश की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता. 
लेकिन एक ऐसी महिला जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियां के विरूद्ध अपने पति के साथ मिलकर काम किया पर उसे हिंदुस्तान ने भुला दिया.ऐसी महिला को हमारा शत-२ नमन...

सावित्रीबाई फुले देश की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता थीं, जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। सावित्रीबाई फुले एक दलित परिवार में जन्मी महिला थीं, लेकिन उन्होंने उन्नीसवीं सदी में महिला शिक्षा की शुरुआत के रूप में घोर ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को सीधी चुनौती देने का काम किया था। उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियां बुरी तरह से व्याप्त थीं। उक्त सामाजिक बुराईयां किसी प्रदेश विशेष में ही सीमित न होकर संपूर्ण भारत में फैल चुकी थीं। महाराष्ट्र के महान समाज सुधारक, विधवा पुनर्विवाह आंदोलन के तथा स्त्री शिक्षा समानता के अगुआ महात्मा ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई ने अपने पति के सामजिक कार्यों में न केवल हाथ बंटाया बल्कि अनेक बार उनका मार्ग-दर्शन भी किया। सावित्रीबाई का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में नायगांव नामक छोटे से गॉव में हुआ।

महात्मा फुले द्वारा अपने जीवन काल में किये गये कार्यों में उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई का योगदान काफी महत्वपूर्ण रहा। लेकिन फुले दंपति के कामों का सही लेखा-जोखा नहीं किया गया। भारत के पुरूष प्रधान समाज ने शुरु से ही इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि नारी भी मानव है और पुरुष के समान उसमें भी बुद्धि है एवं उसका भी अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है । उन्नीसवीं सदी में भी नारी गुलाम रहकर सामाजिक व्यवस्था की चक्की में ही पिसती रही । अज्ञानता के अंधकार, कर्मकांड, वर्णभेद, जात-पात, बाल-विवाह, मुंडन तथा सतीप्रथा आदि कुप्रथाओं से सम्पूर्ण नारी जाति ही व्यथित थी। पंडित व धर्मगुरू भी यही कहते थे, कि नारी पिता, भाई, पति व बेटे के सहारे बिना जी नहीं सकती। मनु स्मृति ने तो मानो नारी जाति के आस्तित्व को ही नष्ट कर दिया था। मनु ने देववाणी के रूप में नारी को पुरूष की कामवासना पूर्ति का एक साधन मात्र बताकर पूरी नारी जाति के सम्मान का हनन करने का ही काम किया। हिंदू-धर्म में नारी की जितनी अवहेलना हुई उतनी कहीं नहीं हुई। हालांकि सब धर्मों में नारी का सम्बंध केवल पापों से ही जोड़ा गया। उस समय नैतिकता का व सास्ंकृतिक मूल्यों का पतन हो रहा था। हर कुकर्म को धर्म के आवरण से ढक दिया जाता था। हिंदू शास्त्रों के अनुसार नारी और शुद्र को विद्या का अधिकार नहीं था और कहा जाता था कि अगर नारी को शिक्षा मिल जायेगी तो वह कुमार्ग पर चलेगी, जिससे घर का सुख-चैन नष्ट हो जायेगा। ब्राह्मण समाज व अन्य उच्चकुलीन समाज में सतीप्रथा से जुड़े ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें अपनी जान बचाने के लिये सती की जाने वाली स्त्री अगर आग के बाहर कूदी तो निर्दयता से उसे उठा कर वापिस अग्नि के हवाले कर दिया जाता था। अंततः अंग्रेज़ों द्वारा सतीप्रथा पर रोक लगाई गई। इसी तरह से ब्राह्मण समाज में बाल-विधवाओं के सिर मुंडवा दिये जाते थे और अपने ही रिश्तेदारों की वासना की शिकार स्त्री के गर्भवती होने पर उसे आत्महत्या तक करने के लिये मजबूर किया जाता था। उसी समय महात्मा फुले ने समाज की रूढ़ीवादी परम्पराओं से लोहा लेते हुये कन्या विद्यालय खोले।

भारत में नारी शिक्षा के लिये किये गये पहले प्रयास के रूप में महात्मा फुले ने अपने खेत में आम के वृक्ष के नीचे विद्यालय शुरु किया। यही स्त्री शिक्षा की सबसे पहली प्रयोगशाला भी थी, जिसमें सगुणाबाई क्षीरसागर व सावित्री बाई विद्यार्थी थीं। उन्होंने खेत की मिटटी में टहनियों की कलम बनाकर शिक्षा लेना प्रारंभ किया। सावित्रीबाई ने देश की पहली भारतीय स्त्री-अध्यापिका बनने का ऐतिहासिक गौरव हासिल किया। धर्म-पंडितों ने उन्हें अश्लील गालियां दी, धर्म डुबोने वाली कहा तथा कई लांछन लगाये, यहां तक कि उनपर पत्थर एवं गोबर तक फेंका गया। भारत में ज्योतिबा तथा सावि़त्री बाई ने शुद्र एवं स्त्री शिक्षा का आंरभ करके नये युग की नींव रखी। इसलिये ये दोनों युगपुरुष और युगस्त्री का गौरव पाने के अधिकारी हुये । दोनों ने मिलकर सत्यशोधक समाजकी स्थापना की। इस संस्था की काफी ख्याति हुई और सावित्रीबाई स्कूल की मुख्य अध्यापिका के रूप में नियुक्त र्हुइं। फूले दंपति ने 1851 में पुणे के रास्ता पेठ में लडकियों का दूसरा स्कूल खोला और 15 मार्च 1852 में बताल पेठ में लडकियों का तीसरा स्कूल खोला। उनकी बनाई हुई संस्था सत्यशोधक समाजने 1876 1879 के अकाल में अन्नसत्र चलाये और अन्न इकटठा करके आश्रम में रहने वाले 2000 बच्चों को खाना खिलाने की व्यवस्था की। 28 जनवरी 1853 को बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की, जिसमें कई विधवाओं की प्रसूति हुई व बच्चों को बचाया गया। सावित्रीबाई द्वारा तब विधवा पुनर्विवाह सभा का आयोजन किया जाता था। जिसमें नारी सम्बन्धी समस्याओं का समाधान भी किया जाता था। महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु सन् 1890 में हुई। तब सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिये संकल्प लिया। सावित्रीबाई की मृत्यु 10 मार्च 1897 को प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान हुयी।