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'दलित मुख्यमंत्री के राज में दलितों के  साथ यह हो रहा है, वह हो रहा है." आखिर ऐसी भाषा का प्रयोग किसी दलित के  मुख्यमंत्री बनने के साथ ही क्यों होता है और यह कितना उचित है ? ऐसी भाषा  का प्रयोग करने के पीछे जो समझ काम करती है उसे एक पत्रकार की वर्षों  पुरानी एक प्रतिक्रिया से समझने की कोशिश की जा सकती है.
1979 में जब मोराईजी देसाई के नेतृत्ववाली सरकार का पतन हो गया तब राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को सरकार के लिए नये नेतृत्व को आमंत्रित करना था. जनता पार्टी के अध्यक्ष के रूप में चंद्रशेखर सांसदों की सूची तैयार कर रहे थे. उसी वक्त जगजीवन बाबू को पता चला कि रेड्डी ने चौधरी चरण सिंह को सरकार बनाने के लिए न्योत दिया है. तब जगजीवनबाबू ने प्रतिक्रिया व्यक्त की कि 'वे हरिजन हैं इसीलिए उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया."
जिस पत्रकार का जिक्र किया गया है उन्होंने जगजीवन बाबू की इस प्रतिक्रिया के जवाब में कहा कि यही हैं जिन्होंने कुछ समय पूर्व विदेश के एक संवाददाता को उन्हें हरिजन नेता सम्बोधित करने पर फटकारा था और कहा था कि वे हरिजन नेता नहीं बल्कि देश के नेता हैं. इसे जगजीवन बाबू के अंतर्विरोधी विचार के बतौर प्रकट करने की कोशिश की जा रही थी. जबकि क्या वास्तव में ये दोनों बातें अपनी-अपनी जगह पर सही नहीं हैं? दोनों तरह की प्रतिक्रियाओं में अंतर्विरोध नहीं है. बाबू जगजीवन राम की दलित होने के कारण प्रधानमंत्री नहीं बनाये जाने की शिकायत को तो यह वर्णवादी समाज में दलितों के प्रति दुराग्रह को जाहिर कर रहे हैं.
यही मानसिकता उनके दलित परिवार में पैदा होने के कारण उन्हें दलित नेता के रूप में सम्बोधित करती है. आखिर जब कोई सवर्ण परिवार में जन्मा नेता दलितों की बात करता है तो उसे दलित नेता क्यों नहीं कहा जाता है क्योंकि वह सवर्ण है. लेकिन जब दलित परिवार में जन्मा नेता दलितों की बात करता है तो आमतौर पर उसे दलित नेता के रूप में ही सम्बोधित किया जाता है. इसके अलावा जब सवर्ण परिवार में जन्मा नेता सवर्णों के हितों की राजनीति करता है तो उसे जाति व वर्ण विशेष नेता के रूप में सम्बोधित कहां किया जाता है? दलितों के अलावा समाज के दूसरे कमजोर और पिछड़े वर्गों की पृष्ठभूमि के साथ भी इसी तरह सम्बोधन किया जाता है. मुस्लिम पृष्ठभूमि के वैसे नेताओं को राष्ट्रवादी कहा जाता है जो कि मुस्लिम हितों के लिए और उनकी अपेक्षाओं के पूरा नहीं होने की शिकायत कम करते हैं.
भाषा का रिश्ता राजनीति से होता है. उसे एक राजनीतिक औजार के रूप में बरता जाता है. अंतर्चेतना में सक्रिय पूर्वाग्रह को भाषा के जरिये अभिव्यक्त होने से रोकना सम्भव नहीं हो पाता है. उत्तर प्रदेश में मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाओं के लिए दलित को ही क्यों कटघरे में खड़ा किया जाता है. उत्तर प्रदेश में जितनों ने भी सरकार का नेतृत्व किया है उन सभी के शासनकाल में दलितों के साथ अत्याचार की घटनाएं घटी हैं. सामाजिक स्तर पर भी और प्रशासनिक स्तर पर भी. लेकिन उन घटनाओं की खबर की भाषा नेतृत्व की जाति को कटघरे में खड़ा नहीं करती है.
सरकार की विफलता के रूप में दर्ज करने की भाषा रही है. मायावती के शासनकाल में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की खबर की भाषा के जातीय रूप में बदलने का क्या तर्क हो सकता है? बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने दलितों को राजनीतिक तौर पर जागरूक किया और इस तरह से किया जिसकी कड़ी डॉ.अम्बेडकर की राजनीतिक धारा से जुड़ती है. मायावती कांशीराम की उत्तराधिकारी हैं. वे भी कांशीराम के स्वर में तो स्वर मिलाती रही हैं. भारतीय समाज में दलितों के भीतर आत्मविश्वास को जगाने का काम कई तरह के नेतृत्व ने अपने-अपने तरीके से किया है. लेकिन डॉ. अम्बेडकर के बाद कांशीराम ने ही संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक नेतृत्व लेने का आत्मविश्वास दलितों के बीच विकसित किया है. बराबरी हासिल करना एक राजनीतिक दर्शन है.
आधुनिक राजनीति में समाजवाद और लोकतंत्र ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का आधार है. भारतीय समाज में समाजवाद के लिए सामाजिक और आर्थिक स्तर पर कमजोर वर्गों को उठाना ही राजनीति का लक्ष्य रहा है. यहां हर किसी को दलित हितों की बात करनी ही है. क्या महात्मा गांधी दलितों की बात नहीं करते तो वे अंग्रेजी सरकार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व कर पाते? क्या कांग्रेस दलितों के हित की बात नहीं करती तो वह इतने लम्बे समय तक सत्ता में बनी रह सकती थी? राजनीति में फर्क ये आया कि कांशीराम ने संसदीय नेतृत्व अपने हाथों में लेने का आह्वान किया और हासिल किया. सत्ता में हिस्सेदारी के बजाय सत्ता का नेतृत्व लेने का आह्वान क्या जातिवादी होने का पर्याय है?
भारतीय समाज के लिए जो संसदीय व्यवस्था बनी है उसमें सत्ता के लिए जाति एक प्रमुख घटक के रूप में सक्रिय रहती है. दूसरी तरफ यह भी उतना ही सत्य है कि कोई एक जाति अपने मतों के बूते सत्ता में नहीं आ सकती है. जातियों का गठबंधन ही सत्तासीन बना सकता है. मायावती ने भी अपने नेतृत्व में सर्वजन हिताय का नारा देकर सत्ता की कमान संभाली है लेकिन फिर भी वे दलित नेता के ही रूप में सम्बोधित की जाती हैं. दलित के उत्पीड़न के लिए सरकार और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था को जिम्मेदार बनाने के बजाय दलित को ही जिम्मेदार ठहराने की भाषा उत्तर प्रदेश की घटनाओं के साथ सक्रिय देखी जाती है.
मुख्यमंत्री मायावती भी ऐसी भाषा और नजरिये के प्रति अपनी शिकायत दर्ज करवाने में सफल हो जाती हैं. ऐसी भाषा का असल मकसद भारतीय समाज में दलितों को उत्पीड़न के समाजशास्त्र से बाहर निकालने का नहीं होता है. दरअसल, सत्ता पर काबिज होने या सत्ता से बेदखल करने के बीच की लड़ाई की भाषा और बराबरी के दर्शन में आस्था रखने की भाषा में बुनियादी फर्क होता है. संसदीय राजनीति में पूरा कारोबार सत्ता पर काबिज होने और बेदखली से जुड़ा होता है.
कमजोर वर्गों के खिलाफ जातिवादी भाषा का इस्तेमाल सत्ता पर वर्चस्व बनाये रखने का हथियार रहा है. यही हथियार उनके खिलाफ संसदीय सत्ता की लड़ाई में भी इस्तेमाल होता है. बाबू जगजीवन राम ने जो शिकायत और आपत्ति की थी वह शिकायत मुख्यमंत्री के रूप में मायावती ने तो खुद दूर की है लेकिन वह आपत्ति अब भी बरकरार है.
1979 में जब मोराईजी देसाई के नेतृत्ववाली सरकार का पतन हो गया तब राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को सरकार के लिए नये नेतृत्व को आमंत्रित करना था. जनता पार्टी के अध्यक्ष के रूप में चंद्रशेखर सांसदों की सूची तैयार कर रहे थे. उसी वक्त जगजीवन बाबू को पता चला कि रेड्डी ने चौधरी चरण सिंह को सरकार बनाने के लिए न्योत दिया है. तब जगजीवनबाबू ने प्रतिक्रिया व्यक्त की कि 'वे हरिजन हैं इसीलिए उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया."
जिस पत्रकार का जिक्र किया गया है उन्होंने जगजीवन बाबू की इस प्रतिक्रिया के जवाब में कहा कि यही हैं जिन्होंने कुछ समय पूर्व विदेश के एक संवाददाता को उन्हें हरिजन नेता सम्बोधित करने पर फटकारा था और कहा था कि वे हरिजन नेता नहीं बल्कि देश के नेता हैं. इसे जगजीवन बाबू के अंतर्विरोधी विचार के बतौर प्रकट करने की कोशिश की जा रही थी. जबकि क्या वास्तव में ये दोनों बातें अपनी-अपनी जगह पर सही नहीं हैं? दोनों तरह की प्रतिक्रियाओं में अंतर्विरोध नहीं है. बाबू जगजीवन राम की दलित होने के कारण प्रधानमंत्री नहीं बनाये जाने की शिकायत को तो यह वर्णवादी समाज में दलितों के प्रति दुराग्रह को जाहिर कर रहे हैं.
यही मानसिकता उनके दलित परिवार में पैदा होने के कारण उन्हें दलित नेता के रूप में सम्बोधित करती है. आखिर जब कोई सवर्ण परिवार में जन्मा नेता दलितों की बात करता है तो उसे दलित नेता क्यों नहीं कहा जाता है क्योंकि वह सवर्ण है. लेकिन जब दलित परिवार में जन्मा नेता दलितों की बात करता है तो आमतौर पर उसे दलित नेता के रूप में ही सम्बोधित किया जाता है. इसके अलावा जब सवर्ण परिवार में जन्मा नेता सवर्णों के हितों की राजनीति करता है तो उसे जाति व वर्ण विशेष नेता के रूप में सम्बोधित कहां किया जाता है? दलितों के अलावा समाज के दूसरे कमजोर और पिछड़े वर्गों की पृष्ठभूमि के साथ भी इसी तरह सम्बोधन किया जाता है. मुस्लिम पृष्ठभूमि के वैसे नेताओं को राष्ट्रवादी कहा जाता है जो कि मुस्लिम हितों के लिए और उनकी अपेक्षाओं के पूरा नहीं होने की शिकायत कम करते हैं.
भाषा का रिश्ता राजनीति से होता है. उसे एक राजनीतिक औजार के रूप में बरता जाता है. अंतर्चेतना में सक्रिय पूर्वाग्रह को भाषा के जरिये अभिव्यक्त होने से रोकना सम्भव नहीं हो पाता है. उत्तर प्रदेश में मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाओं के लिए दलित को ही क्यों कटघरे में खड़ा किया जाता है. उत्तर प्रदेश में जितनों ने भी सरकार का नेतृत्व किया है उन सभी के शासनकाल में दलितों के साथ अत्याचार की घटनाएं घटी हैं. सामाजिक स्तर पर भी और प्रशासनिक स्तर पर भी. लेकिन उन घटनाओं की खबर की भाषा नेतृत्व की जाति को कटघरे में खड़ा नहीं करती है.
सरकार की विफलता के रूप में दर्ज करने की भाषा रही है. मायावती के शासनकाल में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की खबर की भाषा के जातीय रूप में बदलने का क्या तर्क हो सकता है? बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने दलितों को राजनीतिक तौर पर जागरूक किया और इस तरह से किया जिसकी कड़ी डॉ.अम्बेडकर की राजनीतिक धारा से जुड़ती है. मायावती कांशीराम की उत्तराधिकारी हैं. वे भी कांशीराम के स्वर में तो स्वर मिलाती रही हैं. भारतीय समाज में दलितों के भीतर आत्मविश्वास को जगाने का काम कई तरह के नेतृत्व ने अपने-अपने तरीके से किया है. लेकिन डॉ. अम्बेडकर के बाद कांशीराम ने ही संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक नेतृत्व लेने का आत्मविश्वास दलितों के बीच विकसित किया है. बराबरी हासिल करना एक राजनीतिक दर्शन है.
आधुनिक राजनीति में समाजवाद और लोकतंत्र ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का आधार है. भारतीय समाज में समाजवाद के लिए सामाजिक और आर्थिक स्तर पर कमजोर वर्गों को उठाना ही राजनीति का लक्ष्य रहा है. यहां हर किसी को दलित हितों की बात करनी ही है. क्या महात्मा गांधी दलितों की बात नहीं करते तो वे अंग्रेजी सरकार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व कर पाते? क्या कांग्रेस दलितों के हित की बात नहीं करती तो वह इतने लम्बे समय तक सत्ता में बनी रह सकती थी? राजनीति में फर्क ये आया कि कांशीराम ने संसदीय नेतृत्व अपने हाथों में लेने का आह्वान किया और हासिल किया. सत्ता में हिस्सेदारी के बजाय सत्ता का नेतृत्व लेने का आह्वान क्या जातिवादी होने का पर्याय है?
भारतीय समाज के लिए जो संसदीय व्यवस्था बनी है उसमें सत्ता के लिए जाति एक प्रमुख घटक के रूप में सक्रिय रहती है. दूसरी तरफ यह भी उतना ही सत्य है कि कोई एक जाति अपने मतों के बूते सत्ता में नहीं आ सकती है. जातियों का गठबंधन ही सत्तासीन बना सकता है. मायावती ने भी अपने नेतृत्व में सर्वजन हिताय का नारा देकर सत्ता की कमान संभाली है लेकिन फिर भी वे दलित नेता के ही रूप में सम्बोधित की जाती हैं. दलित के उत्पीड़न के लिए सरकार और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था को जिम्मेदार बनाने के बजाय दलित को ही जिम्मेदार ठहराने की भाषा उत्तर प्रदेश की घटनाओं के साथ सक्रिय देखी जाती है.
मुख्यमंत्री मायावती भी ऐसी भाषा और नजरिये के प्रति अपनी शिकायत दर्ज करवाने में सफल हो जाती हैं. ऐसी भाषा का असल मकसद भारतीय समाज में दलितों को उत्पीड़न के समाजशास्त्र से बाहर निकालने का नहीं होता है. दरअसल, सत्ता पर काबिज होने या सत्ता से बेदखल करने के बीच की लड़ाई की भाषा और बराबरी के दर्शन में आस्था रखने की भाषा में बुनियादी फर्क होता है. संसदीय राजनीति में पूरा कारोबार सत्ता पर काबिज होने और बेदखली से जुड़ा होता है.
कमजोर वर्गों के खिलाफ जातिवादी भाषा का इस्तेमाल सत्ता पर वर्चस्व बनाये रखने का हथियार रहा है. यही हथियार उनके खिलाफ संसदीय सत्ता की लड़ाई में भी इस्तेमाल होता है. बाबू जगजीवन राम ने जो शिकायत और आपत्ति की थी वह शिकायत मुख्यमंत्री के रूप में मायावती ने तो खुद दूर की है लेकिन वह आपत्ति अब भी बरकरार है.
       
(नवल किशोर कुमार। बिहार की पत्रकारिता में युवा सजग चेहरा। प्रतिरोध की खबरों के संयोजक। दैनिक आज के पटना संस्करण से जुड़े हैं। उनसे editor@apnabihar.org पर संपर्क किया जा सकता है।)
बिहार के एक मरवाड़ी परिवार में जन्में अनिल चमडिया के पिता चाहते थे कि उनका बेटा चार्टेड अकाउंटेंट बने. लेकिन चमडिया की किस्मत चुपचाप उनके लिए एक अलग राह तैयार कर रही थी. गैरबराबरी से लड़ाई की राह. समय का चक्र घूमता गया और चमडिया ने एक दिन खुद को इस राह पर खड़ा पाया. सन 1991, जुलाई की बात है, जब ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, पटना ने उनके बारे में एक आर्टिकल लिखा. शीर्षक था ‘No Armchair Journalist’.  दो दशक बाद भी इस स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है. आज भी वह आपको दिल्ली और देश के कई हिस्सों में उसी शिद्दत से अपनी बात कहते मिल जाएंगे. दलित न होते हुए भी जिन कुछ खास लोगों ने दलित हित की आवाज को मजबूती से उठाया है, अनिल चमडिया उनमें प्रमुख हैं. तकरीबन तीन दशक पहले उन्होंने लेखन और एक्टिविज्म के जरिए गैरबराबरी का जो विरोध शुरू किया था. वह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. इस लड़ाई में अतिसक्रियता के कारण उन्हें कई बार विरोध का भी सामना करना पड़ा. समाज का एक तबका उनपर स्वार्थवश दलित राग अलापने का आरोप तक लगाता है. लेकिन चमडिया इन सबसे बेपरवाह, बिना विचलित हुए अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं. वर्तमान समय में दलित आंदोलन, राजनीतिक व्यवस्था, राजनीति में दलितों की स्थिति और अंबेडकर सहित तमाम मुद्दों पर दलितमत.कॉम के आपके मित्र अशोक दास ने उनसे बातचीत की. बातचीत लंबी होने के कारण इसे दो भाग में दिया जाएगा. पेश है पहला भाग...
नहीं है. मेरा परिवार एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार था. हालांकि अब स्थिति अच्छी हो गई है. मेरी पढ़ाई-लिखाई थोड़ी डिस्टर्ब रही. गुरुद्वारा का एक स्कूल था, हम वहीं पर जाते थे. भारती मंदिर स्कूल का नाम था. सातवी तक हम यहीं पढ़े. मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं शहर से बाहर जाकर पढ़ूं लेकिन उसी समय उनको दिल का दौरा पड़ गया. उस जमाने में यह बहुत बड़ी बीमारी थी. घर में सबसे बड़े हम ही थे, तो शहर जाना नहीं हो पाया. मेरी हाई स्कूलींग जो है, वो नहीं हो पाई. आठवीं की परीक्षा प्राइवेट दी. नौवीं में जरूर एक साल के लिए पब्लिक स्कूल में पढ़ाई की. फिर मैनें बोर्ड की परीक्षा (तब ग्यारवीं में होती थी) दी. हालांकि हम अपने शहर में बहुत अधिक दिनों तक नहीं रहे. शुरू से ही विषय कार्मस था. 82 में ग्रेजुएशन पास करने के तुरंत बाद मेरा लिखना शुरू हो गया था. आपको पता होगा, तब बिहार में आरक्षण को लेकर काफी लड़ाई चल रही थी. तब हम कॉलेज में थे. हमने उसमें भागीदारी की. उसे लीड किया. हालांकि 74 के आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. उम्र छोटी थी लेकिन मुझे याद है हमलोग स्टेशन पर चले आए थे, गाड़ियां रोकी थी. उसी समय एक राजनीतिक रुझान बनना शुरू हो गया था. लेकिन 82 के बाद हम शहर में नहीं रह पाएं. फिर पटना चले आएं. यहां कुछ दिनों तक सामाजिक न्याय की राजनीति से जुड़े रहे, फिर समाज में बुनियादी परिवर्तन की राजनीति से जुड़े रहे. तो ये सब काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. लेकिन लेखन और एक्टिविज्म ये शुरू से साथ-साथ चलता रहा.
अन्याय का स्वरूप है. मैं यह मानता हूं कि बुनियादी तौर पर मनुष्य अन्याय विरोधी होता है. जब भी वो असमानता और गैरबराबरी देखता है तो उसकी मनोवस्था विचलित होती है. वह परेशान होता है. व्यवस्था विरोधी उसकी चेतना होती है. होता यह है कि आपके भीतर वो जो चेतना होती है, उसे विस्फोट करने का मौका मिल जाता है. अब पता नहीं यह संयोग रहा या फिर क्या था कि बचपन से ही हमारे भीतर भी यह चेतना थी. स्कूलों में भी मेरी लड़ाई कई स्तरों पर होती थी. तो आपका जो यह प्रश्न है कि दलितवादी मैं कब से हुआ  तो मैं इसकी कोई तिथि नहीं बता सकता. कोई फेज नहीं बता सकता. और मैं यह समझता हूं कि कोई भी व्यक्ति जो चेतना संपन्न है और वह यह क्लेम करता है कि मैं दलितवादी हूं तो वह शुरुआती दिनों से ही जबसे वह होश संभालता है, उसके अंदर वह चेतना होती है. अगर वह चेतना नहीं होगी तो अचानक कोई दलितवादी नहीं हो जाएगा. हां, अगर कोई अपने को इंपोज करना चाहे कि आज अवसर है और हमें इसका फायदा उठाना है. इसके लिए हमें खुद को दलितवादी बनाना है तो हो सकता है. लेकिन वास्तव में जो छटपटाहट होती है, वह अचानक नहीं होती.
 हैं.खुद को वामपंथी कहने से बचते हैं. वामपंथ को गाली देते हुए मिलते हैं. क्योंकि उनका एक अवसर था. उसमें उन्होंने लाभ उठा लिया. जहां तक खुद को दलितवादी होने का दावा है तो ऐसे इलाकों में जाकर कहिए जहां अब भी काफी चुनौतियां हैं. वहां जाकर कहिए कि मैं दलितवदी हूं. अगर दलितवादी होने की कसौटी हम यह बनाएं कि इसके चलते आप क्या खोते हैं, तो इसका दावा करने वाले लोगों ने खोया नहीं है बल्कि पाया ही है. जैसे कई सारे लोग कहते हैं कि हम धर्मनिरपेक्ष हैं. तो अगर खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने से हमें लाभ मिल रहा है. तो आपको उस लाभ को उठाने में क्या है.
- देखिए दो तरह के ट्रेंड रहे हैं. अगर आप शुरुआती दिनों में देखें तो एक बाबा साहब रहे तो दूसरे बाबूजी (जगजीवन राम). दो धारा रहे. एक धारा जो है वो कहता है कि आप अपने
 अगर उस समय के आंदोलन के भीतर जाकर देखिएगा तो आपको मार्क्सवाद की छाप मिलेगी. क्योंकि जो बुनियादी दर्शन है गैरबराबरी के खिलाफ, इसके खिलाफ जहां भी लड़ाई होगी इसमें उसकी छाप मिलेगी.
रहे हैं. मैं कहता हूं कि आप जय भीम नहीं कहें. आपके समाज की जो अवस्था है, उसमें अभी जय की जरूरत नहीं है. उसमें अभी जागो कि जरूरत है. हम‘जय भीम-जागो भीम’क्यों नहीं बोल सकते. क्योंकि यह हमारा माइंडसेट बना हुआ है. एक बोलता है जय श्रीराम, हम बोलते है जय भीम. तो आप पूरे स्ट्रक्चर को सुरक्षित रखते हैं. आप केवल नाम को ले जाकर के वहां फिट कर देते हैं. ढ़ांचा वही रहता है. तो जय के ढ़ांचे को तोड़ने की जरूरत है. अभी इस समाज को जय की जरूरत नहीं है. जय, विजय, पराजय गैर-बराबरी के समाज का संबोधन है. हम तो अन्याय से पीड़ित है. हमारे समाज में बड़ा हिस्सा अभी भी उसी अवस्था में है. उसे जगाने की जरूरत है. दलित का हर बच्चा भीम है, उसमें यह भाव कैसे पैदा करें. तो उसे हम बोलें कि जागो भीम दूसरा बोले की बोले कि बोलो भीम. ये समाज के पूरे ढ़ांचे को चेंज करेगा. अभी हमारी जो लड़ाई की दिशा है वो ठीक दिशा नहीं है. वो ढ़ांचे को तोड़ने की दिशा नहीं है. वह इसमें अकोमडेट (accommodate) करने की दिशा है.