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रविवार, 15 जनवरी 2012

आंदोलनविहीन राजनीति चुनाव तक सीमित नहीं लोकतंत्र



अनिल चमड़िया
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मतदाताओं के सामने यह विकल्प नहीं है कि वह चुनाव की व्यवस्था से अलग अपनी सरकार बनाने का मत जाहिर कर सकें. मतदान राजनीति पर भरोसे का परिचायक के रूप में नहीं देखा जाता है. मतदान की स्थिति पर एक सजग प्रतिक्रिया यह सुनने को मिली है कि परिवर्तन और लोकतंत्र की विचारधारा को छोड.कर मतदाता लाइन में खडे. दिखाई देते हैं. राजनीति में जातिवाद, साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद का इस्तेमाल जगजाहिर है. राजनीति का एक नया हथियार संसदवाद बना हैं. इस संसदवाद की मुखर पहचान भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल जैसी संस्था बनाने की मांग को लेकर चले आंदोलन के दौरान हुई. एक राजनीतिक लाइन दी गई की संसद की सर्वोच्चता को कोई चुनौती नहीं दे सकता है. संविधान सवरेपरि है. इस लाइन से न केवल सभी संसदीय पार्टियों ने राहत की सांस ली. इस लाइन का सामाजिक विस्तार भी किया गया कि संविधान को चुनौती का मतलब डॉ. भीमराव आंबेडकर पर हमला है. इस लाइन की व्याख्या का जितना विस्तार हो सकता था, वह हुआ.
विस्तार नहीं, संकुचन
संसदीय व्यवस्था और आंदोलन एक दूसरे के पर्याय हैं. लेकिन यह सच है कि संसदीय राजनीति से आंदोलन की विदाई हो चुकी है. संसदीय राजनीति एक नए सिरे से परिभाषित की जा रही है. इसी आलोक में संसदवाद की अवधारणा को देखा जाना चाहिए. संसदीय व्यवस्था की अब तक की मोटी समीक्षा मेंयह तथ्य उभरकर सामने आएंगे कि पिछले पैसठ वर्षों में उसका विस्तार नहीं हुआ है. अब तक किसी भी चुनाव में सत्ता पर काबिज पार्टी यह दावा करने की स्थिति में नहीं पहुंच सकी है कि उसे देश की बहुमत जनता का भरोसा है. संसदीय व्यवस्था समाज की यथास्थिति में परिवर्तन का आधार बनने के बजाय समाज पर वर्चस्व रखने वाले समूहों के हितोंको पूरा और सुरक्षित करती आ रही है. मतदाताओं के सामने यह विकल्प नहीं है कि वह चुनाव की व्यवस्था से अलग अपनी सरकार बनाने का मत जाहिर कर सकें. मतदान राजनीति पर भरोसे का परिचायक के रूप में नहीं देखा जाता है. मतदान की स्थिति पर एक सजग प्रतिक्रिया यह सुनने को मिली है कि परिवर्तन और लोकतंत्र की विचारधारा को छोड.कर मतदाता लाइन में खडे. दिखाई देते हैं.
देश में नक्सलवादी विचारधारा को मानने वाली पार्टियों और ग्रुपों ने संसदीय व्यवस्था का विरोध किया है और मतदान के बहिष्कार का नारा दिया है, लेकिन उन्हें कभी भी इसमें कोई उल्लेखनीय कामयाबी नहीं मिली है. इसे इस रूप में भी देखा गया है कि देश की आवाम संसदीय व्यवस्था में अपनी आस्था रखती है. निश्‍चित ही नक्सलवादियों के रास्ते बदलाव को मतदाताओं ने स्वीकार नहीं किया है. सरकारों ने नक्सलवादियों के रास्ते के बरक्स अहिंसावाद के प्रति मतदाताओं का सर्मथन हासिल किया है. लेकिन भूमंडलीकरण के बाद संसदीय राजनीति में एक बुनियादी बदलाव आया है. उसे सूत्र रूप में इस तरह देखा जा सकता है कि नक्सलवादियों के खिलाफ लड.ाई का नारा बिल्कुल बदल गया है. नक्सलवादी आंदोलनों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्या के रूप में देखने और हल करने का जो नजरिया था, वह पूरी तरह से बदल गया. इस नजरिए में बदलाव को भी समझा जाना चाहिए. जब तक यह स्वीकार किया जाता रहा कि आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं का नतीजा यह आंदोलन है, तब तक सांसदीय पार्टियों पर भी यह दबाव रहा कि वे भूमि समस्या और न्यूनतम मजदूर जैसे बुनियादी मुद्दों पर अपना आंदोलनकारी रूख जाहिर करें. लेकिन जैसे ही केवल हिंसा को नक्सलवादी आंदोलन के चेहरे के रूप में पेश किया गया, उससे इस नजरिए को बदलना आसान हो गया. इसमें भूमंडलीकरण के बाद नए सिरे से खुद को पुनर्गठित करने में लगी लगभग सभी संसदीय पार्टियों ने अपनी भूमिका अदा की. माकपा तक की दृष्टि में जो बदलाव दिखाई देता है, उसे भी इसकी कड.ी के रूप में देखा जाना चाहिए. दूसरी तरफ भूमंडलीकरण के सर्मथन की स्थिति में संसदीय पार्टियों ने खुद को राष्ट्रवाद के पुराने नारे के करीब लाकर खड.ा कर लिया. अगर गौर करें तो यह देखा जा सकता है कि नक्सलवाद की हिंसा के विरोध के नाम पर देश भर में उन तमाम मुद्दों वाले आंदोलनों को कुचला गया, जिन मुद्दों से संसदीय पार्टियां दूर होती चली गई है. ज्यादातर आंदोलन इस दौर में सत्ता से कुछ हासिल करने के लिए नहीं हो रहे थे बल्कि सत्ता के आक्रमण से अपने अस्तित्व और अपने मानवीय और राजनीतिक हकों को बचाने के लिए जद्दोजहद करने वाले मुद्दों से जुडे. हुए थे. एक तरह से नक्सलवाद की लड.ाई का चेहरा हिंसक रूप में पेश करने की रणनीति वास्तव में बदलाव के लिए आंदोलन की अवधारणा के विरोध के रास्ते पर ले जाने के लिए बनाई गई थी.
आंदोलनों का अस्वीकार
इसी परिप्रेक्ष्य में भ्रष्टाचार व् ि अनिल चमड.िया चुनाव तक सीमित नहीं लोकतंत्र मतदाताओं के सामने यह विकल्प नहीं है कि वह चुनाव की व्यवस्था से अलग अपनी सरकार बनाने का मत जाहिर कर सकें. मतदान राजनीति पर भरोसे का परिचायक के रूप में नहीं देखा जाता है. मतदान की स्थिति पर एक सजग प्रतिक्रिया यह सुनने को मिली है कि परिवर्तन और लोकतंत्र की विचारधारा को छोड.कर मतदाता लाइन में खडे. दिखाई देते हैं.