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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

अदालती फैसले से लोकतंत्र को चुनौती


अनिल चमड़िया

डा. बिनायक सेन के साथ नारायण संयाल और पीयूष गुहा को रायपुर की जिला अदालत द्वारा छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा विशेष कानून 2005 और गैर कानूनी गतिविधि रोधक कानून 1967 की धाराओं के तहत उम्र कैद की सजा को हाल के वर्षों में न्यायालयों में आ रहे कई फैसलों की एक नवीनतम कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए है। अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद बड़े दिन की छुट्टियों से ठीक पहले न्यायाधीश बी पी वर्मा द्वारा मानवाधिकार नेता बिनायक सेन के खिलाफ जिला अदालत में फैसला लोकतंत्र के लिए चिंतित समाज के लिए पर्याप्त सामग्री मुहैया कराता है।अदालतें ग्वाह, सबूत और तर्कों के बजाय यदि शासकीय नीतियों पर आस्था को लेकर न्यायकरने लगी है। मैं सितंबर 2007 को दिल्ली से बिलासपुर के एक कार्यक्रम में बतौर वक्ता गया था। उस कार्यक्रम में बिलासपुर जेल के अधीक्षक भी मौजूद थे। उन्होने दूसरे दिन बिलासपुर जेल देखने के लिए हमें बुलाया था। उस जेल में नारायण संयाल भी बंद थे जिनसे वहां हमारी मुलाकात हुई। बिलासपुर की जेल की चाहरदिवारी से निकलने से पहले वहां मुझे एक तस्वीर दिखाई गई जिसमें बिनायक सेन को नारायण संयाल से मिलते दिखाया गया है।जेल में किसी मुलाकाती की किसी बंदी से तस्वीर नहीं खींची जाती है। लेकिन उपरी आदेश से डा. बिनायक सेन की नारायण संयाल की तस्वीर खींची गई और उन खास क्षणों को तस्वीर में कैद किया गया जब किसी बात पर डा. बिनायक और संयाल मुस्कुरा उठे थे। मुझे बताया गया कि यह तस्वीर दोनों की अंतरगता को कैसे साबित करती है। मैंने ये भी कहा कि ये तस्वीर तो एक बड़ी साजिश के हिस्से के रूप में उतारी गई है। इस घटना की यहां चर्चा करना इसीलिए जरूरी था कि डा. बिनायक सेन की सजा पहले से मुकर्रर थी। न्यायप्रिय अदालत ने तो केवल अपनी मुहर लगायी है। छत्तीसगढ़ की खासम खास आवाम चाहती थी कि बिनायक सेन पर जो आरोप लगाए गए हैं, वे बिना सबूत के भी साबित होने चाहिए।डा. बिनायक के खिलाफ लगातार राज्य के अखबारों में खबरें छपती रही।वहां बिनायक का पक्ष रखने वाली खबरों पर लगभग सरकारी गैरसरकारी सेंसर की स्थिति रही है।

पिछले साठ वर्षों में ऐसे न जाने कितने उदाहरण मिल सकते हैं जिसमें कि सरकार और पुलिस ने लोगों के लिए लड़ने वाले या लोकतंत्र के पक्ष में बोलने वालों के खिलाफ तरह तरह के आरोपों में मुकदमें लदे हैं।इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया तब देश के बडे बड़े नेताओं को बडौदा डायनामाइट कांड में फंसाया था।आपातकाल में ही उस मुकदमें का फैसला होता तो सभी बड़े नेताओं को उम्र कैद या फांसी की सजा हो गई होती।छत्तीसगढ़ में हालात बड़ी तेजी से बदले हैं। कल्पना किया जा सकता है कि वहां विधानसभा की गुप्त बैठकें हुई है।मानवाधिकारों के हनन की पराकाष्टा ये है कि गांधी और अहिंसा की जीवनभर शपथ खाने वाले लेकिन सत्य और न्याय के पक्ष में बोलने वाले किसी भी नेता व कार्यकर्ता को नहीं बख्शा गया है। वहां सरकारी मशीनरी के दमन के खिलाफ बोलने वाला हर नागरिक छत्तीसगढ़ के लिए विशेषतौर पर बनाए गए जन सुरक्षा कानून2005 के तहत राज्य द्रोही है।

सरकारी मशीनरी यदि किसी राजनीतिक- सामाजिक कार्यकर्ता को किसी आरोप के तहत गिरफ्तार करती है तो उसका इरादा ये नहीं होता है कि वह तत्काल प्रभाव से अपने सबूतों और साक्ष्यों को पुष्ट करें। उसकी योजना में ये होता है कि किसी भी तरह के आरोप लगाकार किसी राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिया जाता है तो अदालतों के सहारे उसे लंबे समय तक के लिए कैद रखा जा सकता है। भले ही वह बाद के वर्षों में बड़ी अदालतों से छूट जाए। सरकार का मकसद एक की गिरफ्तारी के खिलाफ पूरे आंदोलन को चेतावनी देना होता है।अपने मूल्क का राजनीतिक दर्शन आर्थिक और सामाजिक तौर पर कमजोर व्यक्तियों और समूहों के पक्ष में राज्य मशीनरी का झुकाव जरूरी माना जाता है। समाजवादी दर्शन की छाया इसे कह सकते हैं। इसीलिए यह पाया जाता है कि न्यायालयों का झुकाव पहले आम लोगों के हितों और उनके अधिकारों की सुरक्षा की तरफ ज्यादा रहा है। लेकिन स्थितियां तेजी के साथ बदली है। इसीलिए न्यायालयों में कानून की धाराओं की व्याख्याएं भी बदल गई है।आपातकाल के दौरान न्यायालय सरकार की नीतियों के अनुरूप काम करने लगी थी। भूमंडलीकरण के बाद उसके अनुरूप नीतियों की तरफ उसका झुकाव साफ दिखाई देता है। इसीलिए न्यायालयों में इस समय कई फैसले बेहद आश्चर्यजनक लग रहे हैं क्योंकि उसके बारे में राय या धारणा पुरानी है। न्यायालयों में किसी एक खासतौर से लोकतांत्रिक सिद्धांतों और मूल्यों को संबोधित करने वाले किसी भी मामले में आने वाला फैसला नये दर्शन से जुड़ा होता है। डा. बिनायक सेन , नारायण संयाल और पीयूष गुहा के फैसले को पिछले उन फैसलों के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए जिन्हें सुनकर धक्का लगा हो।इसके साथ एक बात और जोड़ लेनी चाहिए कि जिन बेहद खुले मामलों में लोकतंत्र में भरोसा रखने वाले सरकार व न्यायालय से किसी तरह की कार्रवाई की उम्मीद करते थे और उन मामलों में कुछ नहीं होता देख निराशा में डूब गए। न्यायालय जब तर्क और साक्ष्य के बजाय कानून की धाराओं की व्याख्या आस्थाओं के आधार पर करने लगे तो इसका भी अर्थ साफ है कि उसका एक खास मकसद हैं। डा. बिनायक सेन की रिहाई के लिए दुनियाभर में जितनी आवाजें उठी है हाल के वर्षों में शायद ही किसी एक ऐसे मामले में उठी हो। दुनियाभर में लोकतंत्र में आस्था के जाने जाने वाले सैकड़ों लोगों ने केन्द्र और बीजेपी शासित छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार के समक्ष मांग उठायी। जिला अदालत के फैसले के खिलाफ जिस तरह से आवाज उठने लगी है यह लोकतंत्र के लिए और चिंतनीय है।इसे भी अदालतों के खिलाफ हाल के वर्षों में उठी आवाज और न्यायापालिका के अंदर लोकतंत्र के सवाल पर चल रही बहसों की एक कड़ी के रूप में देखना चाहिए।डा. बिनायक सेन के खिलाफ सजा के विरोध में आंदोलन न्यायिक ढांचे पर विश्वसनीयता के भाव को और कमजोर करेगी। जितनी बड़ी तादाद में मानवाधिकार कार्यर्कर्ता रायपुर में फैसले के वक्त मौजूद थे और जिस तरह से फैसले के तत्काल बाद लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की उससे फैसले की स्वीकार्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है। बड़े दिन की छुट्टी के बावजूद फैसले के दूसरे दिन लोग दिल्ली में सड़क पर उतरें।सरकारी पक्ष मानवाधिकार आंदोलनों को देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे हिंसक संघर्षों से रिश्ता जोड़ने में लगा रहा है।बीजेपी आतंकवादी गतिविधियों के साथ मानवाधिकार आंदोलन को जोड़ने की योजना में लगी रही है। लेकिन बिनायक सेन के बहाने मानवाधिकार की सुरक्षा की बहस तेज होती दीख रही है।

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