लोकप्रिय पोस्ट

गुरुवार, 1 मार्च 2012

शहरयार ज्ञानपीठ पुरस्कार पानेवाले उर्दू के चौथे शायर रहे.


  मशहूर उर्दू शायर का सोमवार को अपने निजी आवास पर निधन हो गया। 76 वर्षीय शहरयार लंबे समय से बीमार चल रहे थे और ब्रेन ट्यूमर के शिकार थे. अलीगढ़ स्थित अपने निवास पर रात आठ बजे उन्होंने अंतिम सांसें लीं. शहरयार के निधन की जानकारी मिलते ही समूचे साहित्य जगत में शोक छा गया। उन्हें मंगलवार को अलीगढ़ में ही सुपुर्दे खाक किया गया।   
शहरयार पेशे से प्राध्यापक शहरयार को वर्ष 1981 में बनी फिल्म 'उमराव जान' के गीतों की रचना से नई पहचान मिली थी। वह ज्ञानपीठ सहित कई पुरस्कारों से नवाजे गए थे। शहरयार ज्ञानपीठ पुरस्कार पानेवाले उर्दू के चौथे शायर रहे.
शहरयार का मूल नाम कुंवर अखलाक मुहम्मद खान है, लेकिन उन्हें उनके तखल्लुस यानी उपनाम 'शहरयार' से ही पहचाना जाता रहा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा हरदोई में हुई थी। 1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर की डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के व्याख्याता के तौर पर काम शुरू किया था। वह यहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर सेवानिवृत्त भी हुए।
शहरयार ने हिंदी फिल्म 'गमन', 'अंजुमन' और 'आहिस्ता-आहिस्ता' के लिए भी गीत लिखे थे, लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा लोकप्रियता 'उमराव जान' के गीतों से मिली।
वर्ष 2008 के लिए 44वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गए शहरयार का जन्म 16 जून 1936 में बरेली के आंवला में हुआ था। उर्दू साहित्य जगत में एक विद्वान शायर के तौर पर उनकी अलग ही पहचान थी। अपनी रचनाओं में वह आधुनिक युग की समस्याओं पर रोशनी डालते रहे।
यह शहरयार की कामयाबी ही मानी जाएगी कि उनके लिखे गीत 'इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं', 'जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने', 'दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए' आम लोगों की जुबान पर चढ़ गए। शहरयार को 1987 में उनकी रचना ''ख़्वाब के दर बंद हैं'' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था. शहरयार ने बेहद ख़ुशी जताते हुए विनम्रता से कहा था कि उन्हें कभी-कभी हैरानी होती है कि बिना ज़्यादा प्रयत्न किए इतने बड़े-बड़े सम्मान कैसे मिल गए.
शहरयार का जन्म उस समय हुआ था जब भारत में प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत हुई, 1936 से लेकर वर्तमान समय तक उर्दू शायरी ने देश की बदलती परिस्थितियों को साहित्य में अभिव्यक्ति दी है जिसमें शहरयार की क़लम का भी अहम योगदान रहा है. देश, समाज, सियासत, प्रेम, दर्शन - इन सभी को अपनी शायरी का विषय बनाने वाले शहरयार बीसवीं सदी में उर्दू के विकास और उसके विभिन्न पड़ावों के साक्षी रहे हैं.  आमतौर पर उर्दू शायरी को मुशायरों से जोड़कर देखा जाता है लेकिन शहरयार इसे ठीक नहीं मानते.उनका कहना था कि देश और दुनिया में जो बदलाव हुए हैं वो सब किसी न किसी रूप में उर्दू शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं और वो उनकी शायरी में भी नज़र आता है.
शहरयार की शायरी न तो परचम की तरह लहराती है और न ही कोई एलान करती है वो तो बस बेहद सहजता से बड़ी से बड़ी बात कह जाती है. शहरयार ने मुश्किल से मुश्किल बात को आसान उर्दू में बयां किया क्योंकि वो मानते थे कि जो बात वो कहना चाहते हैं वो पढ़नेवाले तक सरलता से पहुंचनी चाहिए
शहरयार ने भारतीय सियासत और उसके चरित्र को बख़ूबी समझा. अपनी एक ग़ज़ल में वो कहते हैं -तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीख़ों को सचमुच सुना नहीं है क्या
 
तमाम ख़ल्क़े ख़ुदा इस जगह रुके क्यों
यहां से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या
लहू लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को
किसी को ख़ौफ़ यहां रात का नहीं है क्या
शहरयार इन पंक्तियों के माध्यम से ये कहना चाहते हैं कि लोग या तो सियासी चालों को समझ नहीं पा रहे या फिर समझकर भी अनजान बने हुए हैं. अगर ऐसा है तो ये बेहद ख़तरनाक बात है.शहरयार ने उमराव जान, गमन, अंजुमन जैसी फ़िल्मों के गीत लिखे जो बेहद लोकप्रिय हुए. हालांकि वो ख़ुद को फ़िल्मी शायर नहीं मानते.उनका कहना था कि अपने दोस्त मुज़फ़्फ़र अली के ख़ास निवेदन पर उन्होंने फ़िल्मों के लिए गाने लिखे हैं. शहरयार मानते रहे हैं कि बाज़ार के दबाव के बावजूद हिंदी और उर्दू जैसी भारतीय भाषाओं का भविष्य बहुत उज्ज्वल है.
उर्दू शायरी को नए मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वाले शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फिराक सम्मान सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया।
उनकी प्रमुख कृतियों में 'इस्म-ए-आजम', 'ख्वाब का दर बंद है', 'शाम होने वाली है' तथा 'मिलता रहूंगा ख्वाब में' शामिल हैं। वह अच्छे हॉकी खिलाड़ी और एथलीट भी थे।