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सोमवार, 3 जनवरी 2011

मानवाधिकार दिवस पर परिचर्चा

विदेशी कंपनियों पर निर्भर मानवाधिकार

गौतम नवलखा
सचिव, पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर), नई दिल्ली
मानवाधिकार की समस्या राज्य द्वारा खड़ी की गई है। पूरे देश में न केवल मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, बल्कि सिविल लिबर्टिज कार्यकर्ताओं के रास्ते में नई-नई मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं। मुख्तलिफ़ इलाकों में कार्यकर्ताओं को जाने से रोका जा रहा है। कई दुर्गम इलाकों में पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों का उत्पीड़न लगातार जारी है। उन इलाकों को पूरे देश से काट दिया गया है। वहां किसी को आने-जाने नहीं दिया जा रहा है। सिविल लिबर्टिज के कार्यकर्ताओं को भी लगातार उत्पीड़ित किया जा रहा है। उन्हें माओवादी और आतंकी बताकर उन पर फर्जी मुकदमें लादे जा रहे हैं। यह सबकुछ जानबूझकर बहुराष्ट्ीय कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। हमने पिछले दिनों देखा कि छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में आदिवासियों की जमीने जबरन छीनकर बहुराष्ट्ीय कम्पनियों को दी गई। विरोध करने पर आदिवासियों को माओवादी करार देकर गोली से उड़ा दिया गया, उनके घरों को जला दिया गया। ऐसे में यह उम्मीद करना ही बेकार है कि सरकार या कोई सरकारी संस्था मानवाधिकारों की रक्षा करेगी। यह काम सिविल लिबर्टिज कार्यकर्ताओं को ही करना होगा। वैसे, भी देखें तो मानवाधिकारों के मामले में वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही है। प्रदेशों में मानवाधिकार हनन की होड़ लगी है।
गरीबों को मानवाधिकार नहीं
प्रशांत भूषण
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता
हिंदुस्तान में गरीब-असहाय लोगों का कभी कोई अधिकार रहा ही नहीं है। व्यवस्था को ऐसा जटिल बना दिया गया है कि अगर किसी के साथ कोई अन्याय होता भी है तो वह न्यायालय में जाने से पहले कई बार सोचेगा। गरीब आदमी इस न्यायिक व्यवस्था में घुस भी गया तो यह जरूरी नहीं कि उसे न्याय मिलेगा ही। यहां ज्यादातर जज सम्पन्न वर्गों से आते हैं। उन्हें एक गरीब या आम आदमी की समस्याएं समझ में नहीं आती। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में कानून की व्याख्याएं बहुत बदल गई हैं। न्याय न मिलना, मानवाधिकार हनन नही ंतो क्या है? सरकार, बहुराष्ट्ीय कम्पनियों के और पुलिस-प्रशासन, सरकार के इशारों पर गरीब आदिवासियों पर लगातार जुल्म ढाह रहे हैं। ग्रीनहंट जैसे सरकारी अभियान खुल्लम-खुल्ला मानवाधिकारों का उल्लंघन हैं। खनिज सम्पदा से भरे इलाकों को पिछड़ा रखकर वहां माओवाद को पनपने का मौका दिया जा रहा है। पुलिस और सुरक्षा बलों को मनमाने अधिकार देने के लिए नए-नए कानून बनाए जा रहे हैं। हम एक ही सरकार से यह भी उम्मीद करें कि वह हमारे मानवाधिकारों की रक्षा करेगी और वही सरकार मानवाधिकारों की हत्या करने वाले काननू बनाये यह बहुत ही हास्यास्पद बात होगी। अभी कोई भी सरकार यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि वो मानवाधिकारों की रक्षा करती है।

फर्जी मुठभेड़ की संस्कृति
चितरंजन सिंह,
राष्ट्ीय उपाध्यक्ष, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल)
भारत में मानवाधिकारों की स्थिति तो सरकारी संस्थाओं की ही रिपोर्ट बयान कर रही हैं। फर्जी मुठभेड़ और गिरफ्तारियां पुलिसिया कामकाज की एक संस्कृति बनती जा रही है। राष्ट्ीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि फर्जी मुठभेड़ों के मामले में उत्तर प्रदेश अव्वल है। आतंकवाद के नाम पर पूरे देश से बड़े पैमाने पर मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारियां हुई। सैकड़ों लोग जेलों में बिना किसी कसूर के सड़ रहे हैं। पुलिस उन पर चार्जशीट तक नहीं दाखिल कर पाई है। माओवाद के नाम पर आदिवासियों पर जुल्म किया जा रहा है। ऐसे लोगों के लिए मानवाधिकार के कोई मायने नहीं है। देश के अधिकांश हिस्सों में यही हो रहा है। लोगों को अपनी बात कहने का अधिकार तक नहीं दिया जा रहा है। कश्मीर में पिछले दिनों विरोध प्रदर्शनों पर पुलिस फायरिंग में सैकड़ों युवा मारे गए। उत्तर-पूर्व से लेकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट तक ऐसा क्षेत्र बनता जा रहा है, जहां सरकारी संस्थाओं को मानवाधिकार हनन के लिए लगभग प्रोत्साहित किया जा रहा है। मानवाधिकार हनन के लिए बकायदा कानून बनाये जा रहे हैं। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए हमें ही आगे आना होगा। सरकारी और पुलिस के जुल्मों का मुकाबला करना होगा। तभी हम मानवाधिकारों की रक्षा के संघर्ष को आगे बढ़ा सकेंगे।
राज्य जिम्मेदार
राजेन्द्र सच्चर,
पूर्व मुख्य न्यायाधीश
भारत में सभी को समान संवैधानिक अधिकार मिले हुए हैं। राज्य कई बार अपने दायरे से बाहर जाकर इन अधिकारों का हनन भी करता है। लेकिन वहीं हमें ये भी अधिकार है कि हम इसके खिलाफ़ आवाज उठा सके। अखबारों को लिखने की पूरी आजादी है। उन्हें लगता है कि किन्हीं अधिकारों का हनन हो रहा है या सरकार कुछ गलत कर रही है तो वह उस पर जनमत तैयार कर सकते हैं। जनमत के माध्यम से सरकार पर यह दबाव डाला जा सकता है कि वो मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करे। यह सही है कि कश्मीर सहित कई प्रदेशों में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। लेकिन इसे सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता। अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग स्थितियां हैं। अगर मानवाधिकारों का हनन होता है तो लोगों को विरोध करने का भी अधिकार है। मानवाधिकार हनन के लिए पूरी तरह से राज्य जिम्मेदार हैं। मानवाधिकारों की रक्षा में अदालतों की भूमिका सीमित होती है। सरकार जो कानून बनाती है, न्यायपालिका को उसी दायरे में काम करना होता है। सरकार अगर पोटा जैसे कानून बनाएगी तो जाहिर सी बात है कि उससे मानवाधिकारों का हनन होगा। न्यायपालिका में भी अलग-अलग सोच के लोग हैं। सभी अच्छे हों यह भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए इस पर भी सवाल उठते हैं।

प्रदर्शन का भी अधिकार नहीं

प्रो. एस.ए.आर. गिलानी
मनवाधिकार कार्यकर्ता
भारत में लगभग सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं खोखली हो चुकी हैं। सत्ता की प्रवृत्ति फासीवादी हो चुकी है। विरोध प्रदर्शन तक का अधिकार लोगों को नहीं दिया जा रहा है। कश्मीर में अभी 112 नौजवानों को केवल इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह विरोध प्रदर्शनों में शामिल थे। बच्चों की गिरफ्तारियां हो रही हैं। वहां के जेल निर्दोष नौजवानों से भरी हैं। कश्मीर को दिल्ली ने हमेशा उपनिवेश की तरह सुलूक किया है। ऐसा बर्ताव तो ब्रिटिश हुकूमत ने भी नहीं किया होगा। ऐसे ही दूसरे प्रदेशों में आदिवासियों-दलितों के मामले में भी है। वहां माओवाद के नाम पर लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है। बहुराष्ट्ीय कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार सभी कानूनों को ताक पर रखकर समझौते कर रही है। उन्हीं के लिए सैन्य बलों का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह पूरे देश में चल रहा है। मानवाधिकारों की लड़ाई सरकारी संस्थाओं के तले नहीं लड़ी जा सकती। इसके लिए जम्हूरियत में विश्वास करने वाले लोगों को मिलकर लड़ना होगा। ऐसे आंदोलनों में निरंतरता की जरुरत है। सुफियान के मामले को लोगों ने पहले खूब जोर-शोर से उठाया। बाद में सीबीआई ने क्लीनचिट दी तो किसी ने कुछ नहीं बोला। मानवाधिकारों की लड़ाई को संगठित रूप से लड़ना होगा।

विजय प्रताप से बातचीत पर आधारित

लोकमत समाचार(नागपुर) में प्रकाशित

रविवार, 2 जनवरी 2011

क्योकि वे गरीबों के पक्षधर हैं




एमजे अकबर
मैं बिनायक सेन के राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत दोहरे मापदंडों वाले लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है।
भारत एक अजीब लोकतंत्र बनकर रह गया है, जहां बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है और डकैत खुलेआम ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं। सरकारी खजाने पर डाका डालने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए भी सरकार को खासी तैयारी करनी पड़ती है। जब आखिरकार उन पर ‘धावा’ बोला जाता है, तब तक उन्हें पर्याप्त समय मिल चुका होता है कि वे तमाम सबूतों को मिटा दें। आखिर वह व्यक्ति कोई मूर्ख ही होगा, जो तीन साल पहले हुए टेलीकॉम घोटाले के सबूतों को इतनी अवधि तक अपने घर में सहेजकर रखेगा। तीन साल क्या, सबूतों को मिटाने के लिए तो छह महीने भी काफी हैं। क्योंकि इस अवधि में पैसा या तो खर्च किया जा सकता है, या उसे किसी संपत्ति में परिवर्तित किया जा सकता है या विदेशी बैंकों की आरामगाह में भेज दिया जा सकता है। राजनेताओं-उद्योगपतियों का गठजोड़ कानून से भी ऊपर है। अगर भारत का सत्ता तंत्र बिनायक सेन को कारावास में भेजने के बजाय उन्हें फांसी पर लटका देना चाहे, तो वह यह भी कर सकता है।
बिनायक ने एक बुनियादी नैतिक गलती की है और वह यह कि वे गरीबों के पक्षधर हैं। हमारे आधिपत्यवादी लोकतंत्र में इस गलती के लिए कोई माफी नहीं है। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और यकीनन रमन सिंह के लिए इस बार का क्रिसमस वास्तव में ‘मेरी क्रिसमस’ होगा। कांग्रेस और भाजपा दो ऐसे राजनीतिक दल हैं, जो फूटी आंख एक-दूसरे को नहीं सुहाते। वे तकरीबन हर मुद्दे पर एक-दूसरे से असहमत हैं। लेकिन नक्सल नीति पर वे एकमत हैं। नक्सल समस्या का हल करने का एकमात्र रास्ता यही है कि नक्सलियों के संदेशवाहकों को रास्ते से हटा दो।
मीडिया इस गठजोड़ का वफादार पहरेदार है, जो उसके हितों की रक्षा इतनी मुस्तैदी से करता है कि खुद गठजोड़ के आकाओं को भी हैरानी हो। गिरफ्तारी की खबर रातोरात सुर्खियों में आ गई। प्रेस ने तथ्यों की पूरी तरह अनदेखी कर दी। हमें नहीं बताया गया कि बिनायक सेन के विरुद्ध लगभग कोई ठोस प्रमाण नहीं पाया गया था। अभियोजन ने गैर जमानती कारावास के दौरान बिनायक के दो जेलरों को पक्षविरोधी घोषित कर दिया था। सरकारी वकीलों की तरह जेलर भी सरकार की तनख्वाह पाने वाले नुमाइंदे होते हैं। लेकिन दो पुलिसवालों ने भी मुकदमे को समर्थन देने से मना कर दिया। एक ऐसा पत्र, जिस पर दस्तखत भी नहीं हुए थे और जो जाहिर तौर पर कंप्यूटर प्रिंट आउट था, न्यायिक प्रणाली के संरक्षकों के लिए इस नतीजे पर पहुंचने के लिए पर्याप्त साबित हुआ कि बिनायक सेन उस सजा के हकदार हैं, जो केवल खूंखार कातिलों को ही दी जाती है।
बिनायक सेन स्कूल में मेरे सीनियर थे। वे तब भी एक विनम्र व्यक्ति थे और हमेशा बने रहे, लेकिन वे अपनी राजनीतिक धारणाओं के प्रति भी हमेशा प्रतिबद्ध रहे। मैं उनके राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत धीरे-धीरे दोहरे मापदंडों वाले एक लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है। जहां विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए हमारा कानून उदार है, वहीं वंचित तबके के लोगों के लिए यही कानून पत्थर की लकीर बन जाता है।
यह विडंबनापूर्ण है कि बिनायक सेन को सुनाई गई सजा की खबर क्रिसमस की सुबह अखबारों में पहले पन्ने पर थी। हम सभी जानते हैं कि ईसा मसीह का जन्म 25 दिसंबर को नहीं हुआ था। चौथी सदी में पोप लाइबेरियस द्वारा ईसा मसीह की जन्म तिथि 25 दिसंबर घोषित की गई, क्योंकि उनके जन्म की वास्तविक तिथि स्मृतियों के दायरे से बाहर रहस्यों और चमत्कारों की धुंध में कहीं गुम गई थी। क्रिसमस एक अंतरराष्ट्रीय त्यौहार इसलिए बन गया, क्योंकि वह जीवन को अर्थवत्ता देने वाले और सामाजिक ताने-बाने को समरसतापूर्ण बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। ये मूल्य हैं शांति और सर्वकल्याण की भावना, जिसके बिना शांति का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। सर्वकल्याण की भावना किसी धर्म-मत-संप्रदाय से बंधी हुई नहीं है। क्रिसमस की सच्ची भावना का सबसे अच्छा प्रदर्शन पहले विश्व युद्ध के दौरान कुछ ब्रिटिश और जर्मन सैनिकों ने किया था, जिन्होंने जंग के मैदान में युद्धविराम की घोषणा कर दी थी और एक साथ फुटबॉल खेलकर और शराब पीकर अपने इंसान होने का सबूत दिया था। अलबत्ता उनकी हुकूमतों ने उन्हें जंग पर लौटने का हुक्म देकर उन्हें फिर से उस बर्बरता की ओर धकेल दिया, जिसने यूरोप की सरजमीं को रक्तरंजित कर दिया था।
यदि काल्पनिक सबूतों के आधार पर बिनायक सेन जैसों को दोषी ठहराया जाने लगे तो हिंदुस्तान में जेलें कम पड़ जाएंगी। ब्रिटिश राज में गांधीवादी आंदोलन के दौरान ऐसा ही एक नारा दिया गया था। यह संदर्भ सांयोगिक नहीं है, क्योंकि हमारी सरकार भी नक्सलवाद के प्रति साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक रवैया अख्तियार करने लगी है।

लेखक ‘द संडे गार्जियन’ के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं।

अखबार बेचने का तरीका






‘नक्सलियों ने किया विस्फोट’! ये आवाज चार बजे भोर की गहरी नींद को तोड़ने के लिए पर्याप्त थी। हम में से कुछ यात्री जबलपुर रेलवे स्टेशन के कुछ उन इक्के-दुक्के अखबार बेचने वाले हाकरों को ढूढ़ने ट्रेन से बाहर निकल पड़े। बाहर आया तो देखा कि सिकन्दराबाद से पटना आने वाले मेरे जैसे कई यात्री अखबार खरीदने के लिए टूटे पड़े हैं। स्थिति एकदम भगदड़ जैसी थी। हर चेहरे पे खौफ की शिकन और सन्नाटा था। इस तरह की अशुभ खबर के चलते अपने गांव-देश में रहने वाले परिजनों का कुशल-क्षेम जानने की जिम्मेदारी के चलते लोगों ने ढ़ाई रूपये के अखबार को पॉंच रूपये में खरीदा। इतने मे गाड़ी प्लेटफार्म से चल पड़ी और हम सब ने खबर को पढ़ने के लिए अखबार को उल्टना-पलटना शुरू किया ।लेकिन इस तरह की कोई खबर हमें कहीं नही दिखी। इससे जहॉं एक ओर माओवादियों के विस्फोट जैसी खबर सें भयभीत लोगों ने कुछ ही देर मे इस तरह की कोई खबर न पा कर राहत की सांस ली। इस तरह हॉकरों ने अखबार बेचने के लिए भय और डर की सनसनी पैदा की और नक्सल हिंसा से आम लोगों के मन में जो डर व्याप्त है, को भुनाते हुए अपना अखबार बेचा ही नहीं बल्कि दोगुने दाम में खरीदने के लिए यात्रियों को मजबूर भी किया।
ट्रेन में सफर कर रहे यात्रियों की मनोदशा उस समय दखने लायक थी। समझा जा सकता है कि हाकरों ने अखबार बेचने के इस तरीके का प्रयोग सिर्फ पटना जाने वाली ट्रेनों के लिए ही नहीं किया होगा। बल्कि इस फार्मूले के पीछे राज्य विशेष व क्षेत्र विशेष से जुड़े आंतक के किस्मों की राजनीति से अपनी यह रणनीति तय करते होगें। मसलन अगर पूर्वोतर क्षेत्र या कश्मीर, दिल्ली जैसे प्रदेश जो नक्सल के बजाय आंतकी हिंसा का खतरा झेल रहे है, उधर की ओर जाने-आने वाली टेªन के यात्रियों को संभव है कि ये हाकर्स ‘अंातकियों ने श्रीनगर या दिल्ली में किया विस्फोट ’ की सनसनी पैदा कर लोगों के डर-भय को भुनाते होगें।
लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या हॅाकरों ने इस तरह लोगो का भयादोहन करने के तरीको को खुद इजाद किया है ? क्या इस आचरण के लिए सिर्फ वही दोशी हैं या वो एक गुप-चुप और सुनियोजित तरीके से चलायी जा रही परियोजना का एक प्यादा मात्र है। दरअसल भूमंडलीकरण की नीतियों के साथ उपभोक्ता और बाजार के बीच जो सम्बंध उभरा वह कई मायनों मे इस सम्बंध के पुराने रूपों के एकदम विपरीत था। मसलन, पहले जहॉं किसी एक ही कम्पनी के सबसे उपर और निचले पायदान पर खड़े कर्मचारी में समाज के प्रति नजरीये में अन्तर होता था, वही भूमंडलीकरण के इस दौर में ये अन्तर खत्म होते गया है। अब किसी कम्पनी के निचले पायदान पर खड़ा आदमी भी अपने सीईओ की तरह सिर्फ मुनाफे को केन्द्र मे रखकर सोचने लगा है। उदाहरण के बतौर आप याद करीये आज से बीस पच्चीस साल पहले कोई कपड़ा बेचने वाला दुकानदार ब्रान्ड के बजाय कपड़े की मजबूती और टिकाउपन बताकर आप को अपना माल बेचता था, टिकाउपन और मजबूती व अपने खरीदार की आर्थिक हैसियत को ध्यान मे रख कर दाम बताता था। इस तरह उभोक्ता और बेचने वाले का सम्बंध परस्पर एक दुसरे के कल्याण पर टिका था।
इससे बेचने वाले जो कि एक आम आदमी यानी की फेरीवाला ही होता था का खरीदने वाले जो कि उसी के जैसा एक आम-आदमी ही था,के प्रति अपनी वर्गीय जिम्मेदारी भी दिखती थी।
वही दूसरी ओर भूमंडलीकरण के बाद तेजी से विकसित हुए ब्रान्ड के इस दौर में देखे तो उसी सामाजिक हैसियत पर खड़ा दुकानदार अपने ही वर्ग के खरीदार को कपड़े के टिकाउपन के बजाए उसे ब्रान्ड के नाम पर बेचता ही नही है। उसे यह भी कहता है कि फैशन के इस जमाने में गांरटी की इच्छा न करें। यह ब्रान्ड और फैषन का जुमला उस कम्पनी के सबसे उपर बैठे आदमी का प्रोडक्ट को बेचने के लिए इजा द किया हुआ रणनीतिक जुमला है जिसे उस कम्पनी के सबसे निचले पायदान पर खड़ा आदमी भी बोल रहा है। इस लिहाज से देखें तो इस एक जुमले ने उभोक्ता और बेचने वाले के सम्बंधो को बिल्कुल उलट दिया है और एक ही वर्ग के एक हिस्से को दुसरे के खिलाफ इस्तेमाल भी कर रहा है।
दरअसल राज्य की तरह ही बाजार का नियंता वर्ग भी चाहता है कि आम आदमी भी उसी तरह उसी की भाशा मे सोचे और बात करे। इसे अखबार बेचने वाले हाकर के मामले मे भी देखा जा सकता है। मसलन, अखबार जनता को सूचना देने का एक इमानदार उपक्रम के बजाए एक प्रोडक्ट है, यह विचार बहुत संस्थाबद्ध तरीके से अखबार के मालिक से लेकर उसे बेचने वाले निचले स्तर के हॅाकर तक स्थापित हो चुका है।
जबलपुर स्टेशन के हॉंकरों के इस हरकत से समझा जा सकता है कि इस एक फार्मुला मात्र ने एक गरीब हॉंकर के वर्गीय चेतना में कैसा बदलाव ला दिया है। और वो किसके खिलाफ किस तरह इस्तेमाल हो रहा है।

म0 गां0 अं0 हिं0 वि0, वर्धा में मीडिया के शोधार्थी है।
लक्ष्मण प्रसाद