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रविवार, 2 जनवरी 2011

अखबार बेचने का तरीका






‘नक्सलियों ने किया विस्फोट’! ये आवाज चार बजे भोर की गहरी नींद को तोड़ने के लिए पर्याप्त थी। हम में से कुछ यात्री जबलपुर रेलवे स्टेशन के कुछ उन इक्के-दुक्के अखबार बेचने वाले हाकरों को ढूढ़ने ट्रेन से बाहर निकल पड़े। बाहर आया तो देखा कि सिकन्दराबाद से पटना आने वाले मेरे जैसे कई यात्री अखबार खरीदने के लिए टूटे पड़े हैं। स्थिति एकदम भगदड़ जैसी थी। हर चेहरे पे खौफ की शिकन और सन्नाटा था। इस तरह की अशुभ खबर के चलते अपने गांव-देश में रहने वाले परिजनों का कुशल-क्षेम जानने की जिम्मेदारी के चलते लोगों ने ढ़ाई रूपये के अखबार को पॉंच रूपये में खरीदा। इतने मे गाड़ी प्लेटफार्म से चल पड़ी और हम सब ने खबर को पढ़ने के लिए अखबार को उल्टना-पलटना शुरू किया ।लेकिन इस तरह की कोई खबर हमें कहीं नही दिखी। इससे जहॉं एक ओर माओवादियों के विस्फोट जैसी खबर सें भयभीत लोगों ने कुछ ही देर मे इस तरह की कोई खबर न पा कर राहत की सांस ली। इस तरह हॉकरों ने अखबार बेचने के लिए भय और डर की सनसनी पैदा की और नक्सल हिंसा से आम लोगों के मन में जो डर व्याप्त है, को भुनाते हुए अपना अखबार बेचा ही नहीं बल्कि दोगुने दाम में खरीदने के लिए यात्रियों को मजबूर भी किया।
ट्रेन में सफर कर रहे यात्रियों की मनोदशा उस समय दखने लायक थी। समझा जा सकता है कि हाकरों ने अखबार बेचने के इस तरीके का प्रयोग सिर्फ पटना जाने वाली ट्रेनों के लिए ही नहीं किया होगा। बल्कि इस फार्मूले के पीछे राज्य विशेष व क्षेत्र विशेष से जुड़े आंतक के किस्मों की राजनीति से अपनी यह रणनीति तय करते होगें। मसलन अगर पूर्वोतर क्षेत्र या कश्मीर, दिल्ली जैसे प्रदेश जो नक्सल के बजाय आंतकी हिंसा का खतरा झेल रहे है, उधर की ओर जाने-आने वाली टेªन के यात्रियों को संभव है कि ये हाकर्स ‘अंातकियों ने श्रीनगर या दिल्ली में किया विस्फोट ’ की सनसनी पैदा कर लोगों के डर-भय को भुनाते होगें।
लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या हॅाकरों ने इस तरह लोगो का भयादोहन करने के तरीको को खुद इजाद किया है ? क्या इस आचरण के लिए सिर्फ वही दोशी हैं या वो एक गुप-चुप और सुनियोजित तरीके से चलायी जा रही परियोजना का एक प्यादा मात्र है। दरअसल भूमंडलीकरण की नीतियों के साथ उपभोक्ता और बाजार के बीच जो सम्बंध उभरा वह कई मायनों मे इस सम्बंध के पुराने रूपों के एकदम विपरीत था। मसलन, पहले जहॉं किसी एक ही कम्पनी के सबसे उपर और निचले पायदान पर खड़े कर्मचारी में समाज के प्रति नजरीये में अन्तर होता था, वही भूमंडलीकरण के इस दौर में ये अन्तर खत्म होते गया है। अब किसी कम्पनी के निचले पायदान पर खड़ा आदमी भी अपने सीईओ की तरह सिर्फ मुनाफे को केन्द्र मे रखकर सोचने लगा है। उदाहरण के बतौर आप याद करीये आज से बीस पच्चीस साल पहले कोई कपड़ा बेचने वाला दुकानदार ब्रान्ड के बजाय कपड़े की मजबूती और टिकाउपन बताकर आप को अपना माल बेचता था, टिकाउपन और मजबूती व अपने खरीदार की आर्थिक हैसियत को ध्यान मे रख कर दाम बताता था। इस तरह उभोक्ता और बेचने वाले का सम्बंध परस्पर एक दुसरे के कल्याण पर टिका था।
इससे बेचने वाले जो कि एक आम आदमी यानी की फेरीवाला ही होता था का खरीदने वाले जो कि उसी के जैसा एक आम-आदमी ही था,के प्रति अपनी वर्गीय जिम्मेदारी भी दिखती थी।
वही दूसरी ओर भूमंडलीकरण के बाद तेजी से विकसित हुए ब्रान्ड के इस दौर में देखे तो उसी सामाजिक हैसियत पर खड़ा दुकानदार अपने ही वर्ग के खरीदार को कपड़े के टिकाउपन के बजाए उसे ब्रान्ड के नाम पर बेचता ही नही है। उसे यह भी कहता है कि फैशन के इस जमाने में गांरटी की इच्छा न करें। यह ब्रान्ड और फैषन का जुमला उस कम्पनी के सबसे उपर बैठे आदमी का प्रोडक्ट को बेचने के लिए इजा द किया हुआ रणनीतिक जुमला है जिसे उस कम्पनी के सबसे निचले पायदान पर खड़ा आदमी भी बोल रहा है। इस लिहाज से देखें तो इस एक जुमले ने उभोक्ता और बेचने वाले के सम्बंधो को बिल्कुल उलट दिया है और एक ही वर्ग के एक हिस्से को दुसरे के खिलाफ इस्तेमाल भी कर रहा है।
दरअसल राज्य की तरह ही बाजार का नियंता वर्ग भी चाहता है कि आम आदमी भी उसी तरह उसी की भाशा मे सोचे और बात करे। इसे अखबार बेचने वाले हाकर के मामले मे भी देखा जा सकता है। मसलन, अखबार जनता को सूचना देने का एक इमानदार उपक्रम के बजाए एक प्रोडक्ट है, यह विचार बहुत संस्थाबद्ध तरीके से अखबार के मालिक से लेकर उसे बेचने वाले निचले स्तर के हॅाकर तक स्थापित हो चुका है।
जबलपुर स्टेशन के हॉंकरों के इस हरकत से समझा जा सकता है कि इस एक फार्मुला मात्र ने एक गरीब हॉंकर के वर्गीय चेतना में कैसा बदलाव ला दिया है। और वो किसके खिलाफ किस तरह इस्तेमाल हो रहा है।

म0 गां0 अं0 हिं0 वि0, वर्धा में मीडिया के शोधार्थी है।
लक्ष्मण प्रसाद

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