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मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

भोपाल जेल ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने पर ही मिलता है एक बोतल पानी -रिहाई मंच की रिपोर्ट

शिवराज की जेलआरएसएस का मैन्युवल- हर घंटे कैदी बोलता है ‘हाजिर हूं’

जय श्री राम’ का नारा लगाने पर ही मिलता है एक बोतल पानी

भोपाल जेल में सलाम करने पर भी है पाबंदी

भोपाल फर्जी मुठभेड़ की पहली बरसी पर आतंकवाद के नाम पर सेन्ट्रल जेल में बंद कैदियों के हालात और घटना पर रिहाई मंच की रिपोर्ट

 लखनऊ 31 अक्टूबर 2017। रिहाई मंच ने भोपाल फर्जी मुठभेड़ की बरसी पर जारी रिपोर्ट में आतंकवाद के नाम पर भोपाल सेन्ट्रल जेल में बंद कैदियों को भाजपा सरकार के इशारे पर जेल में यातना देकर साजिशन मारने का आरोप लगाया है।  
 रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि 31 अक्टूबर 2016 को प्रतिबंधित संगठन सिमी से जुड़े होने के आरोप में भोपाल जेल में बंद आरोपियों को भोपाल के बाहरी इलाके में फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया था। यह 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत में मुसलमानों के प्रति प्रशासनिक और सरकारी अपराधों में आए उछाल को रेखांकित करने वाली बड़ी घटना है। इस घटना ने मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार और प्रशासन की मुस्लिम विरोधी कार्यशैली को शिद्दत से उजागर किया। यह भी साबित किया कि विपक्षी दलों ने भाजपा सरकार की इस मुस्लिम विरोधी राजनीति का विरोध करने का साहस नहीं है। सबसे अहम कि शिवराज सिंह सरकारइस पूरे मामले में बिना किसी खास परेशानी से आसानी से बच निकली। न तो किसी अदालत ने उससे इस फर्जीबाड़े पर सवाल पूछा और ना ही विपक्षी दलों ने इसे राजनीतिक मुद्दे के बतौर उठाकर सांप्रदायिक हिंदू वोटरों को नाराज करने का उठाया। यह दोनों बदलाव संकेत हैं कि मुसलमान ऐसे किसी संकट के समय भी अब राजनीतिक या सामाजिक हस्तक्षेप की उम्मीद छोड़ दे। यह बदलाव मुसलमानों को राजनीतिक और नागरिकीय तौर पर अप्रासंगिक बना देने के संघ परिवार और भाजपा के प्रयासों का चक्र पूरे हो जाने की घोषणा है।


भोपाल सेन्ट्रल जेल में यातनाओं का दौर जारी है
 भोपाल फर्जीं मुठभेड़ को एक साल हो गया है पर आज भी सुरक्षा के नाम पर रात के पहर में आतंकवाद के आरोप में बंद हर कैदी को मैं हाजिर हूं’ बोलना पड़ता है। ऐसा न करने पर पिटाई शुरु हो जाती है। यह टार्चर की वो प्रक्रिया है जिसके तहत व्यक्ति को सोने नहीं दिया जातामानसिक-शारीरिक रूप से कमजोर कर मौत के मुहाने ढकेल दिया जाता है। यह रणनीति भोपाल जेल में बदस्तूर जारी है।

अबकी बार भइया दूज की मुलाकात को कैंसिल कर दिया गया और कहा गया कि ऐसा आईबी एलर्ट के चलते किया गया। जेल प्रशासन महिला परिजनों पर बुरके को हटाने का लगातार दबाव बनाता है। कभी-कभी तो जबरन भी हटा देते हैं। 
रिहाई मंच ने भोपाल जेल में सिमी के सदस्य होने के आरोप में कैद आरोपियों पर जेल प्रशासन द्वारा बर्बर पिटाई और हत्या करने की साजिश का आरोप लगाया है। भोपाल जेल में बंद आरोपियों के परिजनों द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर कहा है कि पिछले साल 31 अक्टूबर 2016 को भोपाल में हुए फर्जी मुठभेड़ जिसमें आरोपियों की पुलिस ने हत्या कर दी थीके बाद से ही बाकी बचे आरोपियों को मारा-पीटा जा रहा है। पिटाई का यह क्रम हर दूसरे-तीसरे दिन होता है जिसमें जेल अधिकारी हत्याबलात्कार और डकैती जैसे मामलों में बंद कैदियों से एक-एक आरोपी को लाठी और डंडों से पिटवाता है और उनसे जय श्री राम’ का नारा लगवाता है। पिटाई के दौरान उनसे अल्लाह और मुसलमानों को अपशब्द कहने के लिए कहा जाता है जिससे इनकार पर उन्हें और बुरी तरह मारा-पीटा जाता है।
परिजनों से आरोपी बताते हैं कि उन्हें पिछले साल की फर्जी मुठभेड़ के बाद से ही पुलिस द्वारा किसी भी दिन फर्जी मुठभेड़ में मार देने की धमकी दी जाती रहती है। कहा जाता है कि सरकार उन्हीं की है- वो जो चाहे, कर सकते हैं। फर्जी एनकांउटर के बाद से ही उनके खाने में कटौती कर दी गई और पानी भी दिन भर में सिर्फ एक बोतल दिया जा रहा है जिससे कैदी पीने और शौच करने से लेकर वजू करने तक का काम करने को मजबूर हैं। यह पानी भी उन्हें तब नसीब होता है जब वे जय श्री राम का नारा लगाते हैं। ऐसा न करने पर उनकी फिर पिटाई की जाती है। अब्दुल्ला ने जब जय श्री राम का नारा नहीं लगाया तो उसके नाखून निकाल लिए गए और साजिद के सिर को दीवाल से दे मारा गया। 
परिजनों से सलाम करने की भी मनाही से जेल प्रशासन की मुस्लिम विरोधी मानसिकता को समझा जा सकता है। हमारे देश में अभिवादन के बहुतेरे क्षेत्रीय और सामुदायिक तरीकें हैं। लेकिन जिस तरीके से भोपाल जेल में सलाम करने तक पर मनाही है। यहां आरएसएस का जेल मैन्युवल चलता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से शिकायत करने के बाद भी उनकी पिटाई नहीं रूकी। यातना का यह सिलसिला खुद जेलर की देखरेख में होता है। जेलर फिल्मी अंदाज में डायलाग  बोलता है जब तक मेरे हाथ में डंडा घूमता है तब तक पीटते रहो। हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि उन्हें नहीं लगता की यहां से जिन्दा निकल पाएंगे। न जुल्म बंद होगा और न रिहाई मिलेगी।
 भोपाल जेल में बंद अबू फैसल को इतना पीटा गया कि उसके पैर में फ्रैक्चर हो गया। इकरार शेख ने भोपाल हाईकोर्ट में हलफनामा दिया है कि उनके दाढ़ी के बाल नोचे जा रहे हैं तथा सर के बाल आधे काट दिए गए हैं उनके पैरों के तलवों पर बुरी तरह मारा जाता है। उनकी आखिरी आस अदालत से है और वह भी उनकी बात सुनने से इनकार कर देती है और उन्हीं पर दोष मढ़ देती है। नागरिक संगठनों ने जब इस पर सवाल उठाया तो भोपाल जेल प्रशासन ने मीडिया के माध्यम से उसके पैर फ्रैक्चर होने की कहानी को जेल से भागने की कहानी बताकर मामले को संवेदनशील बनाने की कोशिश की। अपनी ही कहानी में उलझते अधिकारियों ने कहा कि उसने खाने-पीने व अन्य सुविधाओं की मांग को लेकर दबाव बनाने के लिए सीखचों में अपना पैर फंसाकर तोड़ लिया। 

इकरार शेख ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए बताया था कि जेल अधिकारी उसे रोजना मारते हैं। उसे अपने धर्म के खिलाफ नारे लगाने को मजबूर किया जाता है। इकरार शेख को यह बयान देने के बाद जेल में दुबारा पीटा गया जिसकी सूचना उसने मुलाकात के दौरान अपने परिजनों को दी है। मुलाकात के दौरान कैदियों पर यह दबाव भी डाला जा रहा है कि वे परिजनों से अपने टार्चर की बात नहीं बताएं नहीं तो उन्हें मार दिया जाएगा। इनामुर्र रहमान ने मई 2017 को जेल में दी जा रही यातना पर सेशन कोर्ट को हलफनामा द्वारा अवगत भी कराया है। शराफत के मुंह पर चोट के जख्म थे जब उसके परिजनों ने पूछा तो वह उसे टाल गया। इस टालने को हम कुछ नहीं हुआ कह देंगे तो शायद हम भोले हैं और पुलिस के चरित्र से परिचित नहीं हैं। 
कैदियों के परिजनों ने गर्म कपड़े देना चाहा। इसकी भी मनाही हो गयी। पिछले साल की घटना के बाद उनसे उनके कपड़े समेत बाकी रोजमर्रा के सामान तक छीन लिए गए थे। ठंड के बावजूद उन्हें सिर्फ एक कम्बल दिया जा रहा था। जबकि उससे पहले ठंड के मौसम में उन्हें से कम्बल दिए जाते थे। 
परिजनों को पहले दिनों में दो बार 20-20 मिनट के लिए मुलाकात कराई जाती थी। लेकिन अब जेल मैन्यूअल के खिलाफ जाते हुए उन्हें 15  दिनों में सिर्फ मिनट की मुलाकात कराई जा रही है। यह मुलाकात भी फोन के जरिए होती है। जिसमें कैदी और परिजन के बीच में जाली और शीशा होता है जिन्हें फोन लाइन से कनेक्ट कर बात कराई जाती है और बात की रिकार्डिंग का आरोप भी कैदी और परिजन बराबर लगाते रहते हैं। यह आरोप इसलिए सही भी है कि जब भी कैदी जेल में हो रही यातना के बारे में बताते हैं तो उसके बाद उस बात को लेकर उनकी पिटाई की जाती है और आइंदा से ऐसी हरकत न करने की धमकी दी जाती है। जैसे ही पांच मिनट होता है कैदी को परिजनों के सामने घसीटते हुए अंदर ले जाया जाता है जिससे उसके परिजनों को जाते-जाते भी उनके हालात और उनकी कुछ मदद न कर पाने की लाचारी अन्दर ही अन्दर उनको खाती जा रही है। परिजनों की शिकायत है की उन्हें जेलर से मिलने नहीं दिया जाता  उन्हें जेल मैन्यूअल के खिलाफ जाते हुए 24-24 घंटे तक बंद रखा जा रहा है। परिणाम यह कि कैदी दिमागी संतुलन खोते जा रहे है। उज्जैन के आदिल मानसिक रुप से काफी बीमार हैं पर उनका इलाज नहीं कराया जा रहा है। मुकदमे को टालने से लेकर मुलाकात की समय सीमा घटाने और ठंड में सिर्फ एक कम्बल देना इन विचाराधीन कैदियों को मानसिक और शारिरिक तौर पर कमजोर करके धीरे-धीरे मारने की साजिश है। 
 मोहम्मद इरफान को अपनी आख का इलाज करवाना है पर जेल प्रशासन उसका कोई सहयोग नहीं कर रहा। इसे लेकर उन्होंने 16 जनवरी 2016 को चीफ जस्टिस आफ इंडिया के नाम पत्र भी भेजा है। 
                                                     एनकाउंटर पालिटिक्स
 भोपाल जेल में सिमी से जुड़े होने के आरोप में लगभग 30  लोगों को रखा गया था। इसमें से लगभग सभी के मामलों में अनावश्यक देरी सिर्फ इसलिए की जा रही थी कि उनके खिलाफ कोई ठोस सुबूत नहीं थे और वे मुकदमों से बरी होने की स्थिति में थे। जाहिर है ऐसी स्थिति में मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार के लिए अपने कथित राष्ट्रवादी चेहरे को बचा पाना जहां मुश्किल था वहीं मुस्लिम विरोधी जनमत को संतुष्ट किए रखना भी मुश्किल हो जाता। लिहाजाजेल प्रशासनपुलिस और एटीएस ने मध्य प्रदेश सरकार के लिए वही किया जो तेलंगाना में आतंकवादी होने के आरोप में बंद लेकिन जल्दी ही छूटने वाले मुस्लिम कैदियों के साथ किया गया था।

इस रणनीति के तहत आठ लड़कों अमजद रमजान खानजाकिर हुसैनशेख महबूबमोहम्मद सालिकमुजीब शेखअकील खिल्जीखालिद अहमद और मजीद नागोरी को पहले तो मीडिया के जरिए जेल से भाग जाने की अफवाह फैलवाई गई कि इन्होंने जेल के सिपाही रमाशंकर यादव की चम्मच और खाने की प्लेट से हत्या कर दी और फरार हो गए। इसके बाद इन्हें मुठभेड़ में मार देने की घोषणा कर दी गई।
                                                         तैयारी पहले से थी
 इस पूरे नाटक में सबकी भूमिका पहले से ही तैयार कर ली गई थी। जहां पुलिस और एटीएस को इन्हें मारना थावहीं गांव के करीब हजारों लोगों की भीड़ जुटा कर पूरे नाटक को एक वास्तविक रूप देने की कोशिश भी करनी थी। भीड़ में अधिकतर भाजपा समर्थक थे और पाकिस्तान-मुर्दाबाद’, ‘हिंदुस्तान जिंदाबाद’, ‘भारत माता की जय’ ‘आतंकवाद मुर्दाबाद’ और वंदे मातरम’ के नारे लगा रहे थे।


इस तैयारी का ही परिणाम था कि पूरा प्रशासन सरकार की इस अति महत्वकांक्षी योजना को मानिटर करके अपनी-अपनी भूमिका के लिए पूर्णांक पाने की होड़ में था। स्थानीय लोगों की भीड़ और हत्यारे पुलिसकर्मियों में अति आत्मविश्वास के चलते वहां बहुत सारे लोगों को मुठभेड़ के इस नाटक का वीडियो भी बनाने दिया गया। इसके चलते यह पूरा मामला ही लीक हो गया।

                           वीडिया क्लिप जो मुठभेड़ को फर्जी साबित करती है
 घटना के चंद घटों के अंदर ही वायरल हुए वीडियो में साफ देखा गया कि न सिर्फ मारे गए लोग निहत्थे थेबल्कि उन्हें बहुत पास से जानबूझकर हत्या करने के इरादे से मारा गया। इसके अलावा वीडियो से यह भी जाहिर हुआ कि मारने के दौरान हत्यारे पुलिस और एटीएस कर्मियों के बीच आपस में और अपने उच्च अधिकारियों से फोन पर भी बात कर रहे थे जिसमें उन्हें इन लोगों को मार देने और जिंदा नहीं छोड़ने का निर्देश दिया जा रहा था। 

                                                             आडियो क्लिप
 इसके चंद दिनों बाद ही मध्य प्रदेश पुलिस कंट्रोल रूम का एक आडियो क्लिप भी वायरल हुआ जिसमें पुलिस अधिकारियों को फर्जी मुठभेड़ में हत्याओं को अंजाम दे रहे पुलिसकर्मियों को निर्देशित करते हुए साफ सुना जा सकता है कि उन्हें उन लोगों को कैसे मारना है। इस बातचीत में इन हत्याओं के बाद एक दूसरे को बधाई देते हुए भी ‘पराक्रमी जवानों’ को सुना जा सकता है।

पुलिसिया दावों में अंतर्विरोध
 वैसे तो यह मामला प्रथम दृष्टया फर्जी साबित हो गया था। इसमें शुरू से ही कई अहम अंतर्विरोधी दावे सामने आए जिसने गढ़ी गयी कहानी को और अधिक हास्यास्पद बनाने का ही काम किया। मसलनजहां भोपाल आईजी योगेश चैधरी ने दावा किया कि वे जवाबी फायरिंग में मारे गए तो वहीं प्रदेश के एटीएस चीफ संजीव शर्मा ने बताया कि मारे गए लोगों के पास कोई हथियार नहीं थेवे निहत्थे थे।
 इसी तरह पुलिस के आला अधिकारियों में कैदियों के भागनेकान्सटेबल यादव की चम्मच और प्लेट से हत्याताले के लकड़ी की चाभी से खोले जाने और उस खास दिन और समय में सीसीटीवी कैमरों के अचानक ठप्प हो जाने के संदर्भ में दिए गए अलग-अलग और अंतर्विरोधी बयान इसे फर्जी साबित करने के लिए पर्याप्त थे। 
 वीडियो और आडियो क्लिप के वायरल हो जाने और पुलिस और एटीएस के बीच अंतर्विरोधी दावों के बाद प्रदेश सरकार पर कुछ दबाव जरूर पड़ा। लेकिन इसके बावजूद उसे कोई खास दिक्कत नहीं हुई क्योंकि केंद्र सरकारसंघ परिवार मीडिया के एक हिस्से समेत भाजपा के जनाधार बहुसंख्यक समुदाय के एक बड़े हिस्से ने इसे जायज ठहराया। 
                                                        जांच का नाटक
 इस फर्जी मुठभेड़ की पोल खुल जाने के बाद सरकार ने डैमेज कंट्रोल के तहत एसके पांडेय के नेतृत्व में एकल जांच आयोग नवम्बर 2016 को गठित किया। आयोग ने दिसम्बर से काम करना शुरू किया और उसने पूरे महीने लेकर 24 अगस्त 2017 को 12 पृष्ठों की उसी तरह की रिपोर्ट सरकार को सौंपी जैसी सरकार की जरूरत थी। जांच रिपोर्ट में पुलिस के दावे को सही मानते हुए मुठभेड़ को वास्तविक बताया गया। 
 इस रिपोर्ट पर पीड़ितों के वकील परवेज ने मीडिया को बताया कि कैसे पूरी जांच मजाक थी। गवाहों से सवाल पूछने का मौका ही नहीं दिया गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं दी गई। सबसे अहम कि मामले में दर्ज एफआईआर तक देखने को नहीं दी गई। उन्होंने यह भी बताया कि जांच के दौरान उन्हें उस टूथ ब्रशलकड़ी की चाबीचम्मच और खाने की प्लेट भी नहीं देखने को दी गई जिससे कथित तौर पर पुलिस के मुताबिक मारे गए लोगों ने जेल का ताला खोला था और एक कान्सटेबल की हत्या भी की थी। 
                                                    चौहान के पांडे जी
 लेकिन यहां यह जानना रोचक और महत्वपूर्ण होगा कि एस के पांडेय साहब क्या चीज हैं और उन्हें क्यों इस काम के लिए चुना गया
 मध्य प्रदेश के पूर्व एडवोकेट जनरल आनंद मोहन माथुर नेजैसे ही एस पांडेय का नाम इस जांच आयोग के मुखिया के बतौर घोषित हुआमुख्यमंत्री को पत्र लिखकर बताया कि मैं एसके पांडेय को तब से जानता हूं जब वो जबलपुर में सिविल जज थे। वे आरएसएस के करीबी के बतौर जाने जाते हैं और इसीलिए वे इस घटना की अपक्षपातपूर्ण तरीके से जांच करने योग्य नहीं हैं।’ इस पत्र के लिखे जाने के बाद जो हुआ वो भारतीय लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है- सरकारी संरक्षण में जजों की गुंडागर्दी करने का नायाब उदाहरण है। 90 वर्ष से ज्यादा के उम्र वाले माथुर पर इंदौर में करीब दो सौ संघियों की गुंडा भीड़ ने उनके घर का घेराव किया, उन पर गोबर फेंका और चेहरे पर कालिख पोतने की कोशिश की। 
 यहां याद रखना जरूरी होगा कि इस घटना के विरोध में वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस समेत किसी दूसरे दल ने कोई विरोध प्रदर्शन तो दूर किसी तरह की शिकायत भी नहीं दर्ज कराई। 

                             जांच की मांग करने वालों पर समाजवादी सरकार में हमला
 इस फर्जी मुठभेड़ का विरोध करना उत्तर प्रदेश की तत्कालीन समाजवादी पार्टी सरकार को भी रास नहीं आया था। उसने इस मामले में सीबीआई जांच की मांग कर रहे रिहाई मंच के विरोध प्रदर्शन पर हमला
करके न सिर्फ मंच के महासचिव राजीव यादव और मंच के नेता शकील कुरैशी को बुरी तरह पीटा बल्कि प्रदर्शन में शामिल लोगों पर फर्जी मुकदमे भी दर्ज कर दिए। इससे साबित हुआ कि मुसलमानों को आंतकवाद के नाम पर फंसाने और मार डालने की साजिश में अपने को सेक्युलर कहने वाली पार्टियां भी संघ परिवार के एजेंडे पर ही चलती हैं। 
 रिहाई मंच प्रवक्ता शाहनवाज आलम ने कहा कि तेलंगाना में विचाराधीन कैदियों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या के बाद भोपाल में भी विचाराधीन मुस्लिम कैदियों की हत्या पर तमाम हलकों से सवाल उठने और यहां तक कि मारे गए लोगों द्वारा खुद अदालतों को हत्या कर दिए जाने की साजिश से वाकिफ कराने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट द्वारा संज्ञान लेकर जेलों के अंदर पुलिस और सरकारी तंत्र द्वारा रचे जा रहे आपराधिक षडयंत्रों की जांच न करना सुप्रीम कोर्ट की मंशा को भी कटघरे में खड़ा कर देता है। उन्होंने कहा कि जो सुप्रीम कोर्ट बाघों की मौत और पर्यावरण पर स्वतः संज्ञान ले लेता है उसकी आतंकवाद के आरोपियों के देशव्यापी फर्जी मुठभेड़ों पर चुप्पी न सिर्फ उसकी गरिमा को धूमिल करती है बल्कि उसका रवैया फर्जी मुठभेड़ों को प्रोत्साहित करने वाला है। उन्होंने आरोप लगाया है कि आतंकवाद के फर्जी आरोपों में फंसाए गए मुस्लिम युवकों की रिहाई से सरकारोंसुरक्षा और खुफिया एजेंसियों की होने वाली बदनामी से बचने के लिए ही उन्हें कभी फरार दिखा कर तो कभी बीमार दिखा कर मारने के बढ़ते चलन पर अल्पसंख्यक आयोग की चुप्पी ने खुद इस आयोग को ही मजाक बना दिया है। उन्होंने मांग की है कि अपनी गरिमा और निष्पक्ष छवि को बचाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट और अल्पसंख्यक आयोग को विभिन्न जेलों में बंद आतंकवाद के आरोपियों की स्थिति का जायजा लेने के लिए आयोग गठित कर जेलों के अंदर दौरे करने चाहिए ताकि विचाराधीन कैदियों की सुरक्षा की गारंटी हो सके। 

द्वारा जारी-
शाहनवाज आलम
प्रवक्ता रिहाई मंच
9415254919

रविवार, 1 अक्तूबर 2017

भीड़ द्वारा संगठित हत्या के मुकदमें को कमजोर कर आरोपियों की मदद कर रही है योगी सरकार की पुलिस -रिहाई मंच

लखनऊ/शाहजहांपुर 1 अक्टूबर 2017 शाहजहांपुर जिले के जलालाबाद में गौसनगर मुहल्ले के नवी अहमद जिनकी पिछले दिनों साइकिल और बाइक से हुई टक्कर के बाद भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई थी के परिजनों से मुलाकात की. अवामी काउंसिल के असद हयात, रिहाई मंच के राजीव यादव और स्थानीय मोहम्मद कादिर ने मृतक नवी अहमद के साथ भीड़ की हिंसा के शिकार घायल अज़मत उल्लाह से भी मुलाकात की.साठ वर्षीय नवी अहमद पुत्र सलामत जलालाबाद के गौसनगर के रहने वाले थे. इस मोहल्ले के ज्यादातर लोग बिहार, हरियाणा, राजस्थान अन्य राज्यों में जाकर खेतीबाड़ी का काम करते हैं. नवी बिहार के सीतामढ़ी में जाकर खेतीबाड़ी का काम करते थे. 19 सितंबर की शाम 6 बजे के तकरीबन नवी अहमद, अजमत उल्लाह के साथ एक रिश्तेदारी से मोटर साईकिल से आ रहे थे. मदनापुर के आगे बढ़े ही थे कि अतिबरा गांव के पास पाइप लदी एक साइकिल से टकरा गए. साइकिल वाले सुनील ने तुरंत आवाज दी औऱ कुछ दूर खड़े लोग तुरंत आ गए और लाठी डंडे लात घूसों से मारना पीटना शुरू कर दिया और भीड़ तमाशाई देखती रही. परिजनों का कहना है कि नवी और अज़मत दोनों की लंबी दाढ़ी देख भीड़ समझ गई कि वे मुसलमान हैं और बहुत बुरी तरह से मारा पीटा. सुनील पुत्र ध्यान पाल कलान शाहजहांपुर का रहने वाला है जिसकी ससुराल बताया जा रहा है कि अतिबरा गांव में है.घटना के बाद 108 एम्बुलेंस से नगरिया अस्पताल जलालाबाद लाया गया जहां से रेफर कर दिया गया. इसके बाद शाहजहांपुर अस्पताल लाया गया वहां से भी रेफर कर दिया. अंत में बरेली में देर रात नवी अहमद की मौत हो गई. नबी के सात लड़केदो लड़कियां हैं. दो लड़के और एक लड़की की शादी हुई है.
नबी अहमद के बेटे शगीर अहमद, पड़ोसी परवेज, शरीफ अहमद, मोहम्मद यासीन बताते हैं कि भीड़ ने इतनी बुरी तरह से मारा था की उनकी पसलियां बुरी तरह से टूट गई थीं. सर से लेकर पाव तक जगह जगह से खून निकल रहा था और गंभीर चोटों के जख्म के निशान थे, जिसे पोस्टमॉर्टम में देखा जा सकता है. छाती, माथे, हाथ-पैर, कोहनियों और घुटनों पर गहरे जख्म थे. पर इतनी बड़ी घटना जिसमें एक आदमी की मौत हो जाती है दूसरा गंभीर स्थिति में चला जाता है उसमें घटना के दस दिनों बाद भी गिरफ्तारी नहीं होती है. परिजनों का आरोप है कि पुलिस 304 में मुकदमा दर्ज कर इस संगठित हत्या के मुकदमें को कमजोर कर आरोपियों की मदद कर रही है. उन्होंने ये भी कहा कि जिस तहरीर को लेकर पुलिस के पास वे दर्ज कराने के लिए गए थे उसे दर्ज करने से पुलिस ने इनकार कर दिया. और अपनी मर्जी से कमजोर तहरीर पर मुकदमा दर्ज किया. नवी अहमद के साथ जा रहे पचपन वर्षीय अजमत उल्लाह पुत्र सलीम उल्लाह भी राजस्थान में सब्जी का काम करते हैं.अजमत अपने घर पर खाट पर पड़े-पड़े सीने, पसलियों, घुटने में लगी गंभीर चोटों के दर्द से कराह रहे थे. उनके दर्द की वजह से ज्यादा बात नहीं हो सकी पर उन्होंने बताया की उस दिन उन लोगों ने लाठी-डंडे से हमला किया और जमीन पर गिर जाने पर लात-घूसों से बुरी तरह पीटा. अज़मत के चार लड़के और तीन लड़कियां हैं जिसमें एक लड़के और एक लड़की की शादी हो चुकी है.द्वारा जारी-शाहनवाज़ आलमप्रवक्ता रिहाई मंच9415254919................................Office - 110/46, HarinathBanerjee Street, Naya Gaaon (E), Laatouche Road, Lucknow facebook.com/RihaiManchtwitter.com/RihaiManchWhatsapp Hi... Rihai Manch 9452800752, 8542065846x
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बुधवार, 27 सितंबर 2017

योगी आदित्यनाथ भी गुरमीत राम रहीम की तरह न्याय की गड्डी चढ़ेंगे !

सौदा डेरे के मठाधीश गुरमीत ने वोट-राजनीति के प्रश्रय में अपने व्यभिचारी आतंक का साम्राज्य फैलाया था। गोरखपुर के गोरखनाथ पंथ मठाधीश योगी के लिए साम्प्रदायिक आतंक ही वोट-राजनीति का पर्याय रहा है...                  वीएन राय, पूर्व आईपीएस

योगी को उनके प्रभाव क्षेत्र में अपराजेय माना जाता रहा है. जैसे कभी राम रहीम को माना जाता था. फिलहाल, स्वतंत्र न्यायपालिका का ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ समीकरण, बेशक 15 वर्ष लगाकर, न्याय के चंगुल में राम रहीम की हवा निकाल चुका है. क्या योगी की बारी भी आयेगी?
पिछले दिनों, पैसे और प्रभाव के दखल की मारी भारतीय न्याय व्यवस्था के हाथों, शासकों के चहेते अरबपति बलात्कारी धर्मगुरु, गुरमीत सिंह राम-रहीम को न्याय की गड्डी चढ़ते देखना, एक अजूबे संयोग से कम नहीं कहा जाएगा. इसी तरह, धर्म और राजनीति में कई गुणा विशाल आभा मंडल वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आतंकी पापों का घड़ा फूटने की दिशा में भी कुछ वैसा ही न्यायिक संयोग बनना क्या संभव है?

9 अक्तूबर को योगी को लेकर अहम सुनवाई इलाहाबाद हाई कोर्ट में होने वाली है. इसमें, 2006-07 के दौर में, गोरखपुर समेत पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में, योगी की ‘हिन्दू वाहिनी’ के बैनर तले सांप्रदायिक उन्माद और मार-काट में उनकी भड़काऊ अगवाई की क़ानूनी जवाबदेही तय होनी है. योगी ने इस वर्ष अप्रैल में, उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनते ही, अपने पर मुक़दमा चलाये जाने की स्वीकृति रोक दी थी. यानी अपने मामले में वे स्वयं ही जज भी बन गए. हाई कोर्ट को उनके इस फर्जीवाड़े पर फैसला देना है.
सिरसा के सच्चा सौदा डेरे के मठाधीश गुरमीत ने वोट-राजनीति के प्रश्रय में अपने व्यभिचारी आतंक का साम्राज्य फैलाया था. गोरखपुर के गोरखनाथ पंथ मठाधीश योगी के लिए साम्प्रदायिक आतंक ही वोट-राजनीति का पर्याय रहा है. 2006-07 में, योगी के ‘हिन्दू वाहिनी’ क्रियाकलापों पर, तब के तीन युवा छात्रों राजीव यादव, शाहनवाज आलम, लक्ष्मण प्रसाद की डाक्यूमेंट्री ‘भगवा आतंक’ उस रोंगटे खड़े कर देने वाले दौर की गवाह है. डाक्यूमेंट्री, सांप्रदायिक जुनून और नफरत से भरे उस दौर का दस्तावेज है जब योगी गिरोह मुस्लिम बस्तियों के सामने लाउड स्पीकर लगा उन पर बेरोक-टोक गालियों और धमकियों की बौछार किया करता था. सांप्रदायिक तनाव, धर्म परिवर्तन, आगजनी, बलात्कार, लूट और शारीरिक हिंसा के आह्वान इस गिरोह के घोषित औजार हुआ करते थे. साम्प्रदायिक उन्माद और दंगों से चुनावी ध्रुवीकरण के हिंसक खेल में योगी सबसे आगे निकल चुके थे.
यहाँ तक कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में योगी की उग्रतम साम्प्रदायिक छवि, संघ-भाजपा नेतृत्व की हिन्दू राष्ट्र रणनीति से इतर जाने की भी रही है. आश्चर्य नहीं कि मायावती ने अपनी राजनीतिक आत्मकथा में योगी को देशद्रोही तक करार दिया. बतौर भाजपा समर्थित मुख्यमंत्री (2002-03) उन्होंने देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को चिट्ठी लिखकर योगी की गतिविधियों पर लगाम लगाने को कहा था. बाद में, प्रदेश के पूर्णकालिक मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह (2003-07) और मायावती (2007-12) पास अवसर था कि वे अपने दम योगी की नकेल कस सकते थे, तो भी दोनों ही वोट बैंक की संकीर्ण राजनीति से बाहर नहीं निकल सके.
योगी की गतिविधियों को लेकर, भाजपाई राजनीति में उदारवादी गिने जाने वाले वाजपेयी की चुप्पी भी कम आपराधिक नहीं कही जायेगी. ध्यान रहे, गुरमीत के यौन शोषण का शिकार हुयी सेविका की चिट्ठी पर भी वाजपेयी काल में प्रधानमंत्री कार्यालय ने चुप्पी साधे रखी और तब पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के दखल से ही मामले में सीबीआई जाँच संभव हो सकी. लगता है, योगी के अराजक प्रसंग में, सर्वत्र राजनीतिक चुप्पी के बाद, अब इलाहाबाद हाई कोर्ट भी कुछ वही भूमिका निभा सकता है!
संक्षेप में एक नजर न्यायिक घटनाक्रम पर. 2007 में गोरखपुर पुलिस ने योगी के विरुद्ध आपराधिक केस दर्ज करने से मुंह मोड़ लिया. सीजेएम ने भी सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत केस दर्ज करने की याचिका ठुकरा दी. अंततः, गोरखपुर के प्रतिबद्ध समाजकर्मी परवेज परवाज और इलाहाबाद हाई कोर्ट के जुझारू वकील असद हयात की याचिका पर, 2008 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के बाद आपराधिक मुकदमा दर्ज हो सका. योगी के सह-अभियुक्तों में मोदी सरकार के एक वर्तमान राज्य मंत्री, योगी सरकार के एक वर्तमान मंत्री और गोरखपुर की वर्तमान मेयर भी शामिल हैं. मेयर अंजू ने तब सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देकर उस के कार्यान्वयन पर स्टे ले लिया था. दिसंबर 2012 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से स्टे टूटने के बाद ही  विवेचना शुरू हो सकी.
समाजवादी अखिलेश यादव (2012-17) के मुख्यमंत्री होने के बावजूद विवेचना बेहद धीमी गति से चली. यहाँ तक कि अखिलेश के मुख्यमंत्री का पद छोड़ने तक भी अभियोजन के अनुमोदन की फाइल उनके दफ्तर में लंबित रहने दी गयी. लेकिन मुख्यमंत्री बने योगी ने जैसे ही न्याय का दरवाजा हमेशा के लिए बंद करना शुरू किया, याचिका-कर्ता परवेज परवाज और असद हयात पुनः हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने जा पहुंचे. 4 मई की सुनवाई में राज्य सरकार ने गोल-मोल जवाब दिया. 11 मई की पेशी में हाई कोर्ट को बताया गया कि 3 मई को ही अनुमोदन न देने का फैसला लिया जा चुका है. हाई कोर्ट ने सख्त चेतावनी देने के साथ 9 अक्तूबर को स्थिति स्पष्ट करने को कहा है.  
दरअसल, इलाहाबाद हाई कोर्ट की पहल ने सांप्रदायिक आतंक के योगी अध्याय में न्याय की उम्मीद नए सिरे से जगाई है. इसी 19 सितम्बर को लखनऊ प्रेस क्लब में, गौरी लंकेश की स्मृति में, दिल्ली के बटला हाउस कांड की बरसी पर लगभग ढाई सौ लोगों की एक सभा में मैं भी शामिल हुआ. ये सभी सांप्रदायिक सद्भाव के मोर्चे पर सक्रिय लोग थे. दुखद है, 9 वर्ष गुजरने पर भी बटला हाउस पुलिस मुठभेड़ कांड का पटाक्षेप नहीं हो सका है. इस बीच यदि सरकारों की प्रणाली पारदर्शी रही होती तो श्वेत पत्र के माध्यम से सभी सम्बंधित तथ्य सार्वजनिक किये जा चुके होते. जाहिर है, सरकार की फाइल में जो मामला निपट चुका है, उसके पीड़ितों को साल दर साल न्याय का इंतज़ार रहेगा. उनके धैर्य भरे संकल्प ने मुझे एक और सभा की याद दिला दी.
इसी वर्ष 24 फरवरी को मुझे गुरमीत के सच्चा सौदा डेरा मुख्यालय वाले हरियाणा के सिरसा शहर के सक्रिय किरदारों से मिलने का भी अवसर मिला था. केंद्र/राज्य की भाजपा सरकारों से पोषित इस बलात्कारी का दबदबा अभी कायम था. राष्ट्रीय मीडिया भी अभी भीगी बिल्ली ही बना हुआ था. 2010 से दर्जनों स्त्रियों-पुरुषों के डेरा परिसर से गायब किये जाने की शिकायतें लंबित हैं. इस बीच राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों के अमूमन गुरमीत दरबार में मत्था टेकने के कितने ही विडियो वायरल हो चुके हैं. 2015 विधान सभा चुनाव में प्रधानमन्त्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तक सिरसा जाकर उसका गुणगान कर आये थे. चुनाव में विजय के बाद भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के नेतृत्व में तमाम पार्टी विधायकों द्वारा उसके दरबार में अभूतपूर्व हाजिरी लगाने का मंजर कौन भूल सकता है.
हालाँकि, जो लगभग दो सौ लोग इस ‘देशभक्त स्मृति’ सभा में हिस्सा लेने आये थे, उनके लिए सिरसा शहर, यौन शोषण और राजनीतिक आतंक का पर्याय बन चुके धर्मगुरु का नहीं, बल्कि स्वर्गीय कामरेड बलदेव बख्शी जैसे प्रगतिशील नेतृत्व और पत्रकार छत्रपति जैसे शहीद योद्धा का शहर था. नब्बे के दशक का उत्तरार्ध रहा होगा जब इन दोनों महानुभावों के सान्निध्य में मैंने, दिल्ली से सिरसा आकर ‘भगत सिंह से दोस्ती’ अभियान में शिरकत की थी और राम रहीम नामक अंध श्रद्धा के लौह कपाट पर जागरूक चेतना की ठोस  दस्तक को सुना था. अब उसी क्रम में मेरा साक्षात्कार अगली पीढ़ी के न्याय योद्धाओं से हुआ. प्रतिबद्ध अश्विनी बख्शी, जो चंडीगढ़ में हाई कोर्ट में वकालत करते हैं और अंशुल छत्रपति, जो सच की पत्रकारिता में साहसी पिता की प्रतिमूर्ति लगे. ये और इनके तमाम साथियों ने गुरमीत को न्याय की गड्डी पर चढ़ा कर ही दम लिया.
लखनऊ प्रेस क्लब की सभा में भी मुझे योगी मामले के मुख्य सक्रिय किरदारों- परवेज परवाज, असद हयात, राजीव यादव, शाहनवाज आलम, लक्ष्मण प्रसाद- से रूबरू होने का मौका मिला. उनमें, न्याय के पक्ष में संघर्ष जारी रखने की वही दृढ़ जीवटता देखने को मिली जो मैंने राम-रहीम आपराधिक मामलों को अंजाम तक पहुँचाने वालों में पायी थी. यानी न्याय का इंतज़ार जितना लम्बा खिंचे, उसकी लड़ाई में कसर नहीं रहेगी.
डाक्यूमेंट्री ‘भगवा आतंक’ में कैद रक्तरंजित विवरण यहाँ दोहराए नहीं जा सकते. बस, कैमरे में कैद एक पीड़ित वृद्ध महिला का चेहरा, जिसने परिचित आतताइयों को परिचित शिकारों पर वार करते देखा था, दिमागी परदे से नहीं उतरता. पूछने पर कि हमलावर गिरोह क्या नारे लगा रहा था, वह यही दोहराती रही- मारो....काटो....मारो....काटो....मारो....काटो. 9 अक्तूबर को इलाहाबाद हाई कोर्ट इस नारे को सुनेगी, यह मेरा भी विश्वास है!

                             (पूर्व आइपीएस वीएन राय सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं।)




  

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

सेक्यूलरिज्म का बोझा अकेले मुसलमान क्यों ढोए, कथित सामाजिक न्याय के जातिगत जनाधारों को अपने अधिकारों की बात करने वाला यह ‘नया मुसलमान’ हजम नहीं हो रहा

                                                                                                       शाहनवाज आलम
उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की लगभग एकतरफा जीत और योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद मुसलमानों पर दो नजरियों से बात हो रही है। पहला नजरिया हिंदुत्ववादी है, जिसकी अभिव्यक्ति आप वास्तविक और वर्चुअल दुनिया में मुसलमानों के खिलाफ मुखर होती हिंसक आवाजों में देख सकते हैं। तो वहीं दूसरा नजरिया इस परिणाम के बाद मुसलमानों के लोकतांत्रिक इदारों में बिल्कुल हाशिए पर पहुंच जाने से चिंतित है। जो उसके मुताबिक लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।
इस तरह इन दोनों विश्लेषणों में मुसलमानों की निरीहिता ही केंद्रीय बिंदु है। लेकिन चूंकि ये दोनों ही विश्लेषण बाहरी नजरिए पर आधारित हैं इसलिए इनमें सच्चाई पूरी तरह नुमायां नहीं है। इसके उलट, उनके अंदर ऐसा बहुत कुछ नया और उत्साहवर्धक घट रह है जिनसे उनमें नई उम्मीदें पैदा होती हैं।
दरअसल मुसलमानों के लिए यह जनादेश बदलते सामाजिक समीकरणों के लिहाज से बिल्कुल ही आश्चर्य में डालने वाला नहीं है। क्योंकि उसे 2014 के लोकसभा चुनाव से काफी पहले से सपा और बसपा के कथित हिंदू सेक्यूलर मतदाताओं के अंदर चल रहे मुस्लिम विरोधी गोलबंदी का अंदाजा था।
मसलन, 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले हुए मुजफ्फरनगर साम्प्रदायिक हिंसा में उसे सपा और बसपा के मूल जनाधारों में उस हिंसा को जायज ठहराने या उसे स्वाभाविक हिंदू प्रतिक्रिया के बतौर देखने या फैजाबाद में यादवों द्वारा मुसलमानों के खिलाफ दशहरा के दिन किए गए हमलों से अंदाजा हो गया था कि आने वाले चुनावों में यह तबका भाजपा के साथ जा सकता है। हालांकि इन जातियों में यह कोई नया रूझान नहीं था, पहले भी ऐसा होता रहा है। लेकिन तब मुसलमान खुलकर सपा और बसपा के जनाधारों के खिलाफ शिकायती मुद्रा में नहीं होता था। उसकी कोशिश होती थी कि वह इन सवालों पर चुप रह कर उन्हें भाजपा के पक्ष में जाने से रोके या उन्हें न्यूट्रल बनाए रखने के लिए खामोश रहे।
लेकिन अगर हम पिछले 10 सालों के मुस्लिम समाज के अंदरूनी जिंदगी में झांकें तो हम पाएंगे कि 2007 से ही बसपा सरकार में आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों की धड़पकड़ से उसके अंदर अपने साथ होने वाली नाइंसाफियों पर किसी रणनीतिक कारण से प्रतिक्रिया नहीं देने और चुप रह जाने की प्रवृत्ति में बदलाव आना शुरू हो गया था। इस बदलाव का केंद्रीय विचार अपने साथ होने वाली नाइंसाफी के अलावा इंसाफ के लिए दूसरों का मुंह ताकने के बजाए खुद आवाज उठाना भी था।
यह कोई सामान्य बदलाव नहीं था। बल्कि 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुलायम सिंह और मायावती जैसे नेताओं द्वारा उनके अंदर बैठा दी गई इस धारणा को तोड़ने की कोशिश इसमें निहित थी कि इन पार्टियों की निगहबानी में वो सुरक्षित हैं और उन्हें खुद राजनीति में आने की कोई जरूरत नहीं है।
यहां यह भी गौरतलब है कि इस नसीहत को मानकर लगभग पूरी तरह गैरसियासी हो चुकी एक पीढ़ी जिसने मुलायम सिंह यादव को ‘मौलाना’ की उपमा दी थी, अब नई पीढ़ी को सपा-बसपा के साथ खड़े रहने का कोई मजबूत तर्क नहीं दे पा रही थी।
यह नई पीढ़ी कथित सामाजिक न्याय में अपने प्रतिनिधित्व पर सवाल उठा रही थी और यह भी पूछ रही थी कि सेक्यूलरिज्म का बोझा वही अकेले क्यों ढोए। इस तरह उसमें एक नया सियासी वर्ग निर्मित हुआ है जो ‘रिस्क’ लेना सीख रहा है।
इस तरह यह ‘नया मुसलमान’ धर्मनिपेक्षता की नई और बड़ी लकीर खींचने की प्रक्रिया में था और कथित सेक्यूलर राजनीति के पुराने मानकों- मदरसों को वित्तिय सहायता, हज सब्सिडी या उर्दू अनुवादकों की भर्ती, को खारिज कर अपनी शर्तों को मजबूती से रख रहा था। जिसको नजरअंदाज करना आसान नहीं था। मसलन, मायावती ने आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार दिखाए जा रहे दो युवकों के सवाल पर मुसलमानों के आंदोलन के दबाव में जस्टिस निमेष जांच आयोग का गठन किया। ऐसा देश में पहली बार हुआ था। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पहली बार मुसलमान किसी राजनीतिक मुद्दे पर और वो भी एक कथित सेक्यूलर पार्टी के खिलाफ आंदोलन कर रहा था। इस बदलाव को सपा ने भी भांपा और इस ‘नए मुसलमान’ मतदाता वर्ग को रिझाने के लिए उसने आतंकवाद के नाम पर फंसाए गए मुस्लिम युवकों को रिहा करने, बरी हुए युवकों का पुनर्वास और मुआवजा देने, मुसलमानों में आत्मविश्वास जगाने के लिए राज्य की सुरक्षा बलों में भर्ती के बाबत मुस्लिम बहुत इलाकों में विशेष भर्ती कैम्प लगाने जैसे चुनावी वादे किए।
कहने की जरूरत नहीं कि इनमें से एक भी वादा उसने पूरा नहीं किया, लेकिन मुसलमानों के लिए यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी। इससे पहले किसी भी राज्य में मुसलमानों के वोट पर राजनीति करने वाली किसी पार्टी को ऐसे वादे करने पर वह कभी मजबूर नहीं कर पाया था।
वहीं दूसरी ओर इस ‘नए मुसलमान’ के उदय से परम्परागत ‘सेक्यूलर’ राजनीति के अपने मूल जातिगत जनाधार में भी इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बदलाव आने शुरू हो चुके थे। चूंकि सपा और बसपा ने अपने जातिगत आधारों को मुसलमानों से वोट और नोट लेना तो सिखा दिया था, उनके सवालों पर उन्हें संवेदनशील बनाने या उनके धर्मरिरपेक्षीकरण की कोई प्रक्रिया नहीं चलाई थी। इसलिए मुसलमानों को निरीहता की स्थिति में देखने की उसे आदत हो गई थी। उसे निरीह मुसलमान ही अच्छे लगते थे।
कथित सामाजिक न्याय के जातिगत जनाधारों को अपने अधिकारों की बात करने वाला यह ‘नया मुसलमान’ हजम नहीं हो रहा था। लिहाजा, यही वह समय था जब संघ परिवार और भाजपा के साथ उसका गुप्त चुनावी समझौता हुआ। ‘गुप्त’ इसलिए कि उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में मुसलमानों को इसकी भनक नहीं लगने दी। वहीं इस ‘नए मुसलमान’ ने इन 10 सालों में सपा और बसपा के साम्प्रदायिक रवैये के चलते भविष्य की योजनाओं के तहत अपनी सामाजिक और राजनीतिक लीडरशिप खड़ी करने का इरादा भी बनाना शुरू कर दिया था। जिसके तहत सामाजिक तौर पर रिहाई मंच, सियासी तौर पर उलेमा काउंसिल, पीस पार्टी खड़ी हुई जिसमें पहले से चली आ रही नेलोपा की लीडरशिप की अक्सरियत थी। वहीं बाद में ओवैसी की एमआईएम भी आई।
यहां यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि जहां पहले ऐसी किसी भी पार्टी को मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा सपा-बसपा के प्रभाव में भाजपा का एजेंट कह कर खारिज कर देता था, वहीं इस दरम्यान हुए चुनावों में उसने भले इन्हें जीतने लायक वोट न दिया हो लेकिन ऐसे किसी भी तर्क को एक सिरे से नकार दिया। यहां तक कि इस बार भाजपा की प्रचंड जीत के बावजूद मुसलमानों में अपने वोटों के बंट जाने का अपराधबोध बिल्कुल गायब है, जैसा कि ऐसी स्थितियों में पहले होता रहा है। उल्टे इस बार वो सपा और बसपा के हिंदू जनाधार के बंटवारे को भाजपा की जीत का जिम्मेदार मान रहा है। राजनीतिक तौर पर जड़ और नई बहसों और प्रयोगों से बचने वाले इस समाज में आया यह एक अहम बदलाव है।
वहीं अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रहे इस ‘नए मुसलमान’ को सत्तारूढ़ सपा ने कैसे सम्बोधित किया यह समझना कथित सेक्यूलर राजनीति के हिंदुत्ववादी चरित्र को समझने के लिए अहम होगा। सपा ने अपने घोषणापत्र से इन सभी मुद्दों को ही गायब कर दिया। इस तरह उसने अपने हिंदू जातिगत जनाधार को यह संदेश देने की कोषिष की कि वो उसे मुस्लिम हितैषी समझने की गलती ना करे, उस पर भरोसा करे वो अपनी गलती सुधारने को तैयार है। वहीं दूसरी ओर इससे उसने मुसलमानों में विकसित हो रही राजनीतिक चेतना को ही पलट देने की कोषिष की।
जाहिर है, अखिलेश यादव ने ऐसा इसलिए किया कि यह चेतना उनकी सेक्यूलरिज्म की जड़ और यथास्थितिवादी राजनीति को चुनौती दे रही थी। यह ज्यादा सवाल पूछने वाला ‘नया मुसलमान’ ज्यादा प्याज खाने वालों से खतरनाक था।
वहीं इस ‘नए मुसलमान’ में एक और सुखद बदलाव यह दिखा कि उसने मुजफ्फरनगर हिंसा के जिम्मेदार जाटों को बिल्कुल ही वोट नहीं दिया। जबकि अजित सिंह को यह उम्मीद थी कि मुसलमान फिर से जाटों को वोट दे देंगे। यह निर्णय सुखद इसलिए है कि कम से कम मुसलमान एक सामान्य मानवीय प्रवृत्ति का प्रदर्शन कर पाया जिसके तहत कोई इंसान अपने हत्यारों या जालिम के साथ नहीं खड़ा होता। यानी सामने वाले के अपनी सुविधानुसार सेक्यूलर और कम्यूनल होने के परम्परागत एकाधिकार को मुसलमानों ने खारिज कर दिया।
यानी उसने भाजपा को रोकने के नाम पर अपनी मानवीय गरिमा से समझौता नहीं किया। अपनी गरिमा और स्वायत्ता को हर हाल में बचाए रखने की जिद ही लोकतंत्र में नई सम्भावनाओं को जन्म देती है। 2017 का मुसलमान, इन सम्भावनाओं से भरपूर है जो भविष्य की किसी भी सेक्यूलर राजनीति को अब वास्तव में पहले से ज्यादा सेक्यूलर होने पर मजबूर करेगा। मुसलमानों के लिए यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं है।
 (स्वतंत्र लेखक, डाॅक्यूमेंट्री फिल्मकार, और राजनीतिक कार्यकर्ता)
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