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बुधवार, 21 दिसंबर 2011

स्वनियंत्रण जैसी कोई चीज नहीं होती


मारकंडेय काटजू  
          
                               
                                                                  आज भारत अपने इतिहास के एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। यह संक्रमण एक सामंतवादी कृषक समाज से उसके एक आधुनिक औद्योगिक समाज में रूपांतरित होने का है। यह इतिहास का एक बहुत ही पीड़ादायक दौर है। पुराना सामंती समाज उखड और बिखर रहा है, लेकिन आधुनिक औद्योगिक समाज पूरी तरह और मजबूती से स्थापित नहीं हो पाया है। पुराने मूल्य ढह रहे हैं लेकिन नये आधुनिक मूल्य उनकी जगह नहीं ले पाये हैं। सब कुछ अस्त-व्यस्त और बिखराव में है। जैसा शेक्सपीयर ने मैकबेथ में कहा हैजो अच्छा है वो खराब है, जो खराब है वो अच्छा है
अगर कोई 16वीं से 19वीं शताब्दी तक का यूरोप का इतिहास पढे, जब वहां सामंतवाद से आधुनिक समाज में संक्रमण चल रहा था, तो महसूस करेगा कि संक्रमण का यह दौर बिखराव, उत्पात, युद्ध, अराजकता, क्रान्तिों, सामाजिक मंथन और बौद्धिक उफान से भरा था। इस अग्निपरिक्षा से गुजरने के बाद ही वहां आधुनिक समाज अस्त्तिव में आया। भारत आज उसी अग्निपरिक्षा से गुजर रहा है। आज हम अपने देश के इतिहास के एक कष्टदायी दौर से गुजर रहे हैं, जो मेरा अनुमान है अभी 15 से 20 साल और चलेगा। मैं कामना करूंगा कि संक्रमण की यह प्रक्रिया अकष्टकारी और तत्काल हो, लेकिन अफसोस कि इतिहास ऐसे नहीं संचालित होता है।
 इस संक्रमण के दौर में विचारों की भूमिका, और इसलिये मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इतिहास के किन्हीं खास मौकों पर विचार भौतिक शक्ति बन जाते हैं। मसलन, स्वतंत्रता, बराबरी अैर भाईचारा तथा धार्मिक स्वतंत्रता (धर्मनिरपेक्षता) के विचार, यूरोप के जागरण काल में, खास कर अमरीकी और फ्रेंच क्रान्तियों के दौरान ताकतवर भौतिक शक्ति बन गये। यूरोप के इस संक्रमण काल के दौरान, मीडिया (जो उस समय सिर्फ प्रिंट तक सीमित थी) ने सामंती यूरोप के एक आधुनिक यूरोप में रूपांतरित होने में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी।
     मेरे विचार से भारतीय मीडिया को भी वैसी ही प्रगतिशील भूमिका, जैसी यूरोप में मीडिया ने (उस रूपांतरण के दौर में)निभाई थी, निभानी चाहिये। ऐसा वह पिछडे और सामंती विचारों मसलन जातिवाद, साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास, स्त्रीयों का दमन इत्यादि पर हमला बोल कर और आधुनिक, तार्किक, वैज्ञानिक विचारों, धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता का प्रचार करके कर सकती है। एक समय, हमारी मीडिया के एक हिस्से ने हमारे देश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
काम करने का तरीका
       जब मैंने भारतीय मीडिया, खास कर ब्रॉडकास्ट मीडिया की ऐसी प्रगतिशील और सामाजिक जवाबदेही की भूमिका नहीं निभाने पर आलोचना की तो मेरे उपर मीडिया का एक हिस्सा हमलावर हो गया। कुछ ने तो मेरे उपर व्यक्तिगत हमले शुरू कर दिये कि मैं सरकार का एजेंट हूं। जब मीडिया की कार्यप्रणाली पर सवाल उठ रहे हों तो यह अपेक्षित था कि उन मुद्दों पर गम्भीरता से विचार होता।
        मीडिया की आलोचना से मैं चाहता था कि उन्हें अपने कार्यपद्धति में बदलाव लाने के लिये सहमत करूं, ना कि मैं उन्हें बर्बाद करना चाहता था। भारतीय मीडिया को बदलाव के इस दौर में ऐतिहासिक भूमिका निभानी है, और मैं उन्हें राष्ट् के प्रति उनके इसी ऐतिहासिक जिम्मेदारी का एहसास कराना चाहता था। लेकिन मेरी आलोचना को सही भाव से लेने के बजाये मीडिया के एक हिस्से द्वारा मेरे खिलाफ वास्तव में एक अभियान छेड दिया गया। जिसमें मुझे एक तानाशाह दानव के बतौर चित्रित करने की कोशिश की गयी।
 मनोरंजन पर ज्यादा जोर
 मीडिया को मुझे अपने एक शुभ चिंतक के बतौर देखना चाहिये। मैंने उसकी इसलिये आलोचना की कि मैं चाहता था कि मीडिया के लोग अपनी उन तमाम कमजोरियों को त्यागें और सम्मान का रास्ता अख्तियार करें, जिस पर यूरोपीयन प्रेस चल रहा है, जिससे उन्हें भारतीय लोगों का सम्मान हासिल हो सके। मैंने उल्लेख किया कि हमारे देश की 80 फीसद आबादी भयावह गरीबी में जी रही है, यहां भयानक बेरोजगारी है, आसमान छूती महंगाई है, स्वास्थ सेवा, शिक्षा की कमी इत्यादि और बर्बर सामाजिक रीति रिवाज मसलन ऑनर किलिंग, दहेज हत्याएं, जातीय उत्पीड़न और साम्प्रदायिकता है। इन्हें गम्भीरता से सम्बोधित करने के बजाये, हमारी मीडिया की कवरेज का 90 फीसद हिस्सा मनोरंजन को जाता है। जैसे फिल्म स्टारों की जिंदगियां, फैशन परेड, पॉप म्यूजिक, डिस्को डांस, क्रिकेट या ज्योतिष में।
    इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया को लोगो को कुछ मनोरंजन भी देना चाहिये। लेकिन अगर उनके कवरेज का 90 फीसद मनोरंजन को समर्पित रहेगा और सिर्फ 10 फीसद सामाजिक आर्थिक मामलों को, तब यही कहा जायेगा कि मीडिया का प्रार्थमिकता तय करने का विवेक खो चुकी है। जनता के सामने मुख्य सवाल सामाजिक-आर्थिक हैं और मीडिया उसका उनसे ध्यान भटका कर गैर मुद्दों जैसे फिल्म स्टार, फैशन परेड, डिस्को, क्रिकेट इत्यादि पर केन्द्रित कर रही है। मैंने इसी प्रार्थमिकता तय करने के उसके विवेक और अंधविश्वास दिखाने के लिये मीडिया की आलोचना की।

मैंने क्या कहा  
      आलोचना से न तो किसी को घबराना चाहिये और ना ही उसका बुरा मानना चाहिये। लोग मेरी जितनी चाहे उतनी आलोचना कर सकते हैं, मैं उनका बुरा नहीं मानूंगा, और हो सकता है मैं इससे लाभान्वित ही हूं। लेकिन इसी तरह मीडिया को भी अगर मैं उसकी आलोचना करता हूं  तो बुरा नहीं मानना चाहिये। क्योकि मेरा ऐसा करने का उद्धेष्य उन्हें एक बेहतर मीडियाकर्मी बनाना था।
 आलोचना करते समय बहरहाल यह जरूरी है कि विरोधी की बातों को बिना तोड़े-मरोड़े उसी के उसी रूप में रखा जाये। यही तरीका है जिसे हमारे दार्शनिकों ने भी इस्तेमाल किया है। उनको पहले अपने विरोधी के पक्ष को रखना चाहिये, जिसे पूर्वपक्षकहा जाता था।यह इतने बेहतर और बौद्धिक इमानदारी से किया जाता था कि अगर विरोधी भी वहां मौजूद हो तो वह भी अपने पक्ष को इतने बेहतर तरीके से नहीं रख सकता था। इसके बाद ही उसकी आलोचना की जाती थी। दुर्भाग्य से हमारी मीडिया अक्सर इस परिपाटी पर नहीं चलती।
बहरहाल,मैंने पूरे मीडिया के बजाये उसके बडे हिस्से पर टिप्पणी की थी। बहुत सारे मीडिया के लोग हैं जिनके लिये मेरे पास बहुत सम्मान है। इसलिये मैं यहां साफ कर दूं कि मैंने पूरी मीडिया को एक ही ब्रश से नहीं रंगा। दूसरे, मैंने यह नहीं कहा कि मीडिया का यह बहुसंख्यक हिस्सा कम पढा लिखा और जाहिल है। यह फिर से जो मैंने कहा था उसकी जानबूझ कर बिगाडी गयी प्रस्तुति है। मैंने अशिक्षितशब्द का प्रयोग ही नहीं किया था। मैंने कहा था कि अधिकतर का बौद्धिक स्तर कमजोरहै। कोई व्यक्ति भले ही बीए या एमए पास हो, लेकिन उसका बौद्धिक स्तर कमजोर हो ही सकता है।
मैंने बार-बार अपने लेखों, भाषणों और टीवी साक्षात्कारों में कहा है कि मैं मीडिया पर सख्ती के खिलाफ हूं।
      लोकतंत्र में मुद्दे सामान्यतः बातचीत से, विचार-विमश् और संवाद से हल किये जाते हैं, और यही तरीका मैं पसंद करता हूं, ना कि सख्त तौर तरीका। यदि किसी चैनल या अखबार ने कुछ गलत किया है तो मैं चाहूंगा कि उसके जिम्मेदार लोगों को बुलाऊ और उनको समझाऊ कि उन्होंने जो किया वो ठीक नहीं था। मैं विश्वास से कह सकता हूं कि 90 फीसद से अधिक मामलों में ऐसा करना पर्याप्त होगा। मेरा दृढ विचार है कि 90 फीसद लोग जो गलत कर रहे हैं उन्हें बेहतर लोगों में तब्दील किया जा सकता है।
सख्त तरीकों की जरूरत सिर्फ 5 या 10 प्रतिशत मामलों में ही पड़ेगी और वह भी जब लोकतांत्रिक तरीके बार-बार इस्तेमाल होने के बावजूद विफल हो चुके हों और यह साबित हो चुका हो कि वे इससे सुधरने वाले नहीं हैं।
मेरे इस बयान को भी विकृत किया गया और एक ऐसी गलत क्षवि बनाने की कोशिश की गयी कि मैं देष में इमरजेंसी लगाना चाहता हूं। कुछ अखबारों में कार्टून छापे गये जिसमें मुझे एक तरह से तानाशाह की तरह दर्शाया गया।
सच्चाई तो यह है कि मैं हमेशा स्वतंत्रता का हिमायती रहा हू जिसका प्रमाण मेरे द्वारा सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में दिये गये फैसले हैं। जिनमें मैं कहता रहा हूं कि जज नागरिकों की स्वतंत्रता के रक्षक हैं और अगर वे इन स्वतंत्रताओं को बनाये रखने में नाकाम होते हैं तो यह उनका अपनी जिम्मेदारी में विफल होना है। लेकिन स्वतंत्रता का मतलब अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने का लाईसेंस नहीं है। सभी स्वतंत्रतायें, जनहित में, एक ताकिर्क पाबंदी के दायरे में जवाबदेह होती हैं।

ब्राडकास्ट मीडिया द्वारा स्व नियंत्रण 

 वर्तमान में इलेक्टॉनिक मीडिया की निगरानी करने वाली कोई संस्था नहीं है। भारतीय प्रेस परिषद सिर्फ अखबारों की निगरानी करता है और यहां पर भी पत्रकारीय नैतिकता की अव्हेलना करने वालों को सजा के बतौर वह सिर्फ चेतावनी दे सकता है। मैंने प्रधान मंत्री को सिफारिश करते हुये लिखा है कि प्रेस काउंसिल ऐक्ट मे संशोधन  कर 1- इलेक्टॉनिक मीडिया को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाया जाये, और 2- प्रेस परिषद को और अधिक अधिकार और शक्ति दिया जाये।
 इलेक्टॉनिक मीडिया ने इसका तीखा विरोध किया है। वह स्वनियंत्रण की बात कर रही है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के पास भी ऐसा स्पष्ट अधिकार नहीं है। उन पर उनके गलत व्यवहार के लिये संसद में महाभियोग चलाया जा सकता है। वकील भी बार काउंसिल ऑफ इण्डिया के अधीन हैं जो उनके पेशेवर गलत आचरण पर उनका लाइसेंस सस्पेंड या कैंसिल कर सकता है। डॉक्टर मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अधीन आते हैं, जो उनका लाइसेंस सस्पेंड या कौंसिल कर सकता है। लेखाधिकारी की भी यही स्थिति है। तब फिर इलेक्टॉनिक मीडिया क्यों किसी निगरानी संस्था के अधीन आने से शर्मा रही है। यह दोहरा मापदण्ड क्यों? यदि वे भारतीय प्रेस परिषद के अधीन नहीं आना चाहते (क्योंकि वर्तमान अध्यक्ष दुष्ट है या अवांछित है) तब न्यूज ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन को बताना चाहिये कि वो किस निगरानी संस्था के अधीन आना चाहते हैं। क्या वे लोकपाल के अंर्तगत आना चाहते हैं? मैं लगातार इस सवाल को विभिन्न अखबारों में उठाता रहा हूं लेकिन मेरे इस सवाल पर एनबीए और बीइए की तरफ से पथ्थरनुमा खामोशी ही दिखाई गयी या इस सवाल को ही गैरजिम्मेदारकरार दिया गया।
टीवी न्यूज और कार्यक्रमों का हमारे समाज के व्यापक हिस्से पर प्रभाव पडता है। इसलिये मेरे हिसाब से टीवी चैनलों को भी जनता के प्रति जवाबदेह बनाना चाहिये।
यदि ब्रॉडकास्ट मीडिया स्वनियंत्रण पर जोर देती है, तब तो इसी तर्क के आधार पर राजनेताओं, अफसरशाहों और दूसरे लोगों को भी लोकपाल के दायरे में लाने के बजाये , स्वनियंत्रण का अधिकार दिया जाना चाहिये। या फिर ब्रॉडकास्ट मीडिया अपने को इतना पवित्र मानती है कि उनकी उनके सिवा कोई दूसरा निगरानी नहीं कर सकता? तब ऐसे में, पेड न्यूज क्या है, राडिया टेप इत्यादि क्या हैं? क्या यह संतों का किया-धरा है?
दरअसल, स्वनियंत्रण जैसी कोई चीज होती ही नहीं, यह एक उल्टी और अस्वाभाविक चीज है। लोकतंत्र में हर कोई जनता के प्रति उत्तरदायी होता है-इसलिये मीडिया भी है।

अनुवादक - शाहनवाज आलम स्वतंत्र पत्रकार/संगठन सचिव पीयूसीएल, यूपी
                                                                      द्वारा मो शोएब,    एडवोकेट
                                दुकान नं-2, लोवर ग्राउंड फ्लोर
                          एसी मेडिसिन मार्केटनया गांव- इस्ट
                                लाटूश रोडलखनउउत्तर प्रदेश
                                      मो- 9415254919




































सोमवार, 19 दिसंबर 2011

मैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपको -शायर अदम गोंडवी


अलविदा अदम ...

उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में परसपुर के आटा ग्राम में 22 अक्टूबर, 1947 को जन्मे अवामी शायर अदम गोंडवी  (मूल नाम- रामनाथ सिंह) ने 18 दिसम्‍बर, 2011 को सुबह करीब पांच बजे पी. जी. आई, लखनऊ में अंतिम साँसे लीं। पिछले कुछ समय से वह लीवर की बीमारी से जूझ रहे थे। अदम गोंडवी ने अपनी ग़ज़लों को जन-प्रतिरोध का माध्यम बनाया। उन्होंने इस मिथक को अपने कवि-कर्म से ध्वस्त किया कि यदि समाज में बड़े जन-आन्दोलन नहीं हो रहे हों तो कविता में प्रतिरोध की ऊर्जा नहीं आ सकती। सच तो यह है कि उनकी ग़ज़लों ने बेहद अँधेरे समय में तब भी बदलाव और प्रतिरोध की ललकार को अभिव्यक्त किया जब संगठित प्रतिरोध की पहलकदमी समाज में बहुत क्षीण रही। जब-जब राजनीति की मुख्यधारा ने जनता से दगा किया, अदम ने अपने साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल साबित किया।

अदम गोंडवी आजीविका के लिए मुख्यतः खेती-किसानी करते थे। उनकी शायरी को इंकलाबी तेवर निश्चय ही वाम आन्दोलनों के साथ उनकी पक्षधरता से प्राप्त हुआ था। अदम ने समय और समाज की भीषण सच्चाइयों से, उनकी स्थानीयता के पार्थिव अहसास के साक्षात्कार लायक बनाया ग़ज़लको। उनसे पहले ‘चमारों की गली’ में ग़ज़ल को कोई न ले जा सका था।

‘मैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपको’ जैसी लम्बी कविता न केवल उस ‘सरजूपार की मोनालिसा’ के साथ बलात्कार, बल्कि प्रतिरोध के संभावना को सूंघकर ठाकुरों द्वारा पुलिस के साथ मिलकर दलित बस्ती पर हमले की भयानकता की कथा कहती है। ग़ज़ल की भूमि को सीधे-सीधे राजनीतिक आलोचना और प्रतिरोध के काबिल बनाना उनकी ख़ास दक्षता थी-

जुल्फ- अंगडाई - तबस्सुम - चाँद - आईना -गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब
इस सदी की तिश्नगी का ज़ख्म होंठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब

भुखमरी, गरीबी, सामंती और पुलिसिया दमन के साथ-साथ उत्तर भारत में राजनीति के माफियाकरण पर हाल के दौर में सबसे मारक कवितायेँ उन्होंने लिखीं। उनकी अनेक पंक्तियाँ आम पढ़े-लिखे लोगों की ज़बान पर हैं-

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

उन्होंने साम्प्रदायिकता के उभार के अंधे और पागलपन भरे दौर में ग़ज़ल के ढाँचे में सवाल उठाने, बहस करने और समाज की इस प्रश्न पर समझ और विवेक को विकसित करने की कोशिश की-

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

इन सीधी अनुभवसिद्ध, ऐतिहासिक तर्क-प्रणाली में गुंथी पंक्तियों में आम जन को साम्प्रदायिकता से आगाह करने की ताकत बहुत से मोटे-मोटे उन ग्रंथों से ज़्यादा है जो सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने रचे। अदम ने सेकुलरवाद किसी विश्विद्यालय में नहीं सीखा था, बल्कि ज़िंदगी की पाठशाला और गंगा-जमुनी तहजीब के सहज संस्कारों से पाया था।

आज जब अदम नहीं हैं तो बरबस याद आता है कि कैसे उनके कविता संग्रह बहुत बाद तक भी प्रतापगढ़ जैसे छोटे शहरों से ही छपते रहे, कैसे उन्होंने अपनी मकबूलियत को कभी भुनाया नहीं और कैसे जीवन के आखिरी दिनों में भी उनके परिवार के पास इलाज लायक पैसे नहीं थे। उनका जाना उत्तर भारत की जनता की क्षति है, उन तमाम कार्यकर्ताओं की क्षति है जो उनकी गजलों को गाकर अपने कार्यक्रम शुरू करते थे और एक अलग ही आवेग और भरोसा पाते थे, ज़ुल्म से टकराने का हौसला पाते थे, बदलाव के यकीन पुख्ता होता था। इस भीषण भूमंडलीकृत समय में जब वित्तीय पूंजी के नंगे नाच का नेतृत्व सत्ताधारी दलों के माफिया और गुंडे कर रहे हों, जब कारपोरेट लूट में सरकार का साझा हो, तब ऐसे में आम लोगों की ज़िंदगी की तकलीफों से उठने वाली प्रतिरोध की भरोसे की आवाज़ का खामोश होना बेहद दुखद है, अदम गोंडवी को जन संस्कृति मंच अपना सलाम पेश करता है।

(जन संस्कृति मंच की ओर से महासचिव प्रणय कृष्ण द्वारा जारी)

बुधवार, 13 जुलाई 2011

दलित राजनीति : शिकायत दूर, आपत्ति नहीं

अनिल चमड़िया
लेखक








दलित राजनीति: शिकायत दूर, आपत्ति नहीं
दलित राजनीति: शिकायत दूर, आपत्ति नहीं
उत्तर प्रदेश से आने वाली खबरों की भाषा इन दिनों इस तरह शुरू होती है-
'दलित मुख्यमंत्री के राज में दलितों के साथ यह हो रहा है, वह हो रहा है." आखिर ऐसी भाषा का प्रयोग किसी दलित के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही क्यों होता है और यह कितना उचित है ? ऐसी भाषा का प्रयोग करने के पीछे जो समझ काम करती है उसे एक पत्रकार की वर्षों पुरानी एक प्रतिक्रिया से समझने की कोशिश की जा सकती है.

1979 में जब मोराईजी देसाई के नेतृत्ववाली सरकार का पतन हो गया तब राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को सरकार के लिए नये नेतृत्व को आमंत्रित करना था. जनता पार्टी के अध्यक्ष के रूप में चंद्रशेखर सांसदों की सूची तैयार कर रहे थे. उसी वक्त जगजीवन बाबू को पता चला कि रेड्डी ने चौधरी चरण सिंह को सरकार बनाने के लिए न्योत दिया है. तब जगजीवनबाबू ने प्रतिक्रिया व्यक्त की कि 'वे हरिजन हैं इसीलिए उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया."

जिस पत्रकार का जिक्र किया गया है उन्होंने जगजीवन बाबू की इस प्रतिक्रिया के जवाब में कहा कि यही हैं जिन्होंने कुछ समय पूर्व विदेश के एक संवाददाता को उन्हें हरिजन नेता सम्बोधित करने पर फटकारा था और कहा था कि वे हरिजन नेता नहीं बल्कि देश के नेता हैं. इसे जगजीवन बाबू के अंतर्विरोधी विचार के बतौर प्रकट करने की कोशिश की जा रही थी. जबकि क्या वास्तव में ये दोनों बातें अपनी-अपनी जगह पर सही नहीं हैं? दोनों तरह की प्रतिक्रियाओं में अंतर्विरोध नहीं है. बाबू जगजीवन राम की दलित होने के कारण प्रधानमंत्री नहीं बनाये जाने की शिकायत को तो यह वर्णवादी समाज में दलितों के प्रति दुराग्रह को जाहिर कर रहे हैं.
यही मानसिकता उनके दलित परिवार में पैदा होने के कारण उन्हें दलित नेता के रूप में सम्बोधित करती है. आखिर जब कोई सवर्ण परिवार में जन्मा नेता दलितों की बात करता है तो उसे दलित नेता क्यों नहीं कहा जाता है क्योंकि वह सवर्ण है. लेकिन जब दलित परिवार में जन्मा नेता दलितों की बात करता है तो आमतौर पर उसे दलित नेता के रूप में ही सम्बोधित किया जाता है. इसके अलावा जब सवर्ण परिवार में जन्मा नेता सवर्णों के हितों की राजनीति करता है तो उसे जाति व वर्ण विशेष नेता के रूप में सम्बोधित कहां किया जाता है? दलितों के अलावा समाज के दूसरे कमजोर और पिछड़े वर्गों की पृष्ठभूमि के साथ भी इसी तरह सम्बोधन किया जाता है. मुस्लिम पृष्ठभूमि के वैसे नेताओं को राष्ट्रवादी कहा जाता है जो कि मुस्लिम हितों के लिए और उनकी अपेक्षाओं के पूरा नहीं होने की शिकायत कम करते हैं.

भाषा का रिश्ता राजनीति से होता है. उसे एक राजनीतिक औजार के रूप में बरता जाता है. अंतर्चेतना में सक्रिय पूर्वाग्रह को भाषा के जरिये अभिव्यक्त होने से रोकना सम्भव नहीं हो पाता है. उत्तर प्रदेश में मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाओं के लिए दलित को ही क्यों कटघरे में खड़ा किया जाता है. उत्तर प्रदेश में जितनों ने भी सरकार का नेतृत्व किया है उन सभी के शासनकाल में दलितों के साथ अत्याचार की घटनाएं घटी हैं. सामाजिक स्तर पर भी और प्रशासनिक स्तर पर भी. लेकिन उन घटनाओं की खबर की भाषा नेतृत्व की जाति को कटघरे में खड़ा नहीं करती है.

सरकार की विफलता के रूप में दर्ज करने की भाषा रही है. मायावती के शासनकाल में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की खबर की भाषा के जातीय रूप में बदलने का क्या तर्क हो सकता है? बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने दलितों को राजनीतिक तौर पर जागरूक किया और इस तरह से किया जिसकी कड़ी डॉ.अम्बेडकर की राजनीतिक धारा से जुड़ती है. मायावती कांशीराम की उत्तराधिकारी हैं. वे भी कांशीराम के स्वर में तो स्वर मिलाती रही हैं. भारतीय समाज में दलितों के भीतर आत्मविश्वास को जगाने का काम कई तरह के नेतृत्व ने अपने-अपने तरीके से किया है. लेकिन डॉ. अम्बेडकर के बाद कांशीराम ने ही संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक नेतृत्व लेने का आत्मविश्वास दलितों के बीच विकसित किया है. बराबरी हासिल करना एक राजनीतिक दर्शन है.

आधुनिक राजनीति में समाजवाद और लोकतंत्र ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का आधार है. भारतीय समाज में समाजवाद के लिए सामाजिक और आर्थिक स्तर पर कमजोर वर्गों को उठाना ही राजनीति का लक्ष्य रहा है. यहां हर किसी को दलित हितों की बात करनी ही है. क्या महात्मा गांधी दलितों की बात नहीं करते तो वे अंग्रेजी सरकार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व कर पाते? क्या कांग्रेस दलितों के हित की बात नहीं करती तो वह इतने लम्बे समय तक सत्ता में बनी रह सकती थी? राजनीति में फर्क ये आया कि कांशीराम ने संसदीय नेतृत्व अपने हाथों में लेने का आह्वान किया और हासिल किया. सत्ता में हिस्सेदारी के बजाय सत्ता का नेतृत्व लेने का आह्वान क्या जातिवादी होने का पर्याय है?

भारतीय समाज के लिए जो संसदीय व्यवस्था बनी है उसमें सत्ता के लिए जाति एक प्रमुख घटक के रूप में सक्रिय रहती है. दूसरी तरफ यह भी उतना ही सत्य है कि कोई एक जाति अपने मतों के बूते सत्ता में नहीं आ सकती है. जातियों का गठबंधन ही सत्तासीन बना सकता है. मायावती ने भी अपने नेतृत्व में सर्वजन हिताय का नारा देकर सत्ता की कमान संभाली है लेकिन फिर भी वे दलित नेता के ही रूप में सम्बोधित की जाती हैं. दलित के उत्पीड़न के लिए सरकार और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था को जिम्मेदार बनाने के बजाय दलित को ही जिम्मेदार ठहराने की भाषा उत्तर प्रदेश की घटनाओं के साथ सक्रिय देखी जाती है.

मुख्यमंत्री मायावती भी ऐसी भाषा और नजरिये के प्रति अपनी शिकायत दर्ज करवाने में सफल हो जाती हैं. ऐसी भाषा का असल मकसद भारतीय समाज में दलितों को उत्पीड़न के समाजशास्त्र से बाहर निकालने का नहीं होता है. दरअसल, सत्ता पर काबिज होने या सत्ता से बेदखल करने के बीच की लड़ाई की भाषा और बराबरी के दर्शन में आस्था रखने की भाषा में बुनियादी फर्क होता है. संसदीय राजनीति में पूरा कारोबार सत्ता पर काबिज होने और बेदखली से जुड़ा होता है.
कमजोर वर्गों के खिलाफ जातिवादी भाषा का इस्तेमाल सत्ता पर वर्चस्व बनाये रखने का हथियार रहा है. यही हथियार उनके खिलाफ संसदीय सत्ता की लड़ाई में भी इस्तेमाल होता है. बाबू जगजीवन राम ने जो शिकायत और आपत्ति की थी वह शिकायत मुख्यमंत्री के रूप में मायावती ने तो खुद दूर की है लेकिन वह आपत्ति अब भी बरकरार है.

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

सबूत नहीं मिले और छूट गया रणवीर सेना का कमांडर

 नवल किशोर

1994 से लेकर 2002 तक करीब 287 लोगों की हत्या का मुख्य आरोपी ब्रह्मेश्वर मुखिया सबूतों के अभाव में बरी हो गया। 9 वर्षों के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सामंतों के प्रति वफादारी के कारण शुक्रवार को जैसे ही ब्रह्मेश्‍वर मुखिया जेल से बाहर निकला, हजारों लोगों ने उसका जयघोष कर स्वागत किया। 70 लग्जरी गाड़ियों और करीब 500 मोटरसाइकिल सवारों के काफिले के साथ जीवित राक्षस का पर्याय बन चुका कुख्यात मुखिया भोजपुर जिले के संदेश प्रखंड के खोपिरा नामक अपने पैतृक गांव पहुंचा। इससे पहले संदेश पहुंचने पर हजारों लोगों ने मुखिया का स्वागत किया। इस मौके पर उपस्थित लोगों ने उसे एक हजार राइफलों की सलामी दी। करीब तीन घंटे तक लोगों ने बिहार पुलिस की उपस्थिति में उसकी शान में फायरिंग की।
ब्रह्मेश्‍वर मुखिया ने सबसे पहले अपने ही गांव खोपिरा में रक्तपात मचाया था। यही वजह रही कि शुक्रवार को उसके खोपिरा पहुंचने पर जहां गांव के सामंतों ने जमकर खुशियां मनायी, वहीं गांव के दूसरे हिस्से में श्मशानी शांति पसरी थी। अनहोनी की आशंका को देखते हुए पुलिस ने करीब 15 दिन पहले ही खोपिरा के गरीबों के इलाके में एक अस्थायी पुलिस पिकेट की व्यवस्था कर दी थी। यह इस बात का सबूत है कि मुखिया को राज्य सरकार के इशारे पर ही कोर्ट ने जमानत दी है। यदि ऐसा नहीं होता, तो आनन-फानन में पिछड़ों और दलितों के इलाके में पिकेट नहीं बनाया जाता। खोपिरा के निवासी मंगल मांझी ने बताया कि मुखिया ने पहली बार 29 अप्रैल 1995 को ब्रह्मेश्‍वर मुखिया की मौजूदगी में उसके इशारे पर रणवीर सेना के राक्षसों ने 5 दलितों की हत्या कर दी। मारे गये लोगों मे से एक उसके अपने पिता थे।
लितों, पिछड़ों और गरीबों की राजनीति करने वाले बिहार के किसी भी राजनेता ने इस संबंध में कोई विरोध दर्ज नहीं कराया। सबसे बड़ा आश्चर्य यह कि गरीबों के नाम पर जान लेने और देने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी ब्रह्मेश्‍वर मुखिया के नाम पर चुप्पी साध ली। हालांकि इस संबंध में भाकपा माले के कार्यालय सचिव संतोष सहर ने बताया कि रविवार को उनके दल के वरिष्ठ नेताओं की बैठक होनी है। इस बैठक में ब्रह्मेश्‍वर मुखिया को राज्य सरकार द्वारा दी गयी आजादी के संबंध में गहन विचार-विमर्श किया जाएगा।
मालूम हो कि ब्रह्मेश्‍वर सिंह वह व्यक्ति है, जिसने 22 बार दलितों और पिछड़ों को मौत के घाट उतारा। इसके इशारे पर दलितों और पिछड़ों की बच्चियों के साथ बलात्कार किया गया। सैकड़ों मासूमों की गर्दन एक झटके से उड़ा देने वाले रणवीर सेना का मास्टरमाइंड ब्रह्मेश्वर मुखिया खुलेआम कहता था कि दलितों और पिछड़ों के बच्चों को मारकर उसने और उसके साथियों ने कोई गलती नहीं की। बड़े होने पर वे नक्सली ही बनते। महिलाओं का बलात्कार कर उन्हें जान से मार देने वाले इस दरिंदे का कहना था कि ये महिलाएं नक्सलियों को जन्म देतीं, इसलिए इनका मारा जाना अनिवार्य है।
अदालत ने ब्रह्मेश्‍वर सिंह को 22 में से 16 मामलों में पहले ही बरी कर दिया था और पांच मामलों में इसे जमानत मिल चुकी थी। कल इस दरिंदे को अदालत ने एक और मामले में जमानत दे दी। इस प्रकार ब्रह्मेश्वर मुखिया को जेल से बाहर आने की अनुमति मिल गयी।
यह कानून का मजाक नहीं तो और क्या है? जिसने 300 लोगों की हत्या कर दी, जिसने बाथे नरसंहार जैसी निंदनीय घटनाओं को अंजाम दिया, उस राक्षस के खिलाफ सरकार को कोई सबूत नहीं मिला। कानून के कई जानकार यह बताते हैं कि सरकार ने अपनी ओर से ब्रह्मेश्‍वर मुखिया के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। वर्ष 2006 से वह बिहार के विभिन्न जेलों में सरकारी मेहमान के रूप में रह रहा था। दलितों और पिछड़ों का खून पीने वाले इस शख्‍स को बिहार सरकार की ओर से वह हर सुविधा हासिल थी, जो एक राजनीतिक कैदी को मिलती है। यानी बिहार सरकार की नजर में वह दलितों और पिछड़ों का कातिल नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्यकर्ता था।
पने मूल स्वभाव के अनुसार नीतीश कुमार ने अपनी वफादारी साबित करते हुए ब्रह्मेश्वर मुखिया के खिलाफ कोई सबूत न पेशकर अपनी स्वामीभक्ति साबित कर दी। हालांकि यह दूसरा अवसर था, जब नीतीश कुमार ने ब्रह्मेश्वर मुखिया और इनके खूनी सेना यानी रणवीर सेना अर्थार्त भूमिहार सेना के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करते हुए जनवरी 2006 में ही अमीरदास आयोग को भंग कर दिया। अमीरदास आयोग का गठन तत्कालीन राजद सरकार ने रणवीर सेना के कारनामों को जगजाहिर करने के लिए किया था। जस्टिस अमीरदास भी मानते हैं कि उनकी ओर से सारी कार्रवाई पूरी हो चुकी थी, केवल रिपोर्ट देना ही शेष रह गया था। लेकिन इससे पहले कि मौत के दरिंदे और इसकी खूनी सेना का काला सच लोगों के सामने आ पाता, नीतीश कुमार ने उस आयोग को ही भंग कर दिया।
रीब 300 दलितों और पिछड़ों की हत्या करने वाले ब्रह्मेश्‍वर मुखिया का कहना है कि नीतीश कुमार बिहार में अच्छा काम कर रहे हैं। 9 सालों के बाद नीतीश कुमार की विशेष कृपा के कारण जेल से बाहर निकले मुखिया का आरा जेल के बाहर हजारों लोगों की भीड़ ने फूल-माला के साथ स्वागत किया। इस अवसर पर अपने पुराने रंग दिखाते हुए इस खूनी भेड़िये ने मुस्कराते हुए कहा कि नीतीश कुमार बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। सैकड़ों लोगों की निर्मम हत्या का जिम्मेवार ब्रह्मेश्‍वर मुखिया ने कहा कि उसे कानून पर पूरा भरोसा है।
ब्रह्मेश्वर मुखिया और रणवीर सेना का काला इतिहास
बिहार में ब्रह्मेश्‍वर मुखिया ने वर्ष 1994 के अंत रणवीर सेना यानि भूमिहार सेना का गठन किया था। इस सेना के गठन का एकमात्र उद्देश्य था – दलितों और पिछड़ों की आवाज को कुंद करना। इस सेना ने 29 अप्रैल 1995 को भोजपुर जिले के संदेश प्रखंड के खोपिरा में पहली बार कहर बरपाया। इस दिन ब्रह्मेश्‍वर मुखिया की मौजूदगी में उसके इशारे पर रणवीर सेना ने 5 दलितों की हत्या कर दी। इसके बाद करीब 3 महीने बाद रणवीर सेना ने भोजपुर जिले के ही उदवंतनगर प्रखंड सरथुआं गांव में 25 जुलाई 1995 को 6 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी। इस घटना को अंजाम देने के ठीक 10 दिन बाद ही रणवीर सेना ने 5 अगस्त 1995 को भोजपुर के बड़हरा प्रखंड के नूरपुर गांव में हमला कर 6 लोगों की हत्या कर दी। घटना को अंजाम देने के बाद गांव की 4 महिलाओं का अपहरण कर लिया गया और सभी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार करने के बाद उनका कत्ल कर दिया गया। मारी गयी इन महिलाओं में एक 13 साल की बच्ची भी शामिल थी। पुलिसिया रिकार्ड में यह आज भी दर्ज है कि इस बच्ची का बलात्कार किसी और ने नहीं, बल्कि ब्रह्मेश्वर मुखिया ने ही कि था और अपना मुंह काला करने के बाद इसी दरिंदे ने उसके जननांग में गोली मारकर उसकी हत्या कर दी थी।
7 फरवरी 1996 को रणवीर सेना के दरिंदों ने एक बार फिर भोजपुर जिले के चरपोखरी प्रखंड के चांदी गांव में हमला कर 4 लोगों की हत्या कर दी। इसके बाद 9 मार्च 1996 को भोजपुर के सहार प्रखंड के पतलपुरा में 3, 22 अप्रैल 1996 को सहार प्रखंड के ही नोनउर नामक गांव में रणवीर सेना ने 5 लोगों की हत्या कर दी। सहार में रणवीर सेना का खूनी तांडव रुका नहीं। 5 मई 1996 को नाढी गांव में 3 लोगों की हत्या करने के बाद रणवीर सेना ने 19 मई यानि ठीक 14वें दिन एकबार फिर नाढी गांव पर कहर बरपाया और 3 और लोगों की हत्या कर दी। 25 मई 1996 को रणवीर सेना ने उदवंतनगर के मोरथ नामक गांव में 3 लोगों की हत्या कर दी। यानी 29 अप्रील 1995 से लेकर 25 मई 1996 तक के बीच रणवीर सेना ने कुल 38 लोगों की हत्या कर दी।
इसके बाद 11 जुलाई 1996 के दिन पूरा बिहार कांप उठा था। वजह यह थी कि आज के नीतीश कुमार के भगवान यानि ब्रह्मेश्‍वर मुखिया के नेतृत्व में रणवीर सेना ने भोजपुर जिले के सहार प्रखंड के ही बथानी टोला नामक दलितों और पिछड़ों की बस्ती पर हमला बोलकर 21 लोगों की गर्दन रेतकर हत्या कर दी। इस घटना को अंजाम देने के बाद रणवीर सेना ने 25 नवंबर 1996 को सहार के पुरहारा में 4, 12 दिसंबर 1996 को संदेश प्रखंड के खनेऊ में 5, 24 दिसंबर 1996 को सहार के एकवारी गांव में 6, और 10 जनवरी 1997 को तरारी प्रखंड के बागर नामक गांव में 3 लोगों की हत्या कर दी गयी। इस प्रकार बिहार में मौत का नंगा नाच नाचने वाले रणवीर सेना ने केवल भोजपुर जिले में कुल 77 लोगों की निर्मम हत्या की थी।
वर्ष 1997 में रणवीर सेना ने भोजपुर जिले के बाहर कदम रखा और 31 जनवरी 1997 को जहानाबाद के मखदूमपुर प्रखंड के माछिल गांव में 4 दलितों की हत्या कर दी। इस घटना को अंजाम देने के बाद रणवीर सेना का हौसला इस कदर बढ़ा कि उसने पटना जिले के बिक्रम प्रखंड के हैबसपुर नामक गांव में 10 लोगों की हत्या कर दी। इस घटना को रणवीर सेना ने 26 मार्च 1997 को अंजाम दिया। इसके बाद 28 मार्च 1997 को ही जहानाबाद के अरवल प्रखंड (वर्तमान में अरवल जिला बन चुका है) के आकोपुर में 3, भोजपुर के सहार प्रखंड के एकवारी गांव में 10 अप्रैल 1997 को 9 और भोजपुर जिले के चरपोखरी प्रखंड के नगरी गांव में 11 मई 1997 को 10 लोगों की हत्या रणवीर सेना ने कर दी।
2 सितंबर 1997 को रणवीर सेना के दरिंदों ने जहानाबाद के करपी प्रखंड के खडासिन नामक गांव में 8 और 23 नवंबर 1997 को इसी प्रखंड के कटेसर नाला गांव में 6 लोगों की निर्मम हत्या कर दी गयी। इसके बाद 31 दिसंबर 1997 को ब्रह्मेश्‍वर मुखिया की उपस्थिति में रणवीर सेना ने जहानाबाद के लक्ष्मणपुर-बाथे नामक गांव में एक साथ 59 लोगों की निर्मम हत्या कर दी। यह बिहार में हुआ अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक नरसंहार है। पाठकों को बता दें कि इस नरसंहार के मामले में कुल 18 लोगों को आजीवन उम्रकैद की सजा दी गयी है। जबकि मुख्य अभियुक्त ब्रह्मेश्‍वर मुखिया को इस मामले में बरी कर दिया गया और इसका श्रेय भी रणवीर सेना के दलाल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही जाता है।
खैर, 25 जुलाई 1998 को जहानाबाद के करपी प्रखंड के रामपुर गांव में एक बार फिर रणवीर के दरिंदों ने मौत का खेल खेला और तीन लोगों की जान ले ली। 25 जनवरी 1999 को रणवीर सेना ने जहानाबाद में एक और बड़े नरसंहार को अंजाम दिया। जहानाबाद के अरवल प्रखंड के शंकरबिगहा नामक गांव में 23 लोगों की हत्या कर दी गयी। इसके बाद 10 फरवरी 1999 को जहानाबाद के नारायणपुर में 12, 21 अप्रैल 1999 को गया जिले के बेलागंज प्रखंड के सिंदानी नामक गांव में 12, 28 मार्च 2000 को भोजपुर के सोनबरसा में 3, नोखा प्रखंड के पंचपोखरी में 3 और 16 जून 2000 को रणवीर सेना ने औरंगाबाद जिले के गोह प्रखंड के मियांपुर गांव में 33 लोगों की सामूहिक हत्या कर दी।
यह सच्चाई है उस रणवीर सेना की और उस व्यक्ति की, जिसने रणवीर सेना को जन्म दिया। यह उस व्यक्ति की भी सच्चाई है, जिसे ब्रह्मेश्वर मुखिया के नाम से जाना जाता है और इस दरिंदे को नीतीश सरकार ने न सिर्फ मेहमान बनाकर रखा, बल्कि सारे कानून ताक पर रखते हुए उसे जेल से बाहर निकाला।
मौत के दरिंदों की दरिंदगी का एक नमूना
16जून 2000… स्थान औरंगाबाद जिला के गोह प्रखंड का मियांपुर गांव। इस गांव में अधिकांश लोग यादव जाति के हैं। रात के करीब सवा सात बजे सैंकड़ों की संख्या में आये रणवीर सेना के दरिंदों ने गांव को घेर लिया। करीब पौने आठ बजते-बजते दरिंदों ने गांव से बाहर निकलने के सारे रस्ते बंद कर दिये। इसके बाद रणवीर के से करीब 50 दरिदों ने हर घर में घुसकर कत्लेआम मचाया। जो जहां था, उसे वैसे मार दिया। इनकी हैवानियत का एक नमूना यह कि इस घटना में कुल 33 लोग मारे गये। इसमें 20 महिलाएं, 4 बच्चे और केवल 9 वयस्क पुरुष थे।
सुशील मोदी की उलटी वाणी
ब्रह्मेश्‍वर मुखिया के जेल से बाहर निकलने पर अपनी प्रतिक्रिया में उपमुख्‍यमंत्री सुशील मोदी ने कहा है कि इसके लिए राजद जिम्मेवार है। जबकि हकीकत यह है कि वर्ष 2002 में राजद सरकार ने ही इंसान के नाम पर राक्षक ब्रह्मेश्वर मुखिया को जेल के अंदर डाला था और तब जाकर सूबे में रणवीर सेना का खात्मा हो सका। राजद सरकार ने ही अमीरदास आयोग का गठन किया था, जिसे नीतीश कुमार ने भूमिहारों के प्रति अपनी वफादारी दिखाते हुए सत्ता में आने के ठीक एक महीने के अंदर ही भंग कर दिया।
(नवल किशोर कुमार। बिहार की पत्रकारिता में युवा सजग चेहरा। प्रतिरोध की खबरों के संयोजक। दैनिक आज के पटना संस्‍करण से जुड़े हैं। उनसे editor@apnabihar.org पर संपर्क किया जा सकता है।)

'जय भीम' बोलना बंद करें दलित- अनिल चमडिया


Written by अशोक दास   

बिहार के एक मरवाड़ी परिवार में जन्में अनिल चमडिया के पिता चाहते थे कि उनका बेटा चार्टेड अकाउंटेंट बने. लेकिन चमडिया की किस्मत चुपचाप उनके लिए एक अलग राह तैयार कर रही थी. गैरबराबरी से लड़ाई की राह. समय का चक्र घूमता गया और चमडिया ने एक दिन खुद को इस राह पर खड़ा पाया. सन 1991, जुलाई की बात है, जब ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, पटना ने उनके बारे में एक आर्टिकल लिखा. शीर्षक था ‘No Armchair Journalist’.  दो दशक बाद भी इस स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है. आज भी वह आपको दिल्ली और देश के कई हिस्सों में उसी शिद्दत से अपनी बात कहते मिल जाएंगे. दलित न होते हुए भी जिन कुछ खास लोगों ने दलित हित की आवाज को मजबूती से उठाया है, अनिल चमडिया उनमें प्रमुख हैं. तकरीबन तीन दशक पहले उन्होंने लेखन और एक्टिविज्म के जरिए गैरबराबरी का जो विरोध शुरू किया था. वह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. इस लड़ाई में अतिसक्रियता के कारण उन्हें कई बार विरोध का भी सामना करना पड़ा. समाज का एक तबका उनपर स्वार्थवश दलित राग अलापने का आरोप तक लगाता है. लेकिन चमडिया इन सबसे बेपरवाह, बिना विचलित हुए अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं. वर्तमान समय में दलित आंदोलन, राजनीतिक व्यवस्था, राजनीति में दलितों की स्थिति और अंबेडकर सहित तमाम मुद्दों पर दलितमत.कॉम के आपके मित्र अशोक दास ने उनसे बातचीत की. बातचीत लंबी होने के कारण इसे दो भाग में दिया जाएगा. पेश है पहला भाग...
भाग-एक
आपका जन्म कहां हुआ, किस परिवार में, शिक्षा-दीक्षा कहां हुई?
- बिहार में सासाराम एक शहर है, मेरा जन्म वहां हुआ. जन्म का साल 1962 है और तिथि शायद 27 अक्तूबर है. ‘शायद’ इसलिए क्योंकि मेरे जन्म का कोई ऐसा लिखित प्रमाणनहीं है. मेरा परिवार एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार था. हालांकि अब स्थिति अच्छी हो गई है. मेरी पढ़ाई-लिखाई थोड़ी डिस्टर्ब रही. गुरुद्वारा का एक स्कूल था, हम वहीं पर जाते थे. भारती मंदिर स्कूल का नाम था. सातवी तक हम यहीं पढ़े. मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं शहर से बाहर जाकर पढ़ूं लेकिन उसी समय उनको दिल का दौरा पड़ गया. उस जमाने में यह बहुत बड़ी बीमारी थी. घर में सबसे बड़े हम ही थे, तो शहर जाना नहीं हो पाया. मेरी हाई स्कूलींग जो है, वो नहीं हो पाई. आठवीं की परीक्षा प्राइवेट दी. नौवीं में जरूर एक साल के लिए पब्लिक स्कूल में पढ़ाई की. फिर मैनें बोर्ड की परीक्षा (तब ग्यारवीं में होती थी) दी. हालांकि हम अपने शहर में बहुत अधिक दिनों तक नहीं रहे. शुरू से ही विषय कार्मस था. 82 में ग्रेजुएशन पास करने के तुरंत बाद मेरा लिखना शुरू हो गया था. आपको पता होगा, तब बिहार में आरक्षण को लेकर काफी लड़ाई चल रही थी. तब हम कॉलेज में थे. हमने उसमें भागीदारी की. उसे लीड किया. हालांकि 74 के आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. उम्र छोटी थी लेकिन मुझे याद है हमलोग स्टेशन पर चले आए थे, गाड़ियां रोकी थी. उसी समय एक राजनीतिक रुझान बनना शुरू हो गया था. लेकिन 82 के बाद हम शहर में नहीं रह पाएं. फिर पटना चले आएं. यहां कुछ दिनों तक सामाजिक न्याय की राजनीति से जुड़े रहे, फिर समाज में बुनियादी परिवर्तन की राजनीति से जुड़े रहे. तो ये सब काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. लेकिन लेखन और एक्टिविज्म ये शुरू से साथ-साथ चलता रहा.
अपने नाम के साथ ‘चमडिया’ कब जोड़ा, इसकी क्या वजह थी?
- जोड़ा नहीं, चमडिया तो हमारे परिवार में लोग लगाते हैं. इसकी क्या वजह थी हमें नहीं मालूम. यहां हम एक बात कोट कर सकते हैं, ‘प्रभाष जोशी एक संपादक थे जनसत्ता के, काफी मशहूर. उन्होंने एक बार हमारे एक दोस्त हैं शेखर जो कि अभी पटना में हैं और काफी अच्छे कहानीकार माने जाते हैं. तो राजेंद्र भवन में एक कार्यक्रम चल रहा था. शायद किसी किताब का विमोचन था. प्रभाष जोशी भी आए थे. उन्होंने हमारे दोस्त से पूछा कि आप जानते हैं कि आपके मित्र अनिल चमडिया,‘चमडिया’क्यों लगाते हैं? हमारे दोस्त ने कहा कि मुझे कभी पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. तब प्रभाष जोशी ने हमारे दोस्त को बताया कि इनके जो पूर्वज थे वो चमड़े का कारोबार करते थे. इसकी वजह से ये लोग अपनी टाइटिल चमड़िया लगाते हैं. ’वो खुद को राजस्थान का मानते थे और हालांकि मैं जानता नहीं लेकिन मेरा परिवार भी शायद वहां से आया होगा. क्योंकि एक बार मैं इंटरनेट पर सर्च कर रहा था कि चमड़िया टाइटिल कहां-कहां कौन लिखता है. तो कुछ क्रिश्चियन नाम जैसा देखा, पाकिस्तान के कुछ मुस्लिम नाम जैसा देखा, गुजरात में देखा. तो कई तरह के और जगह के लोग इस टाइटिल का इस्तेमाल करते थे.
यानि यह टाइटिल आपके साथ शुरू से रहा?
- हां, शुरू से रहा. इसके चलते हमें परेशानियां भी होती थी. क्योंकि जिस शहर में हमलोग थे वो बहुत छोटा शहर था. हमारे कॉलेज में भी लोग हमको बड़ी अजीब तरीके से पुकारते थे. चमड़ी-चमड़ी ही कहते थे, चमड़िया कोई नहीं कहता था. बहरहाल हमने कभी इसके जड़ में जाने की जरूरत इसलिए महसूस नहीं की क्योंकि टाइटिल स्थाई नहीं होते हैं. टाइटिल बदलते रहते हैं. जैसे हमारे ही परिवार में अब एक फर्क आ गया. मेरे भाई ड़ लिखते हैं, हम ड लिखते हैं. तो इसमे मैं कभी डीप में नहीं गया कि क्या कारण हैं. मैं केवल इतना जानता हूं कि इस परिवार में पैदा हुआ हूं, यह टाइटिल मिला है और इसे लेकर चलना है.
आपके दलितवादी होने की वजह क्या थी. आप खुद को कब से दलितवादी मानने लगे?
- समाज में दलित क्या हैं? वह उत्पीड़न के शिकार हैं, गैरबराबरी के शिकार हैं और इसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है. कोई तर्क नहीं है कि ऐसा क्यों? तो एक तरह से यह एक अन्याय का स्वरूप है. मैं यह मानता हूं कि बुनियादी तौर पर मनुष्य अन्याय विरोधी होता है. जब भी वो असमानता और गैरबराबरी देखता है तो उसकी मनोवस्था विचलित होती है. वह परेशान होता है. व्यवस्था विरोधी उसकी चेतना होती है. होता यह है कि आपके भीतर वो जो चेतना होती है, उसे विस्फोट करने का मौका मिल जाता है. अब पता नहीं यह संयोग रहा या फिर क्या था कि बचपन से ही हमारे भीतर भी यह चेतना थी. स्कूलों में भी मेरी लड़ाई कई स्तरों पर होती थी. तो आपका जो यह प्रश्न है कि दलितवादी मैं कब से हुआ  तो मैं इसकी कोई तिथि नहीं बता सकता. कोई फेज नहीं बता सकता. और मैं यह समझता हूं कि कोई भी व्यक्ति जो चेतना संपन्न है और वह यह क्लेम करता है कि मैं दलितवादी हूं तो वह शुरुआती दिनों से ही जबसे वह होश संभालता है, उसके अंदर वह चेतना होती है. अगर वह चेतना नहीं होगी तो अचानक कोई दलितवादी नहीं हो जाएगा. हां, अगर कोई अपने को इंपोज करना चाहे कि आज अवसर है और हमें इसका फायदा उठाना है. इसके लिए हमें खुद को दलितवादी बनाना है तो हो सकता है. लेकिन वास्तव में जो छटपटाहट होती है, वह अचानक नहीं होती.
यानि ऐसे लोग भी हैं, जो मौका देखकर दलितवादी बन गए.
- अब देखिए, हमारे समाज में अवसरवादिता तो हैं ही. हम आपको बता सकते हैं कि जो ये अपने को कम्यूनिस्ट और वामपंथी कहते हैं इसका बड़ा हिस्सा (जोड़ देकर) अवसरवादी है. क्योंकि मैने देखा है अपने कई मित्रों को की उन्हें लेक्चररशिप चाहिए होती है तो वह‘लाल सलाम’कहने लगते हैं और उस आयडोलॉजी में नौकरी है. हमने कई ऐसे वकीलों को देखा कि जब उन्हें प्रैक्टिस शुरू करनी है और केस चाहिए तो उन्होंने‘लाल सलाम’कहना और कामरेड कहना शुरु कर दिया. लेकिन वास्तव में उनका जो चरित्र था वो अवसरवादिता का था. तो मैं यह मानता हूं कि दलित के संदर्भ में यह जो उभार आया है, खासतौर से 90 के बाद से आपको बहुत सारे लोग यह कहने वाले मिल जाएंगे कि मैं दलितवादी हूं, समाजिक न्याय का पक्षधर हूं. लेकिन मैं सवाल ये करता हूं कि जो लोग आज अपने आप को ऐसा कहते हैं, उनका इतिहास उठाकर देखा जाए कि वो 78 में क्या थे? और 78 से पहले उनकी क्या भूमिका थी?  इसको देखने की जरूरत है. तब जाकर सही आकलन हो पाएगा कि बुनियादी रूप से यह आदमी क्या है.
(कुछ नाम बताएंगे आप, मैं बीच में टोकता हूं)
नहीं, नाम नहीं बताऊंगा मैं क्योंकि यह उनको सर्टिफिकेट देने जैसा मामला है. इसको एक ट्रेंड के रूप में देखना चाहिए. इसलिए आप देखिए कि आज बहुत सारे लोग जो वामपंथी हैं.खुद को वामपंथी कहने से बचते हैं. वामपंथ को गाली देते हुए मिलते हैं. क्योंकि उनका एक अवसर था. उसमें उन्होंने लाभ उठा लिया. जहां तक खुद को दलितवादी होने का दावा है तो ऐसे इलाकों में जाकर कहिए जहां अब भी काफी चुनौतियां हैं. वहां जाकर कहिए कि मैं दलितवदी हूं. अगर दलितवादी होने की कसौटी हम यह बनाएं कि इसके चलते आप क्या खोते हैं, तो इसका दावा करने वाले लोगों ने खोया नहीं है बल्कि पाया ही है. जैसे कई सारे लोग कहते हैं कि हम धर्मनिरपेक्ष हैं. तो अगर खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने से हमें लाभ मिल रहा है. तो आपको उस लाभ को उठाने में क्या है.
जैसा आपने अवसरवादी दलितवादी और वामपंथ के बारे में कहा. तो आप पर भी यही आरोप लगता है. समाज का एक तबका है जो यह कहता है कि अनिल चमडिया दलित नहीं हैं. और स्वार्थवश दलितवादी बनते हैं. इन आरोपों के बारे में क्या कहेंगे?
- जो सवाल खड़ा करता है, उसे करने दीजिए.  देखिए मेरा कोई लाभ नहीं है. कोई हित नहीं है. पहली बात कि अगर कोई आरोप लगाता है तो मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है. मान लिजिए मेरा पूरा जीवन है और आप ही बताइए कि मैने कभी यह कह कर लाभ उठाया है कि मैं दलितवादी हूं, मुझे लाभ दो. कहीं कोई पद हासिल किया है. कोई पैसा लिया है. कोई एक उदाहरण बताए हमको. मैं तो कह रहा हूं कि मेरा अपना कोई इंट्रेस्ट नहीं है. जो स्वार्थी किस्म के लोग होंगे, अवसरवादी किस्म के लोग होंगे जो दलित-दलित कर के अपना हित पूरा करना चाहते होंगे. वो भइया मुझे कठघरे में खड़ा करें. बात साफ है. क्योंकि उनके पास वही कार्ड है. उसी के साथ वो खेलेंगे. जैसे आपने पूछा कि मैं दलितवादी हूं तो मैने कहा कि हूं. मैं दलितों के हितों की बात करता हूं. उनके हितों की लड़ाई लड़ता हूं. लेकिन हम इसका कोई प्रोजेक्ट नहीं बनातें. यह मेरे प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं है कि मैं दलितवादी हूं और मुझे कोई प्रोजेक्ट मिल जाए. कहीं विज्ञापन मिल जाए. ये मेरा काम नहीं है. हमारे भीतर ये बात है. हमारे भीतर एक छटपटाहट है, एक बेचैनी है तो हम इसे व्यक्त करते हैं. अब किसी दूसरे को परेशानी होती है तो हो, उसकी मुझे चिंता नहीं है. और ऐसे बहुत सारे लोग हैं. गैरदलितों में भी बहुत सारे लोग परेशान होते हैं. चिंता करते हैं. यह एक लड़ाई है. लड़ाई है कि हम सवाल खड़े करेंगे तो आप मुझे कठघरे में खड़ा करेंगे. क्योंकि आपके पास सवालों का जवाब नहीं है. न आपके पास सवाल हैं. तो आप मुझे दूसरे तरह से कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करेंगे. मैं किसी के बारे में नहीं कहता. मैं कहता हूं कि सबकी अपनी-अपनी भूमिका है. सभी अपना-अपना काम कर रहे हैं. लेकिन बहुत सारे लोग जिन पर जब सवाल खड़े होने लगेंगे तो आप पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाने लगेंगे. क्योंकि वह वैचारिक रूप से खोखले इंसान हैं. उनके पास विचार नहीं है. उनके पास एक लंबी योजना नहीं है समाज को बदलने की.
आप मान लिजिए की अनिल चमड़िया दलितवादी नहीं है, दलित नहीं है. कुछ नहीं है. आप कीजिए ना काम, आपको कौन कुछ कह रहा है. अनिल चमड़िया कहां आपको डिस्टर्ब करने आ रहे हैं. अनिल चमड़िया ने आपको कभी डिस्टर्ब किया हो, सीधे कोई सवाल उठाया हो कि आपको इतने लाख की परियोजना मिल गई. आपने इतना कमा लिया. ये तो हम कभी कहने नहीं जाते थे. तो लोगों के कहने की मैं चिंता नहीं करता.
तमाम पार्टियां दलित हित का दम भरती हैं. आजादी के बाद तमाम पार्टियां सत्ता में आई, लेकिन दलितों की स्थिति सुधारने के लिए किसी ने मिशन की तरह काम नहीं किया. चाहे वो कांग्रेस हो, भाजपा या फिर वामपंथ.
- देखिए दो तरह के ट्रेंड रहे हैं. अगर आप शुरुआती दिनों में देखें तो एक बाबा साहब रहे तो दूसरे बाबूजी (जगजीवन राम). दो धारा रहे. एक धारा जो है वो कहता है कि आप अपने
मंदिर खोलो, अपने यहां ब्राह्मण पैदा करो. एक धारा जो है वह कहता है कि ब्रह्मणवाद खत्म करो. तो दो तरह की धाराएं हमें दलित राजनीति में देखने को मिलती हैं. अब सवाल यह उठता है कि जो राजनीतिक पार्टियां हैं, वो क्या कहती हैं? उनके शब्द और भाव क्या हैं? उनका शब्द और भाव यह होता है कि आप दलितों का कल्याण करिए. दलितों को थोड़ा ऊपर उठाने का भाव होता है. दलित नेतृत्व करे, यह भाव किसी का नहीं होता है. वह भाव जब भी पैदा हुआ, वह कांशीराम में ही पैदा हुआ. वह मायावती ने ही पैदा किया. तो इन दोनों भावों को समझने की जरूरत है. दलितों की स्थिति क्यों ज्यों की त्यों बनी हुई है, अगर उन कारणों को समझें तो इन भावों को समझ सकते हैं. तो यह तो हर राजनीतिक पार्टियां कहती हैं कि दलितों का कल्याण हो. लेकिन जो राजनीतिक नेतृत्व है, समाज में बैठे हुए जो लोग हैं. उनकी मानसिकता अगर दलित विरोधी और पिछड़ा विरोधी है तो यह कैसे हो पाएगा. यह कभी संभव नहीं होगा.
आप खुद को वामपंथी विचारधारा का मानते हैं?
- मैने कहा न कि कई उतार-चढ़ाव रहे जीवन में. और मैं यह समझता हूं कि भारतीय समाज में जिस तरह के अन्याय की स्थिति है उसमें यदि आप किसी को वामपंथी कह देते हैं तो आप उसकी लड़ाई की एक दिशा की ओर इंगित कर देते हैं. वामपंथी मतलब आप आर्थिक गैरबराबरी को खत्म करने पर जोड़ देते हैं. आप समाजिक गैरबराबरी को इग्नोर करते हैं. मेरा यह कहना है कि भारतीय समाज में वो वामपंथ नहीं हो सकता, जो दुनिया के अन्य देशों में है. यह अलग है भी. आप जब क्यूबा में जाएंगे यह आपको अलग मिलेगा, नेपाल में अलग मिलेगा, सोवियत संघ में अलग था, चाइना में अलग मिलेगा. मार्क्सवाद कहीं से यह नहीं कहता है कि समाजिक स्तर पर गैरबराबरी की जो स्थितियां हैं, उसे सेकेंड्री मानें. तो जहां तक मेरी बात है, वामपंथ को जिस तरीके से परिभाषित किया जाता है, उस रूप में मैं वामपंथी नहीं हूं. हां, लेकिन मैं यह मानता हूं कि समाज में गैरबराबरी की लड़ाई का जो आधुनिकतम राजनीतिक दर्शन सामने आया है वह वामपंथ में है.
आपने अभी जो कहा उसमें एक द्वंद सा नहीं है कि आप खुद को वामपंथी तो मानते हैं लेकिन एक खास रूप में नहीं मानते. इसका मतलब क्या है?
- मैने तो आपसे कहा कि दुनिया के तमाम देशों में जो वामपंथी हैं, वह देश की सामाजिक-आर्थिक स्थित के अनुरुप मार्क्सवाद को ढ़ालने का काम करते हैं. तो मैने कहा कि अगर हमारे यहां वामपंथ की ये परिभाषा है कि वामपंथी होने का मतलब केवल आर्थिक गैरबराबरी की लड़ाई लड़ने वाला राजनीतिक कार्यकर्ता है, तो उस अर्थ में हम वामपंथी नहीं है. उसके साथ ही मैं यह भी कह रहा हूं कि गैरबराबरी की लड़ाई लड़ने का जो आधुनिकतम राजनीतिक दर्शन है वह मार्क्सवाद में है. आप मार्क्सवाद की अवहेलना नहीं कर सकते. आप देखेंगे कि हमारे देश में दलित और पिछड़े समाज के जो नेता निकले, जो लड़ाई लड़ी. उनके जो शब्दकोष हैं वह मार्क्सवाद से निकले हैं. लालू यादव कहते हैं कि लांग मार्च करेंगे. और आप अगर उस समय के आंदोलन के भीतर जाकर देखिएगा तो आपको मार्क्सवाद की छाप मिलेगी. क्योंकि जो बुनियादी दर्शन है गैरबराबरी के खिलाफ, इसके खिलाफ जहां भी लड़ाई होगी इसमें उसकी छाप मिलेगी.
वामपंथ के मुताबिक दलित समस्या का समाधान क्या है. वामपंथी दलों ने दलितों के हित के लिए अब तक क्या किया है?
- महाराष्ट्र के इलाके को छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में दलितों के हितों की राजनीतिक चेतना का विकास जितना वामपंथी दलों ने किया है, उतना दूसरे लोगों ने नहीं किया है. हमको ये फर्क करना पड़ेगा कि लड़ाई का जो आपका उद्देश्य है वो क्या है? वामपंथी जो यहां लड़ाई लड़ते रहे हैं वो बुनियादी परिवर्तन की लड़ाई लड़ते रहे हैं. उनमें जो उनके साथ सबसेज्यादा लड़ने वाले लोग रहे हैं वो दलित रहे हैं. क्योंकि उनमें मुक्ति की आकांक्षा थी. केवल सरकार बनाने की लड़ाई नहीं लड़ते रहे हैं इसलिए उस तरह की लड़ाई में आपको फर्क यह दिखाई देगा कि वहां राजनीतिक कार्यकर्ता तो निकले लेकिन सत्ता में नहीं पहुंचे. उन्होंने जमीनी स्तर पर भेदभाव की लड़ाई लड़ी. मेरे कई मित्र बताते हैं जैसे भोजपुर के इलाके में दलित खाट पर नहीं बैठ सकते थे. उनके लिए कम्यूनिस्ट पार्टी के लोग लड़े. लेकिन उन्होंने उन्हें सत्ता में जगह नहीं दी. तो लड़ाई को इतने सपाट तरीके से नहीं देख सकते. क्योंकि वो हर स्तर पर उत्पीड़न का शिकार है. तो जाहिर सी बात है कि आप एक स्तर पर आगे बढ़ाने की बात करते हैं तो दूसरे स्तर पर रह जाता है. जैसे आज उत्तर प्रदेश में मायावती सत्ता में हैं लेकिन क्या वहां दलितों के साथ भेदभाव की स्थिति नहीं है. लेकिन हम फिर भी इसे भी प्रोत्साहित करते हैं. हम मानते हैं कि दलित नेतृत्व होना चाहिए. लेकिन फिर भी मानते हैं कि भेदभाव की स्थिति बनी हुई है. यही बात कम्यूनिस्ट पार्टियों में भी है. यहां भी दो तरह की धारा देखने को मिल रही है. एक राजनीतिक रूप से चेतना संपन्न है. दूसरी तरफ आप उनकी शिकायत कर सकते हैं कि उन्होंने आपको नेतृत्व में आने का मौका नहीं दिया. बाबा साहब के आंदोलन से लेकर वामपंथ और कांशी राम जी के आंदोलन तक सारे आंदोलनों की अपनी एक बड़ी भूमिका रही है. और आप हर आंदोलन पर सवाल उठा सकते हैं. तो आपको अगर राजनीतिक लाभ उठाना है तब तो यह अलग बात है. लेकिन समाज का एक बौद्धिक सदस्य होने के नाते जो लोग उन्हें इस स्थिति से निकालने के बारे में सोचते हैं वो ऐसा नहीं सोचते कि उन्होंने ऐसा किया, ऐसा नहीं किया.
दलितों के समाज में आगे आने के बाद जातीय उत्पीड़न का रूप भी बदला है. अब यह प्रत्यक्ष न होकर इसने दूसरा रूप ले लिया है? इसकी वजह क्या है?
- वो आएगी ही. देखिए एक बात जान लिजिए. जब ढ़ांचागत परिवर्तन होगा तो उत्पीड़न का रूप भी बदलेगा. जैसे ढ़ांचागत परिवर्तन यह हुआ है कि अब आपको स्कूल में पढ़ने को मिल रहा है. तो अब उत्पीड़न का तरीका बदलेगा. पहले उत्पीड़न का तरीका यह था कि आपको स्कूल में नहीं आना है. अब जब उन्होंने आपको अंदर आने दे दिया तो उनके मन में जो यह बात फिट है कि आप छोटे हैं तो वह स्कूल के भीतर किसी न किसी रूप में तो काम करेगा ही. वह खत्म नहीं होगा. बस उसका रूप सूक्ष्म हो जाएगा. आपसे बात करते हुए मैं एक महत्वपूर्ण बात करने जा रहा हूं.
मैं इधर दलित समाज द्वारा आयोजित कई कार्यक्रमों में गया. मैं वहां यह बात बार-बार कह रहा हूं कि आप‘जय भीम’बोलना बंद करिए. जय भीम क्यों बोलते हैं? आप इसका अर्थ बताइए. यह कहां से निकला?‘जय’का पूरा एक ढ़ांचा है. आप कहते हो कि हम‘भीम’को जय कर रहे हैं. यानि भीम की जय कर के आप उन्हें एक ढ़ांचे में जगह दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. मैं कहता हूं कि आप जय भीम नहीं कहें. आपके समाज की जो अवस्था है, उसमें अभी जय की जरूरत नहीं है. उसमें अभी जागो कि जरूरत है. हम‘जय भीम-जागो भीम’क्यों नहीं बोल सकते. क्योंकि यह हमारा माइंडसेट बना हुआ है. एक बोलता है जय श्रीराम, हम बोलते है जय भीम. तो आप पूरे स्ट्रक्चर को सुरक्षित रखते हैं. आप केवल नाम को ले जाकर के वहां फिट कर देते हैं. ढ़ांचा वही रहता है. तो जय के ढ़ांचे को तोड़ने की जरूरत है. अभी इस समाज को जय की जरूरत नहीं है. जय, विजय, पराजय गैर-बराबरी के समाज का संबोधन है. हम तो अन्याय से पीड़ित है. हमारे समाज में बड़ा हिस्सा अभी भी उसी अवस्था में है. उसे जगाने की जरूरत है. दलित का हर बच्चा भीम है, उसमें यह भाव कैसे पैदा करें. तो उसे हम बोलें कि जागो भीम दूसरा बोले की बोले कि बोलो भीम. ये समाज के पूरे ढ़ांचे को चेंज करेगा. अभी हमारी जो लड़ाई की दिशा है वो ठीक दिशा नहीं है. वो ढ़ांचे को तोड़ने की दिशा नहीं है. वह इसमें अकोमडेट (accommodate) करने की दिशा है.
'जय भीम' दलितों के लिए एक मंत्र बन गया है. आप जो यह कह रहे हैं कि दलित जय भीम बोलना बंद करें तो क्या वो इस स्थिति को स्वीकार करेंगे?
- देखिए मैं तो कह रहा हूं कि इस पर विचार करें. जय भीम क्यों बोलते हैं, यहां से सोचना शुरू करें. हमारा हाल यह है कि हम इतने ज्यादा उत्पीड़न की स्थिति में रहे हैं कि जरा सा भी सुख देने वाला कोई भी विकल्प हम अपना लेते हैं. तो जय भीम क्यों बोला जाता है. आप इसके विस्तार का काल देखिए. तो मैं आपके उस सवाल का जवाब दे रहा था कि आप कह रहे हैं कि स्ट्रक्चर चेंज नहीं करेंगे तो आपकी स्थिति में ज्यादा परिवर्तन होने नहीं जा रहा है. साफ सी बात है. हां, क्षणिक सुख मिलेगा. लेकिन ये जो लड़ाई है वो क्षणिक लड़ाई नहीं है. आप पर जो गैरबराबरी थोपी गई है वो क्षणिक नहीं है. वह एक योजना का हिस्सा है. और वो वर्षों पुरानी, बहुत दूरदर्शी किसी शासक द्वारा रची है. तो मैं मानता हूं कि अगर आपको गैरबराबरी को खत्म करना है तो आपको तात्कालिक सुख, संतोष की लड़ाई से निकलना होगा. क्रमश......


इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं. या फिर 09711666056 पर फोन कर सकते हैं.


सोमवार, 11 जुलाई 2011

भारत में दलित साहित्य की भूमिका बहुत ही ऐतिहासिक

साहित्य का कम पढ़ा जाना या न पढ़ा जाना चिंता का विषय है। ऐसे नाजुक दौर में हम मुक्तिकामी साहित्य, विशेषतौर पर दलित साहित्य को उम्मीद की दृष्टि से देख सकते हैं। इस संदर्भ में भारत में दलित साहित्य की भूमिका बहुत ही ऐतिहासिक होने जा रही है।
साहित्य का संकट और दलित लेखन
भारत जैसे देश में जहां धर्मांधता बहुत ज्यादा है, साहित्य की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही है। यहां तक कि धर्मांधता फैलाने में भी साहित्य की ही भूमिका रही है। हमारे देश में रामायण, महाभारत, पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों की अंधविश्वास फैलाने में बड़ी भूमिका रही है। उन अंधविश्वासों के चलते पूरा भारतीय समाज ही अंधविश्वासी हो गया है। इसी से जुड़ी जाति व्यवस्था है, इसे फैलाने में भी धर्मग्रंथों का बड़ा हाथ था। आम जनता इन्हीं धर्मग्रंथों को ‘धर्मग्रंथ’ के साथ-साथ साहित्य के रूप में लेती है। प्रेमचंद का कहना सही है कि साहित्य सामाजिक परिवर्तन में भूमिका निभाता है। भारत ही नहीं, विश्वस्तर पर यह देखा गया है कि जिस तरह का साहित्य होता है, उसी तरह का समाज निर्मित होता है। आज के समय में भारत जैसे विशाल देश में प्रगतिशील साहित्य का निर्माण बहुत जरूरी है। आज भी हमारा समाज धर्मांधता में डूबा हुआ है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस धर्मांधता को खत्म कर वैज्ञानिक समाज बनाने के बजाय अंधविश्वासों को ही बढ़ावा दिया है। सैकड़ों चैनलों पर पाखंडी बाबाओं के प्रवचन चलते रहते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने के बाद बहुत खतरनाक स्टेज में दुनिया पहुंच गई है। अब लोग किताबें नहीं पढ़ते हैं, बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर न्यूज और विश्लेषण सुनकर जनमत बना रहे हैं। खबरों के अलावा धारावाहिक और फिल्मों के रूप में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक अलग तरह का साहित्य आ रहा है जो बाजारोन्मुखी है। इसके चलते प्रगतिशील साहित्य पिछड़ रहा है। ऐसी स्थिति में सही लेखन, जो धर्मांधता से प्रभावित न हो, तार्किक हो, बुद्धिवादी हो- ऐसे साहित्य की बहुत आवश्यकता है।

साहित्य का कम पढ़ा जाना या न पढ़ा जाना चिंता का विषय है। पश्चिमी देशों के विद्वान इसके कारणों को परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी दृष्टि में भूमंडलीकरण की वजह से पूरी दुनिया में ‘ड्रीम इंडस्ट्री’ का उदय हुआ है। ड्रीम इंडस्ट्री के उदाहरण के तौर पर अगर हम आधुनिक पश्चिमी स्टूडियो को ले सकते हैं, जिसकी वजह से चमत्कारिक चीजों को घटित होते हुए दिखाना संभव हुआ है। चूंकि भारत कपोल कल्पित कहानियों और मिथकों का देश रहा है, इसलिए इस पर इन ड्रीम इंडस्ट्री का असर बहुत तेजी के साथ पड़ा है। उदाहरण के लिए यह एक मिथक है कि राम ने वानरों की मदद से श्रीलंका जाने के लिए समुद्र पर पुल बांध दिया।

ड्रीम इंडस्ट्री या वेस्टर्न स्टूडियो या मॉडर्न स्टूडियो की मदद से यह संभव कर दिया कि वे पुल को बांधते हुए दिख रहे हैं। बंधा हुआ पुल भी दिखाई दे रहे हैं। यह चमत्कार इस ड्रीम इंडस्ट्री की वजह से हुआ है। इस तरह जो चीजें पहले कपोल कल्पना या मिथकीय रूप में थीं, वे आमूर्त रूप से सामने आ गईं। आधुनिक तकनीक ने सब बदल दिया। पहले लोग पढ़ते थे तो मिथकों के बारे में खूब सवाल करते थे। लंबी-लंबी और गंभीर बहसें हुआ करती थीं। जैसे हनुमान ने सूरज को अपनी कांख में दबा लिया, इस पर सवाल खड़े किए जाते थे। अब मॉडर्न टेक्नोलॉजी ने इसे कर दिखाया। परदे पर इसे दिखाना बहुत आसान है। इससे मिथकों में ज्यादा लोगों का विश्वास हो रहा है। इस तरह ज्ञान के क्षेत्र में दो क्रियाओं का परिवर्तन हो गया है। पहले लोग पढ़कर ज्ञान इक_ा करते थे, अब देखकर ज्ञान इक_ा कर रहे हैं। पढऩे और देखने में बड़ा भारी फर्क है। दिखाया वही जा रहा है जो मीडिया के मालिक दिखाना चाहते हैं। लोगों की रुचियां बदल रही हैं। पूरा देश और समाज एक खतरनाक दौर से गुजर रहा है। इसके चलते किताबों का महत्व दिन-प्रतिदिन घट रहा है। दर्शनीय चीजें महत्वपूर्ण होती जा रही हैं।

ऐसे नाजुक दौर में हम मुक्तिकामी साहित्य, विशेषतौर पर दलित साहित्य को उम्मीद की दृष्टि से देख सकते हैं। दलित साहित्य की एक महत्वपूर्ण भूमिका यह होने जा रही है कि वर्णव्यवस्था (जो कि धर्मजनित है) के विरोध और बुद्धिवादी विचारों पर आधारित होने के कारण यह साहित्य में आए रुचिहीनता के संकट का सामना करने को तैयार है। इसकी वजह यही है कि दलित साहित्य तार्किक है। ठीक वैसे ही जैसे दुनिया के स्तर पर अश्वेत साहित्य, आदिवासी साहित्य और नारीवादी साहित्य है। साहित्य में आई यह रेशनलिटी साहित्य को बाजारवाद से आई विकृतियों से लडऩे में मदद कर रही है। इस संदर्भ में भारत में दलित साहित्य की भूमिका बहुत ही ऐतिहासिक होने जा रही है।

दलित साहित्य से जुड़ी एक बड़ी समस्या यह है कि इससे कुछ ऐसे लोग जुड़े हैं जो दलित साहित्य को जातिवादी साहित्य बताने और बनाने में लगे हैं। यह उन्हीं की धारणा है कि दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकता है। ये तो वैसे ही जैसे कोई कहे कि दलित राजनीति केवल दलित ही कर सकता है। यह बहुत ही हास्यास्पद स्थिति है। हिंदी क्षेत्र के दलित आंदोलन में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के उदय के बाद प्रखरता और आक्रामकता आई है, उसका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा है, इसी की वजह से हिंदी के दलित साहित्य में आक्रामकता आई है। इसके चलते अलग-अलग विचार दलितों के अंदर भी उभरकर आए हैं और इसी प्रक्रिया में तमाम अंतर्विरोध उभरकर सामने आ रहे हैं। दलित साहित्य का मतलब जातिवादी साहित्य नहीं है, बल्कि यह जाति व्यवस्था के विरोध का साहित्य है। इसमें वे तमाम साहित्यकार जो वर्ण व्यवस्था के विरोध में रचना कर रहे हैं, वह सारा दलित साहित्य के अंदर आता है। मैं हमेशा से मानता रहा हूं कि दलित साहित्य का उद्गम बौद्ध साहित्य से हुआ है क्योंकि बौद्धों ने सबसे पहले वर्ण व्यवस्था का बहुत सशक्त विरोध किया था। तमाम बौद्ध दार्शनिकों ने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। इसी के चलते बौद्धों का सर्वनाश किया गया, बौद्ध मठों को तोड़ा गया तथा फिर से जाति व्यवस्था कायम की गई और उसे बड़ी कड़ाई से लागू किया गया। खासकर शंकराचार्य के उदय के बाद 9वीं सदी में यह तेजी से हुआ।

बौद्धस्थलियों को हिंदू स्थलियों में बदला गया। यह वर्ण व्यवस्था के विरोध का ही परिणाम था। अगर हम यह कहें कि दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है तो हम उन तमाम लोगों का अपमान करेंगे जिन्होंने गैर-दलित होते हुए भी जाति व्यवस्था के विरोध और दलितों के उत्थान के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। इस परंपरा में एक-दो नहीं, हजारों नाम गिनाए जा सकते हैं।

एक और ऐतिहासिक सत्य है इस देश में- जाति व्यवस्था को जहां ब्राह्मणों ने बनाया, वहीं इसका विरोध करने वाले भी सबसे पहले ब्राह्मणों के अंदर से ही निकले। इस बात को हमें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। दलितों के अंदर भी जातिवाद और ब्राह्मणवाद हो सकता है, इसलिए दलितों के लिखे को ही दलित साहित्य मानने के तर्क से सहमत नहीं हुआ जा सकता। इस तरह की धारणाएं दलित साहित्य को संकुचित बनाती हैं, उसकी सार्वभौमिकता को नष्ट करती हंै और समाज से दलित साहित्य को काटकर रखती हैं, जो कि बहुत खतरनाक है। दलित साहित्य एक सामाजिक कल्याण की विचारधारा है। इसलिए संकुचित विचारों के लिए इसमें कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

(गंगा सहाय मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)