सौदा डेरे के मठाधीश गुरमीत ने वोट-राजनीति के प्रश्रय में अपने व्यभिचारी आतंक का साम्राज्य फैलाया था। गोरखपुर के गोरखनाथ पंथ मठाधीश योगी के लिए साम्प्रदायिक आतंक ही वोट-राजनीति का पर्याय रहा है... वीएन राय, पूर्व आईपीएस
योगी को उनके प्रभाव क्षेत्र में अपराजेय माना जाता रहा है. जैसे कभी राम रहीम
को माना जाता था. फिलहाल, स्वतंत्र न्यायपालिका का ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ समीकरण, बेशक
15 वर्ष लगाकर, न्याय के चंगुल में राम रहीम की हवा निकाल चुका है. क्या योगी की
बारी भी आयेगी?
पिछले दिनों, पैसे और प्रभाव के दखल की मारी भारतीय न्याय व्यवस्था के हाथों, शासकों
के चहेते अरबपति बलात्कारी धर्मगुरु, गुरमीत सिंह राम-रहीम को न्याय की गड्डी चढ़ते
देखना, एक अजूबे संयोग से कम नहीं कहा जाएगा. इसी तरह, धर्म और राजनीति में कई
गुणा विशाल आभा मंडल वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आतंकी पापों
का घड़ा फूटने की दिशा में भी कुछ वैसा ही न्यायिक संयोग बनना क्या संभव है?
9 अक्तूबर को योगी को लेकर अहम सुनवाई इलाहाबाद हाई कोर्ट में होने वाली है. इसमें,
2006-07 के दौर में, गोरखपुर समेत पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में, योगी की
‘हिन्दू वाहिनी’ के बैनर तले सांप्रदायिक उन्माद और मार-काट में उनकी भड़काऊ अगवाई की
क़ानूनी जवाबदेही तय होनी है. योगी ने इस वर्ष अप्रैल में, उत्तर प्रदेश का
मुख्यमंत्री बनते ही, अपने पर मुक़दमा चलाये जाने की स्वीकृति रोक दी थी. यानी अपने
मामले में वे स्वयं ही जज भी बन गए. हाई कोर्ट को उनके इस फर्जीवाड़े पर फैसला देना
है.
सिरसा के सच्चा सौदा डेरे के मठाधीश गुरमीत ने वोट-राजनीति के प्रश्रय में अपने
व्यभिचारी आतंक का साम्राज्य फैलाया था. गोरखपुर के गोरखनाथ पंथ मठाधीश योगी के
लिए साम्प्रदायिक आतंक ही वोट-राजनीति का पर्याय रहा है. 2006-07 में, योगी के ‘हिन्दू
वाहिनी’ क्रियाकलापों पर, तब के तीन युवा छात्रों राजीव यादव, शाहनवाज आलम,
लक्ष्मण प्रसाद की डाक्यूमेंट्री ‘भगवा आतंक’ उस रोंगटे खड़े कर देने वाले दौर की
गवाह है. डाक्यूमेंट्री, सांप्रदायिक जुनून और नफरत से भरे उस दौर का दस्तावेज है जब
योगी गिरोह मुस्लिम बस्तियों के सामने लाउड स्पीकर लगा उन पर बेरोक-टोक गालियों और
धमकियों की बौछार किया करता था. सांप्रदायिक तनाव, धर्म परिवर्तन, आगजनी,
बलात्कार, लूट और शारीरिक हिंसा के आह्वान इस गिरोह के घोषित औजार हुआ करते थे.
साम्प्रदायिक उन्माद और दंगों से चुनावी ध्रुवीकरण के हिंसक खेल में योगी सबसे आगे
निकल चुके थे.
यहाँ तक कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में योगी की उग्रतम साम्प्रदायिक छवि, संघ-भाजपा
नेतृत्व की हिन्दू राष्ट्र रणनीति से इतर जाने की भी रही है. आश्चर्य नहीं कि मायावती
ने अपनी राजनीतिक आत्मकथा में योगी को देशद्रोही तक करार दिया. बतौर भाजपा समर्थित
मुख्यमंत्री (2002-03) उन्होंने देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी
को चिट्ठी लिखकर योगी की गतिविधियों पर लगाम लगाने को कहा था. बाद में, प्रदेश के पूर्णकालिक
मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह (2003-07) और मायावती (2007-12) पास अवसर था कि वे अपने
दम योगी की नकेल कस सकते थे, तो भी दोनों ही वोट बैंक की संकीर्ण राजनीति से बाहर
नहीं निकल सके.
योगी की गतिविधियों को लेकर, भाजपाई राजनीति में उदारवादी गिने जाने वाले वाजपेयी
की चुप्पी भी कम आपराधिक नहीं कही जायेगी. ध्यान रहे, गुरमीत के यौन शोषण का शिकार
हुयी सेविका की चिट्ठी पर भी वाजपेयी काल में प्रधानमंत्री कार्यालय ने चुप्पी साधे
रखी और तब पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के दखल से ही मामले में सीबीआई जाँच संभव हो
सकी. लगता है, योगी के अराजक प्रसंग में, सर्वत्र राजनीतिक चुप्पी के बाद, अब इलाहाबाद
हाई कोर्ट भी कुछ वही भूमिका निभा सकता है!
संक्षेप में एक नजर न्यायिक घटनाक्रम पर. 2007 में गोरखपुर पुलिस ने योगी के
विरुद्ध आपराधिक केस दर्ज करने से मुंह मोड़ लिया. सीजेएम ने भी सीआरपीसी की धारा
156 (3) के तहत केस दर्ज करने की याचिका ठुकरा दी. अंततः, गोरखपुर के प्रतिबद्ध समाजकर्मी
परवेज परवाज और इलाहाबाद हाई कोर्ट के जुझारू वकील असद हयात की याचिका पर, 2008
में इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के बाद आपराधिक मुकदमा दर्ज हो सका. योगी के
सह-अभियुक्तों में मोदी सरकार के एक वर्तमान राज्य मंत्री, योगी सरकार के एक वर्तमान
मंत्री और गोरखपुर की वर्तमान मेयर भी शामिल हैं. मेयर अंजू ने तब सुप्रीम कोर्ट
में हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देकर उस के कार्यान्वयन पर स्टे ले लिया था.
दिसंबर 2012 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से स्टे टूटने के बाद ही विवेचना शुरू हो सकी.
समाजवादी अखिलेश यादव (2012-17) के मुख्यमंत्री होने के बावजूद विवेचना बेहद
धीमी गति से चली. यहाँ तक कि अखिलेश के मुख्यमंत्री का पद छोड़ने तक भी अभियोजन के
अनुमोदन की फाइल उनके दफ्तर में लंबित रहने दी गयी. लेकिन मुख्यमंत्री बने योगी ने
जैसे ही न्याय का दरवाजा हमेशा के लिए बंद करना शुरू किया, याचिका-कर्ता परवेज
परवाज और असद हयात पुनः हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने जा पहुंचे. 4 मई की सुनवाई
में राज्य सरकार ने गोल-मोल जवाब दिया. 11 मई की पेशी में हाई कोर्ट को बताया गया
कि 3 मई को ही अनुमोदन न देने का फैसला लिया जा चुका है. हाई कोर्ट ने सख्त चेतावनी
देने के साथ 9 अक्तूबर को स्थिति स्पष्ट करने को कहा है.
दरअसल, इलाहाबाद हाई कोर्ट की पहल ने सांप्रदायिक आतंक के योगी अध्याय में न्याय
की उम्मीद नए सिरे से जगाई है. इसी 19 सितम्बर को लखनऊ प्रेस क्लब में, गौरी लंकेश
की स्मृति में, दिल्ली के बटला हाउस कांड की बरसी पर लगभग ढाई सौ लोगों की एक सभा में
मैं भी शामिल हुआ. ये सभी सांप्रदायिक सद्भाव के मोर्चे पर सक्रिय लोग थे. दुखद
है, 9 वर्ष गुजरने पर भी बटला हाउस पुलिस मुठभेड़ कांड का पटाक्षेप नहीं हो सका है.
इस बीच यदि सरकारों की प्रणाली पारदर्शी रही होती तो श्वेत पत्र के माध्यम से सभी
सम्बंधित तथ्य सार्वजनिक किये जा चुके होते. जाहिर है, सरकार की फाइल में जो मामला
निपट चुका है, उसके पीड़ितों को साल दर साल न्याय का इंतज़ार रहेगा. उनके धैर्य भरे
संकल्प ने मुझे एक और सभा की याद दिला दी.
इसी वर्ष 24 फरवरी को मुझे गुरमीत के सच्चा सौदा डेरा मुख्यालय वाले हरियाणा
के सिरसा शहर के सक्रिय किरदारों से मिलने का भी अवसर मिला था. केंद्र/राज्य की
भाजपा सरकारों से पोषित इस बलात्कारी का दबदबा अभी कायम था. राष्ट्रीय मीडिया भी अभी
भीगी बिल्ली ही बना हुआ था. 2010 से दर्जनों स्त्रियों-पुरुषों के डेरा परिसर से
गायब किये जाने की शिकायतें लंबित हैं. इस बीच राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों के
अमूमन गुरमीत दरबार में मत्था टेकने के कितने ही विडियो वायरल हो चुके हैं. 2015
विधान सभा चुनाव में प्रधानमन्त्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तक सिरसा जाकर उसका
गुणगान कर आये थे. चुनाव में विजय के बाद भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय
के नेतृत्व में तमाम पार्टी विधायकों द्वारा उसके दरबार में अभूतपूर्व हाजिरी
लगाने का मंजर कौन भूल सकता है.
हालाँकि, जो लगभग दो सौ लोग इस ‘देशभक्त स्मृति’ सभा में हिस्सा लेने आये थे,
उनके लिए सिरसा शहर, यौन शोषण और राजनीतिक आतंक का पर्याय बन चुके धर्मगुरु का
नहीं, बल्कि स्वर्गीय कामरेड बलदेव बख्शी जैसे प्रगतिशील नेतृत्व और पत्रकार छत्रपति
जैसे शहीद योद्धा का शहर था. नब्बे के दशक का उत्तरार्ध रहा होगा जब इन दोनों
महानुभावों के सान्निध्य में मैंने, दिल्ली से सिरसा आकर ‘भगत सिंह से दोस्ती’
अभियान में शिरकत की थी और राम रहीम नामक अंध श्रद्धा के लौह कपाट पर जागरूक चेतना
की ठोस दस्तक को सुना था. अब उसी क्रम में
मेरा साक्षात्कार अगली पीढ़ी के न्याय योद्धाओं से हुआ. प्रतिबद्ध अश्विनी बख्शी,
जो चंडीगढ़ में हाई कोर्ट में वकालत करते हैं और अंशुल छत्रपति, जो सच की
पत्रकारिता में साहसी पिता की प्रतिमूर्ति लगे. ये और इनके तमाम साथियों ने गुरमीत
को न्याय की गड्डी पर चढ़ा कर ही दम लिया.
लखनऊ प्रेस क्लब की सभा में भी मुझे योगी मामले के मुख्य सक्रिय किरदारों-
परवेज परवाज, असद हयात, राजीव यादव, शाहनवाज आलम, लक्ष्मण प्रसाद- से रूबरू होने
का मौका मिला. उनमें, न्याय के पक्ष में संघर्ष जारी रखने की वही दृढ़ जीवटता देखने
को मिली जो मैंने राम-रहीम आपराधिक मामलों को अंजाम तक पहुँचाने वालों में पायी थी.
यानी न्याय का इंतज़ार जितना लम्बा खिंचे, उसकी लड़ाई में कसर नहीं रहेगी.
डाक्यूमेंट्री ‘भगवा आतंक’ में कैद रक्तरंजित विवरण यहाँ दोहराए नहीं जा सकते.
बस, कैमरे में कैद एक पीड़ित वृद्ध महिला का चेहरा, जिसने परिचित आतताइयों को
परिचित शिकारों पर वार करते देखा था, दिमागी परदे से नहीं उतरता. पूछने पर कि हमलावर
गिरोह क्या नारे लगा रहा था, वह यही दोहराती रही- मारो....काटो....मारो....काटो....मारो....काटो.
9 अक्तूबर को इलाहाबाद हाई कोर्ट इस नारे को सुनेगी, यह मेरा भी विश्वास है!
(पूर्व आइपीएस वीएन राय सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं।)