आलोकधन्वा
सन् १९४८ में मुंगेर (बिहार) ज़िले में जन्मे आलोकधन्वा की पहली कविता ‘जनता का आदमी’ १९७२ में ‘वाम’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। वे हिंदी के उन बड़े कवियों में हैं, जिन्होंने ७० के दशक में कविता को एक नई पहचान दी। उनका पहला संग्रह है- दुनिया रोज बनती है उसी वर्ष ‘फ़िलहाल’ में ‘गोली दाग़ो पोस्टर’ कविता छपी। ये दोनो कविताएँ देश के वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन की प्रमुख कविताएँ बनीं और आलोक बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र और पंजाब के लेखक संगठनों से गहरे जुड़े। १९७३ में पंजाबी के शहीद कवि पाश के गाँव तलवंडी सलेम में सांस्कृतिक अभियान के लिए गिरफ़्तारी और जल्द ही रिहाई।
कपड़े के जूते, पतंग, भागी हुई लड़कियाँ, और ब्रूनो की बेटियाँ हिन्दी की प्रसिद्ध कविताएँ हैं, जैसी
लंबी कविताएँ हिंदी और दूसरी भाषाओं में व्यापक चर्चा का विषय बनीं। वे पिछले दो दशकों से देश के विभिन्न हिस्सों में सांस्कृतिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने छोटा नागपुर के औद्योगिक शहर जमशेदपुर में अध्ययन मंडलियों का संचालन किया और रंगकर्म और साहित्य पर कई राष्ट्रीय संस्थानों और विश्वविद्यालयों में अतिथि व्याख्याता के रूप में भागीदारी की। वे प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, और जन संस्कृति मंच के आयोजनों में भी सक्रिय रहे हैं। उन्हें प्रकाश जैन स्मृति सम्मान, बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान, राहुल सम्मान, पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फ़िराक़ गोरखपुरी सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति सम्मान और गिरिजा कुमार माथुर सम्मान-नई दिल्ली, और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का विशेष साहित्य सम्मान आदि प्राप्त हुए हैं उनकी कविताएँ अंग्रेजी, रूसी और सभी भारतीय भाषाओं में अनूदित हुई हैं। प्रोफ़ेसर डेनियल वाइसबोर्ट और गिरधर राठी के संपादन में साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित हिंदी कविताओं के अंग्रेजी संकलन ‘सरवाइवल’ में उनकी कविताएँ संकलित हैं। इसके अलावा प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका ‘क्रिटिकल इन्क्वायरी’ में भी अनुवाद प्रकाशित हुए हैं।
आलोकधन्वा संप्रति महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ‘राइटर इन रेजीडेंस’ के रुप में कार्यरत हैं।
आलोकधन्वा हिंदी साहित्य में आलोकधन्वा की कविता और काव्य व्यक्तित्व एक अद्भुत सतत घटना, एक 'फ़िनोमेनॅन’ की तरह हैं। वे पिछली चौथाई सदी से भी अधिक से कविताएँ लिख रहे हैं लेकिन बहुत संकोच और आत्म संशय से उन्होंने अपना पहला संग्रह प्रकाशित करना स्वीकार किया है और इसमें रचना-स्फीति नहीं है। हिंदी में जहाँ कई वरिष्ठ तथा युवतर कवि ज़रूरत से ज़्यादा उपजाऊ और साहिब-ए-किताब हैं वहाँ आलोकधन्वा का यह संयम एक कठोर व्रत या तपस्या से कम नहीं है, और अपने आप में एक काव्य-मूल्य है। जनता का आदमी, गोली दागॊ पोस्टर, भागी हुई लड़कियाँ और ब्रूनो की बेटियाँ सरीखी कविताएँ मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुबीर सहाय तथा चंद्रकाम्त देवताले की काव्य-उपस्थितियों के समानान्तर हिंदी कविता तथा उसके आस्वादकों में कालजयी जैसी स्वीकृत हो चुकी हैं - विष्णु खरे सन् 1998 में उपरांकित पंक्तियाँ वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने तब लिखी थीं जब आलोकधन्वा का पहला काव्य संकलन ‘दुनिया रोज़ बनती है’ प्रकाशित हुआ। समकालीन हिंदी कविता के गंभीर एवं प्रतिबद्ध पाठकों के बीच ‘दुनिया रोज़ बनती है’ असाधारण रूप से चर्चित और सम्मानित हुई। इस कृति का तीसरा संस्करण भी समाप्तप्राय है। इस कृति को भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति पुरस्कार (म.प्र.) और बेहद चर्चित पुरस्कार ‘पहल सम्मान’ प्रदान किया गया। साथ हीइन्हें नयी दिल्ली में ‘गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार’ और विदिशा के रामकृष्ण प्रकाशन द्वारा पहला ‘नागार्जुन सम्मान’ एवं गोरखपुर का विशिष्ट काव्य पुरस्कार ‘फ़िराक गोरखपुरी स्मृति सम्मान’ भी मिल चुका है। अपनी पुस्तक के प्रकाशन के बारह वर्षों बाद आलोकधन्वा की चार ताजा कविताएँ बहुवचन के नये अंक में प्रकाशित हुई हैं। जीवन की छोटी-छोटी चीज़ों और बातों पर बहुत ईमानदारी से लिखी गयी ये कविताएँ उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा का नया साक्ष्य हैं। आशा है उनकी कविता का अरसे से इन्तज़ार कर रहे पाठक इन्हें पसंद करेंगे। हिंदी कविता के सुधी पाठकों के लिए यह एक सुखद घटना है। हम इन्हें अतीव प्रसन्नता के साथ यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं: |
मुलाक़ातें अचानक तुम आ जाओ इतनी रेलें चलती हैं भारत में कभी कहीं से भी आ सकती हो मेरे पास कुछ दिन रहना इस घर में जो उतना ही तुम्हारा भी है तुम्हें देखने की प्यास है गहरी तुम्हें सुनने की कुछ दिन रहना जैसे तुम गई नहीं कहीं मेरे पास समय कम होता जा रहा है मेरी प्यारी दोस्त घनी आबादी का देश मेरा कितनी औरतें लौटती हैं शाम होते ही अपने-अपने घर कई बार सचमुच लगता है तुम उनमें ही कहीं आ रही हो वही दुबली देह बारीक चारखाने की सूती साड़ी कंधे से झूलता झालर वाला झोला और पैरों में चप्पलें मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले भाग दौड़ में भरोसे के लायक तुम्हें भी अपने काम में ज़्यादा मन लगेगा मुझसे फिर एक बार मिलकर लौटने पर दुख-सुख तो आते जाते रहेंगे सब कुछ पार्थिव है यहाँ लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं पार्थिव इनकी ताज़गी रहेगी यहीं हवा में ! इनसे बनती हैं नयी जगहें एक बार और मिलने के बाद भी एक बार और मिलने की इच्छा पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी आम के बाग़ आम के फले हुए पेड़ों के बाग़ में कब जाऊँगा? मुझे पता है कि अवध, दीघा और मालदह में घने बाग़ हैं आम के लेकिन अब कितने और कहाँ कहाँ अक्सर तो उनके उजड़ने की ख़बरें आती रहती हैं। बचपन की रेल यात्रा में जगह जगह दिखाई देते थे आम के बाग़ बीसवीं सदी में भागलपुर से नाथनगर के बीच रेल उन दिनों जाती थी आम के बाग़ों के बीच दिन में गुजरो तब भी रेल के डब्बे भर जाते उनके अँधेरी हरियाली और ख़ुशबू से हरा और दूधिया मालदह दशहरी, सफेदा बागपत का रटौल डंटी के पास लाली वाले कपूर की गंध के बीजू आम गूदेदार आम अलग खाने के लिए और रस से भरे चूसने के लिए अलग ठंढे पानी में भिगोकर आम खाने और चूसने के स्वाद से भरे हैं मेरे भी मन प्राण हरी धरती से अभिन्न होने में हज़ार हज़ार चीज़ें हाथ से तोड़कर खाने की सीधे और आग पर पका कर भी यह जो धरती है मिट्टी की जिसके ज़रा नीचे नमी शुरू होने लगती है खोदते ही ! यह जो धरती मेढक और झींगुर के घर जिसके भीतर मेढक और झींगुर की आवाज़ों से रात में गूँजने वाली यह जो धारण किये हुए है सुदूर जन्म से ही मुझे हम ने भी इसे संवारा है ! यह भी उतनी ही असुरक्षित जितना हम मनुष्य इन दिनों आम जैसे रसीले फल के लिए भाषा कम पड़ रही है मेरे पास भारतवासी होने का सौभाग्य तो आम से भी बनता है! गाय और बछड़ा एक भूरी गाय अपने बछड़े के साथ बछड़ा क़रीब एक दिन का होगा घास के मैदान में जो धूप से भरा है बछड़ा भी भूरा ही है लेकिन उसका नन्हा गीला मुख ज़रा सफेद उसका पूरा शरीर ही गीला है गाय उसे जीभ से चाट रही है गाय थकी हुई है ज़रूर प्रसव की पीड़ा से बाहर आई है फिर भी बछड़े को अपनी काली आँखों से निहारती जाती है और उसे चाटती जा रही है बछड़े की आँखें उसकी माँ से भी ज़्यादा काली हैं अभी दुनिया की धूल से अछूती बछड़ा खड़ा होने में लगा है लेकिन कमल के नाल जैसी कोमल उसकी टाँगें क्यों भला ले पायेंगी उसका भार ! वह आगे के पैरों से ज़ोर लगाता है उसके घुटने भी मुड़ रहे हैं पहली पहली बार ज़रा-सा उठने में गिरता है कई बार घास पर गाय और चरवाहा दोनों उसे देखते हैं सृष्टि के सबक हैं अपार जिन्हें इस बछड़े को भी सीखना होगा अभी तो वह आया ही है मेरी शुभकामना बछड़ा और उसकी माँ दोनों की उम्र लम्बी हो चरवाहा बछड़े को अपनी गोद में लेकर जा रहा है झोपड़ी में गाय भी पीछे-पीछे दौड़ती जा रही है। नन्ही बुलबुल के तराने एक नन्ही बुलबुल गा रही है इन घने गोल पेड़ों में कहीं छुप छुप कर गा रही है रह-रह कर पल दो पल के लिए अचानक चुप हो जाती है तब और भी व्याकुलता जगाती है तरानों के बीच उसका मौन कितना सुनाई देता है ! इन घने पेड़ों में वह भीतर ही भीतर छोटी छोटी उड़ानें भरती है घनी टहनियों के हरे पत्तों से खूब हरे पत्तों के झीने अँधेरें में एक ज़रा कड़े पत्ते पर वह टिक लेती है जहाँ जहाँ पत्ते हिलते हैं तराने उस ओर से आते हैं वह तबीयत से गा रही है अपने नये कंठ से सुर को गीला करते हुए अपनी चोंच को पूरा खोल कर जितना हम आदमी उसे सुनते है आसपास के पेड़ों के पक्षी उसे सुनते हैं ज़्यादा नन्ही बुलबुल जब सुनती है साथ के पक्षियों को गाते तब तो और भी मिठास घोलती है अपने नये सुर में यह जो हो रहा है इस विजन में पक्षीगान मुझ यायावर को अनायास ही श्रोता बनाते हुए मैं भी गुनगुनाने को होता हूँ पुरानी धुनें वे जो भोर के डूबते तारों जैसे गीत! |
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