आज भारत अपने इतिहास के एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। यह संक्रमण एक सामंतवादी कृषक समाज से उसके एक आधुनिक औद्योगिक समाज में रूपांतरित होने का है। यह इतिहास का एक बहुत ही पीड़ादायक दौर है। पुराना सामंती समाज उखड और बिखर रहा है, लेकिन आधुनिक औद्योगिक समाज पूरी तरह और मजबूती से स्थापित नहीं हो पाया है। पुराने मूल्य ढह रहे हैं लेकिन नये आधुनिक मूल्य उनकी जगह नहीं ले पाये हैं। सब कुछ अस्त-व्यस्त और बिखराव में है। जैसा शेक्सपीयर ने ‘मैकबेथ में कहा है’ जो अच्छा है वो खराब है, जो खराब है वो अच्छा है’।
अगर कोई 16वीं से 19वीं शताब्दी तक का यूरोप का इतिहास पढे, जब वहां सामंतवाद से आधुनिक समाज में संक्रमण चल रहा था, तो महसूस करेगा कि संक्रमण का यह दौर बिखराव, उत्पात, युद्ध, अराजकता, क्रान्तिों, सामाजिक मंथन और बौद्धिक उफान से भरा था। इस अग्निपरिक्षा से गुजरने के बाद ही वहां आधुनिक समाज अस्त्तिव में आया। भारत आज उसी अग्निपरिक्षा से गुजर रहा है। आज हम अपने देश के इतिहास के एक कष्टदायी दौर से गुजर रहे हैं, जो मेरा अनुमान है अभी 15 से 20 साल और चलेगा। मैं कामना करूंगा कि संक्रमण की यह प्रक्रिया अकष्टकारी और तत्काल हो, लेकिन अफसोस कि इतिहास ऐसे नहीं संचालित होता है।
इस संक्रमण के दौर में विचारों की भूमिका, और इसलिये मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इतिहास के किन्हीं खास मौकों पर विचार भौतिक शक्ति बन जाते हैं। मसलन, स्वतंत्रता, बराबरी अैर भाईचारा तथा धार्मिक स्वतंत्रता (धर्मनिरपेक्षता) के विचार, यूरोप के जागरण काल में, खास कर अमरीकी और फ्रेंच क्रान्तियों के दौरान ताकतवर भौतिक शक्ति बन गये। यूरोप के इस संक्रमण काल के दौरान, मीडिया (जो उस समय सिर्फ प्रिंट तक सीमित थी) ने सामंती यूरोप के एक आधुनिक यूरोप में रूपांतरित होने में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी।
मेरे विचार से भारतीय मीडिया को भी वैसी ही प्रगतिशील भूमिका, जैसी यूरोप में मीडिया ने (उस रूपांतरण के दौर में)निभाई थी, निभानी चाहिये। ऐसा वह पिछडे और सामंती विचारों मसलन जातिवाद, साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास, स्त्रीयों का दमन इत्यादि पर हमला बोल कर और आधुनिक, तार्किक, वैज्ञानिक विचारों, धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता का प्रचार करके कर सकती है। एक समय, हमारी मीडिया के एक हिस्से ने हमारे देश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
काम करने का तरीका
जब मैंने भारतीय मीडिया, खास कर ब्रॉडकास्ट मीडिया की ऐसी प्रगतिशील और सामाजिक जवाबदेही की भूमिका नहीं निभाने पर आलोचना की तो मेरे उपर मीडिया का एक हिस्सा हमलावर हो गया। कुछ ने तो मेरे उपर व्यक्तिगत हमले शुरू कर दिये कि मैं सरकार का एजेंट हूं। जब मीडिया की कार्यप्रणाली पर सवाल उठ रहे हों तो यह अपेक्षित था कि उन मुद्दों पर गम्भीरता से विचार होता।
मीडिया की आलोचना से मैं चाहता था कि उन्हें अपने कार्यपद्धति में बदलाव लाने के लिये सहमत करूं, ना कि मैं उन्हें बर्बाद करना चाहता था। भारतीय मीडिया को बदलाव के इस दौर में ऐतिहासिक भूमिका निभानी है, और मैं उन्हें राष्ट् के प्रति उनके इसी ऐतिहासिक जिम्मेदारी का एहसास कराना चाहता था। लेकिन मेरी आलोचना को सही भाव से लेने के बजाये मीडिया के एक हिस्से द्वारा मेरे खिलाफ वास्तव में एक अभियान छेड दिया गया। जिसमें मुझे एक तानाशाह दानव के बतौर चित्रित करने की कोशिश की गयी।
मनोरंजन पर ज्यादा जोर
मीडिया को मुझे अपने एक शुभ चिंतक के बतौर देखना चाहिये। मैंने उसकी इसलिये आलोचना की कि मैं चाहता था कि मीडिया के लोग अपनी उन तमाम कमजोरियों को त्यागें और सम्मान का रास्ता अख्तियार करें, जिस पर यूरोपीयन प्रेस चल रहा है, जिससे उन्हें भारतीय लोगों का सम्मान हासिल हो सके। मैंने उल्लेख किया कि हमारे देश की 80 फीसद आबादी भयावह गरीबी में जी रही है, यहां भयानक बेरोजगारी है, आसमान छूती महंगाई है, स्वास्थ सेवा, शिक्षा की कमी इत्यादि और बर्बर सामाजिक रीति रिवाज मसलन ऑनर किलिंग, दहेज हत्याएं, जातीय उत्पीड़न और साम्प्रदायिकता है। इन्हें गम्भीरता से सम्बोधित करने के बजाये, हमारी मीडिया की कवरेज का 90 फीसद हिस्सा मनोरंजन को जाता है। जैसे फिल्म स्टारों की जिंदगियां, फैशन परेड, पॉप म्यूजिक, डिस्को डांस, क्रिकेट या ज्योतिष में।
इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया को लोगो को कुछ मनोरंजन भी देना चाहिये। लेकिन अगर उनके कवरेज का 90 फीसद मनोरंजन को समर्पित रहेगा और सिर्फ 10 फीसद सामाजिक आर्थिक मामलों को, तब यही कहा जायेगा कि मीडिया का प्रार्थमिकता तय करने का विवेक खो चुकी है। जनता के सामने मुख्य सवाल सामाजिक-आर्थिक हैं और मीडिया उसका उनसे ध्यान भटका कर गैर मुद्दों जैसे फिल्म स्टार, फैशन परेड, डिस्को, क्रिकेट इत्यादि पर केन्द्रित कर रही है। मैंने इसी प्रार्थमिकता तय करने के उसके विवेक और अंधविश्वास दिखाने के लिये मीडिया की आलोचना की।
मैंने क्या कहा
आलोचना से न तो किसी को घबराना चाहिये और ना ही उसका बुरा मानना चाहिये। लोग मेरी जितनी चाहे उतनी आलोचना कर सकते हैं, मैं उनका बुरा नहीं मानूंगा, और हो सकता है मैं इससे लाभान्वित ही हूं। लेकिन इसी तरह मीडिया को भी अगर मैं उसकी आलोचना करता हूं तो बुरा नहीं मानना चाहिये। क्योकि मेरा ऐसा करने का उद्धेष्य उन्हें एक बेहतर मीडियाकर्मी बनाना था।
आलोचना करते समय बहरहाल यह जरूरी है कि विरोधी की बातों को बिना तोड़े-मरोड़े उसी के उसी रूप में रखा जाये। यही तरीका है जिसे हमारे दार्शनिकों ने भी इस्तेमाल किया है। उनको पहले अपने विरोधी के पक्ष को रखना चाहिये, जिसे ‘पूर्वपक्ष’ कहा जाता था।यह इतने बेहतर और बौद्धिक इमानदारी से किया जाता था कि अगर विरोधी भी वहां मौजूद हो तो वह भी अपने पक्ष को इतने बेहतर तरीके से नहीं रख सकता था। इसके बाद ही उसकी आलोचना की जाती थी। दुर्भाग्य से हमारी मीडिया अक्सर इस परिपाटी पर नहीं चलती।
बहरहाल,मैंने पूरे मीडिया के बजाये उसके बडे हिस्से पर टिप्पणी की थी। बहुत सारे मीडिया के लोग हैं जिनके लिये मेरे पास बहुत सम्मान है। इसलिये मैं यहां साफ कर दूं कि मैंने पूरी मीडिया को एक ही ब्रश से नहीं रंगा। दूसरे, मैंने यह नहीं कहा कि मीडिया का यह बहुसंख्यक हिस्सा कम पढा लिखा और जाहिल है। यह फिर से जो मैंने कहा था उसकी जानबूझ कर बिगाडी गयी प्रस्तुति है। मैंने ‘अशिक्षित’ शब्द का प्रयोग ही नहीं किया था। मैंने कहा था कि अधिकतर का ‘बौद्धिक स्तर कमजोर’ है। कोई व्यक्ति भले ही बीए या एमए पास हो, लेकिन उसका बौद्धिक स्तर कमजोर हो ही सकता है।
मैंने बार-बार अपने लेखों, भाषणों और टीवी साक्षात्कारों में कहा है कि मैं मीडिया पर सख्ती के खिलाफ हूं।
लोकतंत्र में मुद्दे सामान्यतः बातचीत से, विचार-विमश् और संवाद से हल किये जाते हैं, और यही तरीका मैं पसंद करता हूं, ना कि सख्त तौर तरीका। यदि किसी चैनल या अखबार ने कुछ गलत किया है तो मैं चाहूंगा कि उसके जिम्मेदार लोगों को बुलाऊ और उनको समझाऊ कि उन्होंने जो किया वो ठीक नहीं था। मैं विश्वास से कह सकता हूं कि 90 फीसद से अधिक मामलों में ऐसा करना पर्याप्त होगा। मेरा दृढ विचार है कि 90 फीसद लोग जो गलत कर रहे हैं उन्हें बेहतर लोगों में तब्दील किया जा सकता है।
सख्त तरीकों की जरूरत सिर्फ 5 या 10 प्रतिशत मामलों में ही पड़ेगी और वह भी जब लोकतांत्रिक तरीके बार-बार इस्तेमाल होने के बावजूद विफल हो चुके हों और यह साबित हो चुका हो कि वे इससे सुधरने वाले नहीं हैं।
मेरे इस बयान को भी विकृत किया गया और एक ऐसी गलत क्षवि बनाने की कोशिश की गयी कि मैं देष में इमरजेंसी लगाना चाहता हूं। कुछ अखबारों में कार्टून छापे गये जिसमें मुझे एक तरह से तानाशाह की तरह दर्शाया गया।
सच्चाई तो यह है कि मैं हमेशा स्वतंत्रता का हिमायती रहा हू जिसका प्रमाण मेरे द्वारा सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में दिये गये फैसले हैं। जिनमें मैं कहता रहा हूं कि जज नागरिकों की स्वतंत्रता के रक्षक हैं और अगर वे इन स्वतंत्रताओं को बनाये रखने में नाकाम होते हैं तो यह उनका अपनी जिम्मेदारी में विफल होना है। लेकिन स्वतंत्रता का मतलब अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने का लाईसेंस नहीं है। सभी स्वतंत्रतायें, जनहित में, एक ताकिर्क पाबंदी के दायरे में जवाबदेह होती हैं।
ब्राडकास्ट मीडिया द्वारा स्व नियंत्रण
वर्तमान में इलेक्टॉनिक मीडिया की निगरानी करने वाली कोई संस्था नहीं है। भारतीय प्रेस परिषद सिर्फ अखबारों की निगरानी करता है और यहां पर भी पत्रकारीय नैतिकता की अव्हेलना करने वालों को सजा के बतौर वह सिर्फ चेतावनी दे सकता है। मैंने प्रधान मंत्री को सिफारिश करते हुये लिखा है कि प्रेस काउंसिल ऐक्ट मे संशोधन कर 1- इलेक्टॉनिक मीडिया को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाया जाये, और 2- प्रेस परिषद को और अधिक अधिकार और शक्ति दिया जाये।
इलेक्टॉनिक मीडिया ने इसका तीखा विरोध किया है। वह स्वनियंत्रण की बात कर रही है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के पास भी ऐसा स्पष्ट अधिकार नहीं है। उन पर उनके गलत व्यवहार के लिये संसद में महाभियोग चलाया जा सकता है। वकील भी बार काउंसिल ऑफ इण्डिया के अधीन हैं जो उनके पेशेवर गलत आचरण पर उनका लाइसेंस सस्पेंड या कैंसिल कर सकता है। डॉक्टर मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अधीन आते हैं, जो उनका लाइसेंस सस्पेंड या कौंसिल कर सकता है। लेखाधिकारी की भी यही स्थिति है। तब फिर इलेक्टॉनिक मीडिया क्यों किसी निगरानी संस्था के अधीन आने से शर्मा रही है। यह दोहरा मापदण्ड क्यों? यदि वे भारतीय प्रेस परिषद के अधीन नहीं आना चाहते (क्योंकि वर्तमान अध्यक्ष दुष्ट है या अवांछित है) तब न्यूज ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन को बताना चाहिये कि वो किस निगरानी संस्था के अधीन आना चाहते हैं। क्या वे लोकपाल के अंर्तगत आना चाहते हैं? मैं लगातार इस सवाल को विभिन्न अखबारों में उठाता रहा हूं लेकिन मेरे इस सवाल पर एनबीए और बीइए की तरफ से पथ्थरनुमा खामोशी ही दिखाई गयी या इस सवाल को ही ‘गैरजिम्मेदार’ करार दिया गया।
टीवी न्यूज और कार्यक्रमों का हमारे समाज के व्यापक हिस्से पर प्रभाव पडता है। इसलिये मेरे हिसाब से टीवी चैनलों को भी जनता के प्रति जवाबदेह बनाना चाहिये।
यदि ब्रॉडकास्ट मीडिया स्वनियंत्रण पर जोर देती है, तब तो इसी तर्क के आधार पर राजनेताओं, अफसरशाहों और दूसरे लोगों को भी लोकपाल के दायरे में लाने के बजाये , स्वनियंत्रण का अधिकार दिया जाना चाहिये। या फिर ब्रॉडकास्ट मीडिया अपने को इतना पवित्र मानती है कि उनकी उनके सिवा कोई दूसरा निगरानी नहीं कर सकता? तब ऐसे में, पेड न्यूज क्या है, राडिया टेप इत्यादि क्या हैं? क्या यह संतों का किया-धरा है?
दरअसल, स्वनियंत्रण जैसी कोई चीज होती ही नहीं, यह एक उल्टी और अस्वाभाविक चीज है। लोकतंत्र में हर कोई जनता के प्रति उत्तरदायी होता है-इसलिये मीडिया भी है।
अनुवादक - शाहनवाज आलम स्वतंत्र पत्रकार/संगठन सचिव पीयूसीएल, यूपी
दुकान नं-2, लोवर ग्राउंड फ्लोर
एसी मेडिसिन मार्केट, नया गांव- इस्ट
लाटूश रोड, लखनउ, उत्तर प्रदेश
मो- 9415254919





(नवल किशोर कुमार। बिहार की पत्रकारिता में युवा सजग चेहरा। प्रतिरोध की खबरों के संयोजक। दैनिक आज के पटना संस्करण से जुड़े हैं। उनसे editor@apnabihar.org पर संपर्क किया जा सकता है।)
बिहार के एक मरवाड़ी परिवार में जन्में अनिल चमडिया के पिता चाहते थे कि उनका बेटा चार्टेड अकाउंटेंट बने. लेकिन चमडिया की किस्मत चुपचाप उनके लिए एक अलग राह तैयार कर रही थी. गैरबराबरी से लड़ाई की राह. समय का चक्र घूमता गया और चमडिया ने एक दिन खुद को इस राह पर खड़ा पाया. सन 1991, जुलाई की बात है, जब ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, पटना ने उनके बारे में एक आर्टिकल लिखा. शीर्षक था ‘No Armchair Journalist’. दो दशक बाद भी इस स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है. आज भी वह आपको दिल्ली और देश के कई हिस्सों में उसी शिद्दत से अपनी बात कहते मिल जाएंगे. दलित न होते हुए भी जिन कुछ खास लोगों ने दलित हित की आवाज को मजबूती से उठाया है, अनिल चमडिया उनमें प्रमुख हैं. तकरीबन तीन दशक पहले उन्होंने लेखन और एक्टिविज्म के जरिए गैरबराबरी का जो विरोध शुरू किया था. वह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. इस लड़ाई में अतिसक्रियता के कारण उन्हें कई बार विरोध का भी सामना करना पड़ा. समाज का एक तबका उनपर स्वार्थवश दलित राग अलापने का आरोप तक लगाता है. लेकिन चमडिया इन सबसे बेपरवाह, बिना विचलित हुए अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं. वर्तमान समय में दलित आंदोलन, राजनीतिक व्यवस्था, राजनीति में दलितों की स्थिति और अंबेडकर सहित तमाम मुद्दों पर दलितमत.कॉम के आपके मित्र अशोक दास ने उनसे बातचीत की. बातचीत लंबी होने के कारण इसे दो भाग में दिया जाएगा. पेश है पहला भाग...
नहीं है. मेरा परिवार एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार था. हालांकि अब स्थिति अच्छी हो गई है. मेरी पढ़ाई-लिखाई थोड़ी डिस्टर्ब रही. गुरुद्वारा का एक स्कूल था, हम वहीं पर जाते थे. भारती मंदिर स्कूल का नाम था. सातवी तक हम यहीं पढ़े. मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं शहर से बाहर जाकर पढ़ूं लेकिन उसी समय उनको दिल का दौरा पड़ गया. उस जमाने में यह बहुत बड़ी बीमारी थी. घर में सबसे बड़े हम ही थे, तो शहर जाना नहीं हो पाया. मेरी हाई स्कूलींग जो है, वो नहीं हो पाई. आठवीं की परीक्षा प्राइवेट दी. नौवीं में जरूर एक साल के लिए पब्लिक स्कूल में पढ़ाई की. फिर मैनें बोर्ड की परीक्षा (तब ग्यारवीं में होती थी) दी. हालांकि हम अपने शहर में बहुत अधिक दिनों तक नहीं रहे. शुरू से ही विषय कार्मस था. 82 में ग्रेजुएशन पास करने के तुरंत बाद मेरा लिखना शुरू हो गया था. आपको पता होगा, तब बिहार में आरक्षण को लेकर काफी लड़ाई चल रही थी. तब हम कॉलेज में थे. हमने उसमें भागीदारी की. उसे लीड किया. हालांकि 74 के आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. उम्र छोटी थी लेकिन मुझे याद है हमलोग स्टेशन पर चले आए थे, गाड़ियां रोकी थी. उसी समय एक राजनीतिक रुझान बनना शुरू हो गया था. लेकिन 82 के बाद हम शहर में नहीं रह पाएं. फिर पटना चले आएं. यहां कुछ दिनों तक सामाजिक न्याय की राजनीति से जुड़े रहे, फिर समाज में बुनियादी परिवर्तन की राजनीति से जुड़े रहे. तो ये सब काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. लेकिन लेखन और एक्टिविज्म ये शुरू से साथ-साथ चलता रहा.
अन्याय का स्वरूप है. मैं यह मानता हूं कि बुनियादी तौर पर मनुष्य अन्याय विरोधी होता है. जब भी वो असमानता और गैरबराबरी देखता है तो उसकी मनोवस्था विचलित होती है. वह परेशान होता है. व्यवस्था विरोधी उसकी चेतना होती है. होता यह है कि आपके भीतर वो जो चेतना होती है, उसे विस्फोट करने का मौका मिल जाता है. अब पता नहीं यह संयोग रहा या फिर क्या था कि बचपन से ही हमारे भीतर भी यह चेतना थी. स्कूलों में भी मेरी लड़ाई कई स्तरों पर होती थी. तो आपका जो यह प्रश्न है कि दलितवादी मैं कब से हुआ तो मैं इसकी कोई तिथि नहीं बता सकता. कोई फेज नहीं बता सकता. और मैं यह समझता हूं कि कोई भी व्यक्ति जो चेतना संपन्न है और वह यह क्लेम करता है कि मैं दलितवादी हूं तो वह शुरुआती दिनों से ही जबसे वह होश संभालता है, उसके अंदर वह चेतना होती है. अगर वह चेतना नहीं होगी तो अचानक कोई दलितवादी नहीं हो जाएगा. हां, अगर कोई अपने को इंपोज करना चाहे कि आज अवसर है और हमें इसका फायदा उठाना है. इसके लिए हमें खुद को दलितवादी बनाना है तो हो सकता है. लेकिन वास्तव में जो छटपटाहट होती है, वह अचानक नहीं होती.
हैं.खुद को वामपंथी कहने से बचते हैं. वामपंथ को गाली देते हुए मिलते हैं. क्योंकि उनका एक अवसर था. उसमें उन्होंने लाभ उठा लिया. जहां तक खुद को दलितवादी होने का दावा है तो ऐसे इलाकों में जाकर कहिए जहां अब भी काफी चुनौतियां हैं. वहां जाकर कहिए कि मैं दलितवदी हूं. अगर दलितवादी होने की कसौटी हम यह बनाएं कि इसके चलते आप क्या खोते हैं, तो इसका दावा करने वाले लोगों ने खोया नहीं है बल्कि पाया ही है. जैसे कई सारे लोग कहते हैं कि हम धर्मनिरपेक्ष हैं. तो अगर खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने से हमें लाभ मिल रहा है. तो आपको उस लाभ को उठाने में क्या है.
- देखिए दो तरह के ट्रेंड रहे हैं. अगर आप शुरुआती दिनों में देखें तो एक बाबा साहब रहे तो दूसरे बाबूजी (जगजीवन राम). दो धारा रहे. एक धारा जो है वो कहता है कि आप अपने
अगर उस समय के आंदोलन के भीतर जाकर देखिएगा तो आपको मार्क्सवाद की छाप मिलेगी. क्योंकि जो बुनियादी दर्शन है गैरबराबरी के खिलाफ, इसके खिलाफ जहां भी लड़ाई होगी इसमें उसकी छाप मिलेगी.
रहे हैं. मैं कहता हूं कि आप जय भीम नहीं कहें. आपके समाज की जो अवस्था है, उसमें अभी जय की जरूरत नहीं है. उसमें अभी जागो कि जरूरत है. हम‘जय भीम-जागो भीम’क्यों नहीं बोल सकते. क्योंकि यह हमारा माइंडसेट बना हुआ है. एक बोलता है जय श्रीराम, हम बोलते है जय भीम. तो आप पूरे स्ट्रक्चर को सुरक्षित रखते हैं. आप केवल नाम को ले जाकर के वहां फिट कर देते हैं. ढ़ांचा वही रहता है. तो जय के ढ़ांचे को तोड़ने की जरूरत है. अभी इस समाज को जय की जरूरत नहीं है. जय, विजय, पराजय गैर-बराबरी के समाज का संबोधन है. हम तो अन्याय से पीड़ित है. हमारे समाज में बड़ा हिस्सा अभी भी उसी अवस्था में है. उसे जगाने की जरूरत है. दलित का हर बच्चा भीम है, उसमें यह भाव कैसे पैदा करें. तो उसे हम बोलें कि जागो भीम दूसरा बोले की बोले कि बोलो भीम. ये समाज के पूरे ढ़ांचे को चेंज करेगा. अभी हमारी जो लड़ाई की दिशा है वो ठीक दिशा नहीं है. वो ढ़ांचे को तोड़ने की दिशा नहीं है. वह इसमें अकोमडेट (accommodate) करने की दिशा है.